Wednesday, July 22, 2009

कई अंधेरे ऐसे होते है जिन्हे जीने के लिये जैसे समूची मानवजाति अभिशप्त है.उनमे से एक है हिंसा.कोई भी काल हो,कोई भी युग है,किसी एक जीवन मे हो या पूरे समाज मे हो बिना किसी भेद भाव के ,हिंसा का उन्माद जब जब भी हावी होता है,ना जाने कितने जीवन अंधियारे कर जाता है और अपने पीछे ऐसी कालिख छोड जाता है जिससे वर्तमान ही नहीं भविष्य भी धुंधुआता रहता है. ऐसे ही अंधेरे का चित्र देखिये सुमति जी की कलम से..................


जाने कैसी हवा थी
जो
चुपचाप बैठी थे मुडेर पर
किसी आदमखोर गिद्ध की तरह
और नोच कर खाने लगी थी
दीवारो पर चिपकी खिलखिलाहटो
और
फ़र्श पर पसरी आहटो को
सहसा उभर आये थे
ढेरो
लहू के छीटॆ
दीवारो पर,फ़र्श पर
मुडेर पर
दहशत भरी चीखों
भागते कदमो की तेज आहटो
उन्माद भरे नारों को
गे ठेलता हुआ
तेजी के साथ फ़ैल गया है
एक निःशब्द सिसकता हुआ सन्नाटा
उसी सन्नाटे को तोड़ता हुआ
डोल रहा है वह कुत्ता
सूंघता हुआ जलांध को
कहीं कुछ टोहता हुआ
कभी भोकता हुआ
,वह किसी गंध को नहीं खोज रहा
अपने मालिक को
वह तो खोज रहा है
उस आस्था को
जो
उन लुढके हुए कनस्तरो
इधर उधर बेतरतीब बिखरी चप्प्लो
और
अधजली दीवारो के बीच
कहीं
खो गयी है...........................


हम यह तो नही कह सकते कि खून से दीवारे फ़िर नही रंगेगी,यह बिखरी चप्पलो,बदहवास कदमो का मंजर फ़िर नहीं दोहराया जायेगा पर यह सच है कि आस्था को बचाये रखने का ,उसे खोजते रहने का सिलसिला जरूर बना रहेगा.

Tuesday, March 31, 2009

अरे तकरीबन एक वर्ष का समय होने जा रहा है और हम इधर आये ही नहीं .कितना कुछ घट गया इस बीच.ऐसानहीं कि सोचा ही नहीं पर बस होता है ना कि समय फ़िसलता जाता है. समय को जुगनुओ की शक्ल में मुट्ठी में बंद कर लेने का ख्वाब तो सुमति जी ने भी देखा था ,पर उनके साथ तो कुछ ऐसा हुआ कि समय खड़ा ही रह गया और वो खुद उसे धता बता निकल गयी किसी अनजान दिशा की ओर. चलिये हम कोशिश करें समय को सहेजने की...............

ऐसा क्यों नहीं होता
वह सब
जिसे हम शुरु करते हैं
सुन्दरता के साथ ही
खत्म करें,
क्यों नहीं हम
बीते हुए छ्नो को
जुगनुओं की शक्ल में
सहेज लें , अपनी मुट्ठी में
और
दरारों से दिपदिपाती रोशनी
देखते रहे उम्र भर ?

अपने ही भीतर जीने के बहानों या कहे कारणो को इकट्ठा कर लेना और फ़िर जब भी रास्ता मुश्किल लगने लगे ,भीतर को मुड़ कुछ पल के लिये उनके संग हो लेना.आगे बढने का हौसला मिल जायेगा ना. अपनी संजीवनी अपने पास रखने जैसी बात हुई ना......................

बादल का एक नन्हा सा
जब तैर कर
नापने लगता है आकाश
कमरे मे पसरी
सारी उदासी
बुहार
कर फ़ैंकने को जी चाह्ता है.
अक्सर सोचा है
तुम्हारे स्नेह की सम्पूर्ण ऊष्मा
अपनी हथेलियों में बंद कर लूं
और
जब भी अकेलापन
जमने
लगे बर्फ़ की तरह
सिर्फ़ हथेलियां खोल भर लूं .

हम उष्मा को हथेलियों मे समेटे , अंधेरे मे कंदील बना टांगे या जुगनुओं के लट्टू बना रौशनी की लड़ी सजा ले अंदर बाहर फ़िर भी कुछ अंधेरे ऐसे क्यों होते हैं कि फ़िर फ़िर घिर ही आते हैं.