Monday, November 5, 2012

टटोलती रहीं तुम्हारी आंखें
मेरे चेहरे को
ढूंढती रहीं
शायद वह
जो तुम पढना चाहते थे
या कि
जो सचमुच मैं कहना चाहती थी
पता नहीं
क्या मिला तुम्हें अक्सर
वह जो तुमने चाहा पाना
या कि वह जो मैंने कहना
पर सच है
जब भी तुमने टटोला
मैं चिड़िया हो गयी चहचहाती
मेंह हो गयी आकार बदलती
अमलतास हो गयी हंसी बिखेरती
पलाश हो गयी आंच बांटती
हरसिंगार हो गयी शांत झरती
बसंत शरद हो गयी
पर नहीं हुयी सिर्फ़ चेहरा
तुम्हें भी तो नहीं मिला होगा
कोई चेहरा
मिला होता तो
तुम भी हो जाते चेहरा
तमाम चेहरों के बीच
एक चेहरा
पर
तुम आकाश हुये समेटते
समुद्र हुये डुबोते
बारिश हुये भिगोते
पहाड़ हुये मुग्ध करते
छतनार हुये सुरक्षा देते

तुम चेहरा नहीं हुये
इसीलिये तो
मैं मेंह बनी
मछली बनी
बारिश की बूंद बनी
पहाड़ की बर्फ़ बनी
छतनार की खुशबू हुई
नहीं हुई सिर्फ़ चेहरा
हम हम हैं
कि चेहरा नहीं हैं
सर्वनाम नहीं हैं......

और आज के ही दिन तुम सारी गणित,सारी व्याकरण ,सारी परिभाषाओं और पहचान से परे बारिश,पहाड़,मेह,खुशबू हो गयी थीं.और हमने भी संजो रखा है तुम्हें पहली बारिश मे उठती माटी की सोंधी गंध में,अलस सुबह झरते हरसिंगार के रंग में,दूर पहाड़ों पर गूंजते लोक गीतों के बोलों में.......यहीं हो आस पास.

Saturday, March 10, 2012

 'लयबद्ध 'डा. लक्ष्मी कन्नन ' के तमिल कहानी संग्रह का डा. सुमति अय्यर द्वारा किया गया हिंदी अनुवाद है.इस कहानी संग्रह में पंद्रह कहानियाँ है ,जिसमे से हम आख़िरी कहानी 'लयबद्ध' ही फिलहाल यहाँ उतार रहे हैं.




बोल्ड आखिर है क्या ?क्या वह जीवन का यथार्थ है ?जिधर देखो कहानियाँ -कहानियाँ बिखरी पडी है जीवन के यथार्थ रंगों से परिपूर्ण .आपकी पकड़ से शायद कई रंग छूट गए हो .किन्तु कहानी में वे पूर्ण रूप से उजागर हो उठाते है ,ठीक फोटो चित्र की तरह और यदि इन चित्रों को समय और समाज मान्यता देता है तो वे लेखक और पाठक दोनों के लिए कालजयी बन जाते है .
ये रहा  पद्मा के सामने स्तूप की तरह बैठा बिल . सुद्रढ़ शरीर और ठहरी आवाज वाला बिल परछाई की तरह न जाने कहाँ बिला गया .अत्तेत के गर्त में समा गया ! जीवन की परिधि के बाहर चला गया !किन्तु इस कहानी से नहीं .इस कहानी में आज भी वह अडिग बैठा है ,देवदार वृक्ष की भांति ,लंबा छरहरा बदन और व्यक्तित्व जैसी ही सुदृढ़ आवाज .कुछ समय के लिए पद्मा के जीवन में यथार्थ बन कर आया था और आज स्वप्न की भाँती विलीन हो गया है .उस दिन केलिफोर्निया के बर्कले विश्वविद्यालय में उसने 'कथा साहित्य ' पर लंबा जोरदार भाषण दिया था .उसके अनुसार पीड़ा ,अविश्वास और तनाव की अनुभूति में कथा को रूप मिलता है .अपने में अनुभवों को समेटता हुआ एक भ्रामक बिम्ब .अगर कहानी सही ढंग से लिखी गयी हो तो उसे पद लेने के बाद कथा की तरह जीवन के व्यतीत होने की जैसी अनुभूति होती है .इतना बोलता रहा की खाना तक भूल गया .छोटे से कप में मक्खन पत्थर की तरह जम गया था .काफी वे पहले ही पी चुके थे .कुछ कप बिखरे हुए पड़े थे .केलिफोर्निया में इन दिनों खूब ठंडा रहता है .शीशे के पार कोहरा फूलो की तरह फैला था .सर्दी से कांपती हुई पद्मा उठी .
" बिल एक काफी और हो जाय?"
बिल ने सर नीचे हिला कर हाँ कर दी .पद्मा उठ कर दो प्याले और ले आयी और आ कर उसके सामने बैठ गयी .चीनी और दूध से रहित काली काफी .कडुवाहट अब आदत बन गयी थी ; गले के नीचे आराम से उतर जाती है.पद्मा के बैठते ही बिल ने फिर से सिरा जोड़ लिया .
" यह जो 'ब्लैक इल्क ' नाम के आदिवासी हैं न ,उसकी जीवनी पढो तो तुम्हे पता लगे कि कहानी किसे कहते हैं ?एकदम साफ़ सुथरी शैली है .जरूर पढ़ना ."
" देखो बिल ,अमेरिकी आदिवासी की जीवनी का मेरे शोध कार्य से कुछ लेना देना नहीं है ,तो फिर मै क्यूं पढू ? मेरे पास फालतू वक्त तो है नहीं ." पद्मा ने टोक दिया .
" तुम्हे अब सम्बन्ध भी ढूढने होगे पद्मा ! देखो सम्बन्ध तो अपने आप होते है .किसी दबाव के तहत तो होते नहीं .तुम्हारी दृष्टी इतनी छोटी हो गयी ."
" अरे बाबा ,ठीक है .मैं पड़ती हूँ .अब बताओ ,तुम क्या कह रह थे ."
" उसमे ब्लैक इल्क के पिता,जिनका जिक्र काले हिरन के नाम से किया गया है ,के विषय में बताया गया है .लिखता है ,"बुढापा प्रत्येक मनुष्य को आता है .बाबा को भी बुढापे ने ठीक इस कोहरे की बर्फ की तरह धक् लिया था .फिर वे दुखी क्यों होते थे ."जीवन मरण के यथार्थ को वे सहज ढंग से लेते रहे और जीते रहे है .बस ,उन्ही की तरह काला हिरन भी जीता रहा और फिर समाप्त हो गया .पहाड़ की तहलटी में उसे दफना दिया गया और फिर कुछ दिन बाद वहा घास उग आयी इस कहानी में हम अपने को ढूढ़ सकते हैं ."
" लगता है तुम्हारी कहानी गढ़ने की आदत कभी छूटेगी नहीं ." पद्मा ने काफी की चुस्की ली .
" हाँ पद्मा ,लोग बार बार एक ही कहानी को तोड़ते -मरोड़ते रहते हैं कथा का इतिहास बहुत पुराना है "नियंदरथल " नाम के हम आदि बानर की बात कहते है ,उसके समय से ही कथा का प्रचलन प्रारम्भ हो गया था ."
"नियंदरथल के पास तो भाषा ही नहीं थी ,फिर कथा को रूप कैसे मिला ?" पद्मा ने आश्चर्य से पूछा 
" दीवारों में ,चट्टानों में ,उसने उकेर कर सपने की तरह बीत जाने वाले जीवन की घटनाओं को रूप दिया ."
पद्मा उसकी बांटे सुनाती हुई बाहर फैले कोहरे को देखती रही .बिल आगे कहता रहा ," पता है उस नियंदार्थल मानव ने ही अपने समय के जंगली जानवरों को .शिकार को ,दो पैरों वाले मानव नाम की वस्तुओं  की अनित्यता को ,फिसलती हुई जिन्दगी को अपने ढंग से रोक रखने की कोशिश की थी ."
"जिन्दगी क्या है ?  कहानी क्या है ?नाखून और चमड़ी में क्या भेद है ?दोनों का ताना बाना स्वप्न की तरह होता है उस स्वप्न में से ही हम सचेत हो सकते है .पर स्वप्न तो सुषुप्ता अवस्था में ही देखे जा सकते हैं न !सब जैसे घूम घूम कर स्वप्न की और ही ले जाते हैं ,शेक्सपीयर ने यही तो कहा है .औए उसी पीड़ा को हम पूर्ण परिपक्वता से गृहण करते हैं और पचाते हैं."पद्मा ने खिड़की से आँख हटाई और बिल को देख कर बोली ," अंत में नियंदार्थल के उस मानव ने भी तो पृकृति के प्रभाव को किसी तरह रोक कर रख लिया था ,अपने सहज ढंग में .तभी तो हमें आज भी ऐसे चित्र मिलते है जो उसकी कथा कहते है ."
बिल ठाहाका लगा कर हंस दिया.उसकी भूरी आँखों में शरारत चमक उठी .
" मैंने तो जानबूझ कर इस शब्द का प्रयोग किया था .शायद तुम ऐसी ही भाषा समझ सको, क्यों?"
उसने हंस कर पद्मा के कंधे थपथपा दिए और बोला ,"आओ ,चले."
पद्मा सकुचा गयी . कैसी बेवकूफी कर गयी वह .इन्ही शब्दों पर'रोक कर रख लेने 'पर ही तो उनका परिचय हुआ था .तब भी बिल ने ऐसी ही शरारत की थी
बिल का असली नाम है डा. विलियम हेक्स्रन ,पर सब उसे बिल ही कहते है .वह भी केलीफोर्निया के बर्कले विश्वविद्यालय में शोध करने आया था .पद्मा की ही तरह उसे भी केलीफोर्निया जिले के एनी विश्वविद्यालयों ,लास एंजेलस ,सेंफ्रैन्सिसको ,इर्वाइन जाना था.उनकी पहली भेंट की याद आते ही पद्मा को आज भी हंसी आ जाती है .उस दिन सुबह का काम ख़त्म कर पद्मा बाहर टहल रही थी .इमारत के सामने लंबा चौकोर पोखर है .पद्मा उसके किनारे चल रही थी की बिल जो उसके पीछे चल रहा था लपक कर पास आया और बोला ," हेलो ,मैं पिछले कई लेक्चर्स से देख रहा हूम की तुम सर झुकाए लिखती चली जाती हो .भाई ,उसमे ऐसा लिखने जैसा है क्या ?"
बिल के यूं अचानक आ जाने और उसके इस अप्रत्याशित सवाल से वह चौंक गयी .पहले कभी औपचारिक परिचय हुआ था .वे कभी कभी अचानक हाथ मिला कर एक आध बोल लिया करते थे पर आज अचानक यूं ....
"प्रोफ़ेसर कोइ ऐसी बात कह देते हैं ,जो शायद बाद में दिमाग से निकल जाय ,उसी को रोक कर रखने के लिए .नोट कर लेती हूँ ."
" अच्छा !तो  यह बात है .तो एक कम करते है .लंच में मैं तुम्हे कैम्पस में स्तिथ इलेक्ट्रोनिक्स की दुकान पर ले चलता हूँ .वहां एक छोटा टेप रिकोर्दर मिल जायेगा उसे खरीद कर रख लो .पर पहले प्रोफ़ेसर की अनुमति ले लो फिर पूरा भाषण टेप कर लेना फिर आराम से कमरे में बैठ कर जिसे तुम चाहती हो रोक कर रख सकती हो ." अंतिम वाक्य पर उसने जोर दिया और उसकी और देखा
’ओह ,बिल ,थैन्क्यु, !थैंक्यू ,वेरी मच!"
" नो प्रोब्लम."
फ़िर उनकी मैत्री स्थायी हो गयी.बिल इस लगाव के बारे में बार बार सोचता और उसने पद्मा से एक दिन पूंछ ही डाला.
" हे भग्वान ,ये भारतीय किसी भी निर्णय पर पहुंचने के पहले दस बार सोचते हैं.अच्छा तो चलो,यदि तुम चाहो तो मैं अपने और तुम्हारे इस रहस्यमय लगाव पर कुछ शोध करूं? एक आध उत्तर ढूंढ दूं?"
" छोड़ो भी,मुझे तुम्हारे उत्तर नहीं चाहिये.अता पता करने की जरूरत नहीं." पद्मा खीज उठी थी.
" हां,हां,अब तो यही कहोगी.फ़िर भी सुन लो. यह एक संयोग है.आलस्मिक घटना है,जो मेरे साथ घटी.वैसी इस बारे में हम आगे बात नहीं करेंगे.पहली बात मैं कार्य के मामले में कुछ अलग हूं.मतलब लेखन मेम रुचि रखता हूं.लेखन का मतलब कहानी ,कविता नहीं.सोच समझ कर आम विषयों पर लिखना.इसी सिलसिले में एक बार भारत भी गया था.’अमेरिका रिव्यू नाम की पत्रिका ने पाकिस्तान,बांगला देश,भारत की युद्ध सम्बन्धी कार्यवाहियों की रिपोर्टिंगकरने के लिये जिस दल के साथ भेजा था,उन्हीं के साथ मुझे भी ढाका,इस्लामाबाद और भारत जाने का मौका मिला था.मुझे लगता है भारतीय बड़े गम्भीर होते हैं" उसकी भूरी आंखो में फ़िर वही शरारत.
" तुम कहना क्या चाहते हो?यही कि मैं आम भारतीयों से कुछ अलग हूं ,यही न,क्यों" पद्मा ने पूछा.
"अरे नहीं. बात को बाच में मत टोको.प्लीज!दूसरा कारण हमारे लगाव का क्या हो सकता है ,पता? यह तुम्हारी जिग्यासा को तीव्र कर दे और तुम्हारे लिये समय काटने का अच्छा साधन बन जाय."
" क्या?"
" सुना है,मेरे पूरवजों में कुछ सिकानो रह चुके हैं"
" सिकानो? यह क्या बला है?"
" वह एक किस्म का वर्णसंकर वंश  है.’ अमेगिल’ पुरातन अमेरिकी भारतीयों का वंश.अर्थात जिन्हें पहले रेड इन्डियन कहा करते थे.उनका वंश कुछ विस्तार में कहूं तो,नीग्रो में ’भुलाटो’नाम की जो वर्णसंकर जाति है,जिनका रंग साफ़,होंठ पतले और बाल सीधे होते हैं,ठीक उसी तरह मैं भी "अमेर अण्डियन" हूं."
पद्मा हंस पडी .रंग तो साफ़ है .पर उसके बाल, उसकी नुकीली दाढी का गहरा रूप -रंग ,लम्बी नाक ,बड़ी आँखे और गठा हुआ बदन ,उसे लगा जैसे उसने उसे पहली बार देखा हो .बिल उसकी आकलन भरी दृष्टी पर ठाहाका मार कर हंस पड़ा .
" क्या हुआ ,मैं परिक्षा में पास हो गया ?देखा ,मैंने घुमा -फिरा कर कैसे साबित कर दिया की मैं भी भारतीय हूँ .अच्छा ,तो अब मुझे स्वीकार करोगी?
बिल जब इस तरह हंसता है तो उसकी आँखों के कोनो में लकीरे उभर आती है.उसकी भूरी आँखों की शरारत के पीछे भी कुछ था जिन्हें उसकी आँखे खोज रही थी .दृष्टी में जैसे कोइ याचना भर आती थी .
किस तरह उसने अपने मूल रूप की चर्चा करते हुए एक प्रमाण पात्र सा थमा दिया था .पद्मा इसी स्तिथि से तो घबरा कर भागती आ रही थी .पर नहीं भाग सकी .बिल से जब परिचय हुआ ही था ....ओह ,कितना भागना पडा था .पर इस दौड़ के पीछे और भी कई कारण है .बिल यानी विलियम हेक्सटन से वह जब पहली बार मिली थी तो उसके रूप नहीं उसकी बुद्धी से प्रभावित हुई थी .कितना प्रतिभाशाली व्यक्तित्व !दूसरो की बुद्धि की थाह लेती हुयी गहरी भूरी आँखे .बातो का पैनापन ! ठीक किसी जौहरी की तरह ,जो हीरे को ध्यान से परख कर दोषी हीरे को हटा देता है .उसकी बातो का वही दो टूक पन,परखने के उसी अंदाज से प्रभावित हुयी थी पद्मा .कभी कभी तो पद्मा को अपने बुद्धि बल पर से विशवास हट जाता .सोचती ,उसका और बिल का कोइ जोड़ नहीं है और वह दूसरो की तरह भागने लगी थी .पर बिल ने उसे छोड़ा नहीं .भूरी आँखों ने ढेरो आग्रह किये .आँखों में ढेरो प्रश्न लिए वह लगातार उसके आगे पीछे भागता रहता .मानो,उससे हर प्रश्न का उत्तर चाहता हो .हांलाकि दोनों उम्र के उस दौर को पार कर चुके थे जन्हा आँखों में ढेरो सपने उग आते है .खुली आँखों से यथार्थ पहचान लेने की उम्र में आ गए थे वे .तलवार की धार वाली उम्र ,जहां भावनाए ,मनोवेग ,विचार ,जीवन के यथार्थ से उजागर रहते ठीक शरीर में गुदे गोदने की तरह ,अमिट और चुभन भरे .और सब कुछ जान लेने के बावजूद पीड़ा को नकारा नहीं जा सकता
पद्मा सिन्दूर वृक्ष के बीज को हथेलियों में घुमाती रही .पेड़ के नीचे कुछ बीज छितरे पड़े थे .कांटे की सी चुभन .बिल के वाक्यों में उसकी साँसों की गरमी घुल गयी थी .
" तुम हर बात पर परम्परा की दुहाई देने लगती हो .क्यों, क्या मेरे पास अपनी परम्पराए नहीं है .पर मै उनकी बैशाखी बना कर लंगडाना नहीं चाहता.जीवन के अनुभवों के लिए खुद को खुला रखूगा.हाँ ,तुम जिस परम्परा की बात कर रही हो ,वह आखिर है क्या ?" उसने पूछा .
  " एक संस्कार ,कुछ परम्पराएं ,जो जीवन को स्थायित्व प्रदान करती हैं ,जो अमिट हैं ,शाश्वत हैं ."
" धत्तेरे की ! शाश्वत ... वगैरह वगैरह .मैं तो जानता था ,तुम यही कहोगी  .पहले बताओ की शाश्वत है कौन? मैं ,तुम ?जब हम एक -एक दिन जीवन को दांव पर लगा कर जी रहे है ,तो यह कैसी विडम्बना ?पद्मा ,किसी भी वर्त्तमान को जी लेने की थोड़ी सी भी चाह नहीं होती तुम्हे ?मैं भी सोचता हूँ की जिन शब्दों का प्रयोग करने से तुम्हारा समाज अलंकृत हो ,वही करो ?"
यही बात इरविन में भी चलाती रही .
" प्लीज, इस बात को आगे मत बढ़ाओ."  पद्मा ने कहा .
" तो छोडो .फिलहाल नहीं करते ! तुम अब मेरे साथ चलो .हम पेसिफिक सागर तक हो आते है ." भारी चर्चाओं को धुल की तरह झाड कर ,वह फिर आत्मीयता से प्रस्तुत हो गया था .
" मै भी तुम्हारे साथ चलूंगी ? पर तैरने नहीं आउगी."
" क्यों ? क्या हुआ अब ?सुना है अकेले में होस्टल पूल में घंटो तेरा करती थी तुम ."
" सच है,पर अब आज शाम को आलस आ रहा है .लगता है बस सागर किनारे टहल आया जाय ."
एक क्षण बिल उसे घूरता रहा .फिर एक हाथ से सर थाम कर बोला ," ओ god ,ये भारतीय लड़किया इतना क्यों लजाती हैं ? क्या यह भी कोइ पारंपरिक गुण है ?"
उत्तर में उसे मिली बस एक शिथिल मुस्कराहट .
पैसिफिक सागर मद्रास के समुद्र से बिलकुल अलग था .मद्रास में सागर का पानी हरा और नीला लगता था . उसकी लहरों में आक्रोश और एहसास होता था .पर यहाँ ,सागर गहरे नीले रंग में शांत बिछा हुआ था .लहरें आराम से तट तक आ कर लौटती .नीले रंग का सर्द सन्नाटा .बिल लगातार आधे घंटे से  कुछ लोगो के बीच तैर रहा था .पद्मा को उस पर तरस आ गया .तरस तो उसे अपने पर भी आया .बेचारा ,कितना प्रयास कर रहा था की अपने साथ पद्मा को भी खींच कर ला सके .
" तुम्हे क्या हो गया है पद्मा !"वह फट पडा . हम लोगो के बीच जाती की दीवार नहीं .बस वही पुराना भय .क्या जिसे अनित्य और घृणित का लेबल लगाती हो ,वही तुम्हारा पुराना भय है .?"
" बिल , मैं..."
" स्टाप इट, तुम अब फालतू बांते करोगी .तुम मेरी सहनशीलता को हद से अधिक छेड़ रही हो .हो सकता है ,तुम्हारे जीवन में हमारा परिचय एक सार्थक घटना बन कर रह जाय.इसे तुम भूल भी सकती हो ,हो सकता है इसकी याद बनी भी रह जाय .हो सकता है ,कुछ दूर चलने के बाद हमारे सम्बन्ध समाप्त  भी हो जाय . तुम तो विधि और कर्म पर विश्वास करने वाले ' गीता' के देश से आयी हो ,जीवन जो संयोग और संभावनाओं से भरा है ,विलक्षण मायावी रहस्यों से भरे जीवन के बारे में तुम्हारा अनुमान इतना सपाट और सीधा हो सकता है ? पर यह लेबल लगा कर बच कर चलने का मुक्त बोध !वह भी तुम्हारी जैसी लड़की का ,बस इसी से मुझे चिढ है ."
पद्मा उसकी आँखों में देख नहीं पायी .पर उसका विवेक जैसे पिंजड़े से छूटे कबूतर सा उड़ा और बिल के विवेक झुण्ड में जा मिला तौलिया ले कर बिल पानी की ओर फिर चल दिया .पद्मा तट पर पडी जूट की कुर्सी पर बैठी उसे जाते देखती रही
" मैं बूढ़ी हो गयी हूँ .सच , युवा हो कर भी बूढ़ी .बूढों को तैयार करना तो कोइ हमारे देश से सीखे .जीवन के उतार चढ़ावों के अनुभवों को झेलने में अशक्त हो ,यूं ही तट पर मूक दर्शक बने हम केवल बैठ सकते हैं ? वही पुराणी घिसी पीती बांते .विवशता .'सतीत्व ''परम्परा' जैसी थोथी बांतो ने कितना बौना कर रखा है .इसी के नाम की दुहाई दे कर दूसरो को दुखी करना ,भीतर की सच्चाइयों को नकारना और उसके बदले ..साथ चलने वाला यह लगातार सूनापन ,अपने ऊपर आने वाली खीज ." पद्मा का मन खट्टा हो गया .परम्परा को बनाए रखने वाले इस क्षण ने जैसे उसे उसके अकेलेपन से और भी परिचित करा दिया ,'सतीत्व 'के नाम पर कोढ़ी की तरह अलग रहा जा सकता है .हमारा देश अकेलेपन के महत्त्व को मानता है .धर्मराज के अकेले स्वर्गारोहण को उनकी विजय मानता है .वहां ऐसी संभावनाए बिलकुल उत्पन्न ही नहीं होतीं .गृहस्थी दो बैलों की गाडी की तरह जीवन के दुःख दर्द से परे बस एक ढर्रे पर घिसटती रहती है .
और यह पैसिफिक सागर को देखती हुई पद्मा कृष्णामूर्ति नाम की लड़की अपने देश ,अपना काम ख़त्म कर ,अपने नाम के साथ लौटेगी .उसी चिडचिडे ,दुर्वाशा पिटा के खोखे में .मांवालम में स्थित घर जहां पिछवाड़े केले के वृक्ष ,बगल में नारियल के लम्बे तने वाले पेड़ ,आगे बेला ,जूही ,चमेली के झाड हैं .वह ,उसी घर में जहां सब कुछ एक सनातन परिपाटी से होता रहता है ,लौट जायेगी .धर्मराज का सम्मान करने वाला समाज उसकी आरती उतार कर कहेगा कि बेटी तू धन्य है जो सात समुद्र पार जा कर भी शुद्ध रही सारे अनित्य परिचयों की धुल उतरवाई जायेगी और स्थायी अंशों से उसका परिचय करवाया जाएगा .घर ,काम ,विवाह ,बैंक ,काज ,सांभर ,व्रत विधान आदि .और जिन्दगी ढर्रे पर निकल पड़ेगी .पद्मा को लगा उसके शरीर और मन में न जाने कितनी खिन्नता भर गयी है .नैतिक कोढ़ का सहारा ले कर वह यूं सूखे तट पर अकेली बैठी रह सकती है .अंत तक धर्म ,सतीत्व की रक्षा करते हुए चिता तक भी जा सकती है .और तभ भी शायद यह सोच कर की इस शरीर में कही अहम् शेष तो नहीं रह गया उसे यूं बेरहमी से अर्थी से बाँध कर ले जाते है .
पद्मा सागर को देखती रही .'सीगल ' पक्षी आराम से सतह पर उतर रहे थे .पानी में मछलियों को ढूढ़ निकालते और उन्हें चोंच में भर कर फिर उड़ान भरते .गहरे स्याह समुद्र की सतह पर सफ़ेद 'स्व्व्गल' फूल की तरह उतर रहे थे .
जान बैज ने इन्ही के लिए तो कहा था
" नीचे उतरते है ,
लड़खड़ाते हैं ,
फिर संभल कर भरते हैं ,ऊंची ऊंची उड़ान ."

चार तारों वाले गिटार को छेड़ती और भूरे चहरे पर अजीब सी चमक लिए गाती .उसके उतरते चढते लोकगीतों में 'सीगल' है .वे प्यार और दुःख की मिलन और विछोह की बेल बुनते .उसके एकांत को बाँटते ,फिर सहसा अलग हो कर आकाश में उड़ जाते .
" क्या सोच रही हो पद्मा ?"
बिल कपडे बदल चुका था .
" तुम कब आये ? तैर चुके? पानी कैसा था ?"
" एकदम खारा .............फिर अगर खारा न हो तो समुद्र कैसा ? पर अगर तुमने अपना कभी नमक गलाया हो तब न तुम्हे पता चले .तुम तो चट्टान रही हो ."
श्री रामकृष्ण की नमक वाली उपमा यह कैसे जानता है ?शायद सिकानो भारतीय विलियम हेक्सतन की संस्कृति में यह बिम्ब कही रहा हो .'नमक शब्द के कितने अर्थ हैं ----हिन्दुओं के लिए ,ईसाईयों के लिए ,शांत जल में जैसे कंकड़ फैंक दिया गया हो और फिर पानी सहसा अशांत हो गया हो .और यहाँ इसने जो नमक का टुकड़ा फैंका है ,वह?
पद्मा का गला रुंध गया .बिल को देख कर बोली ,"बिल, तुम सचमुच मुझसे कहीं अधिक भारतीय हो .मैं सच कह रही हूँ ."बिल उसके पास बैठ गया और उसकी हथेलियों को अपने हाथों में ले लिया .उसे ही एकटक देखता रहा उसकी भूरी आँखों में अब दया भाव उतर आया था .उसकी आँखों में पद्मा को सागर का अथाह विस्तार और उस पर उड़ती सीगलों का प्रतिबिम्ब नज़र आया .उसने सर घुमा कर सागर को देखा .एक अकेला पक्षी ,स्याह जल को छू कर फिर आकाश में जैसे किसी अकेले ग्रह के आकर्षण में बंधा लयबद्ध अकेला घूम रहा था .लगातार.





 

 














Tuesday, January 17, 2012

इस कविता को पोस्ट तो करना चाह रहे थे ३१ दिसम्बर की शाम पर बस साल की वह आखिरी शाम वाकई कुछ चुप चाप सरक गयी और सुबह तब्दील हुई तो गीली गीली ठिठुरती सी और फिर इस कविता को पोस्ट करना टलता गया पर जैसे हर काम को  अंजाम देने का एक समय होता है वैसे ही शायद हर काम के टालते जाने का भी एक निश्चित समय होता है .....तो आज शायद टलने  का समय समाप्त और अंजाम देने का समय आ गया है इसीलिये कविता आज पोस्ट हो रही है .
कविता के विषय में हम कुछ नहीं कहेगे ,आप खुद ही पढ़ देखिये......

औरत होती लड़की 



कितना गुपचुप बीत जाता है 
साल का अंतिम दिन 
औरत होती लड़की के लिए .
अल्लसुबह नल की आवाज पर 
हथेलिया देख कर उठने से ले कर 
रात आँखों से निकल कर 
खिड़की से बाहर  तैर जाते सपनों 
तक
वह लड़की सिर्फ बीतती है 
साल नहीं बीतता उसके लिए .
पर वह भ्रम पाल लेती है 
औरो को देख कर 
कि साल का यह अंतिम दिन
किसी नटखट बच्चे की तरह  
उससे  अच्छे और खुशहाल दिन 
हथेलियों में लुका कर लाया है .
नहीं बीतेगा उसका यह साल 
चावल दाल बीनते 
गीली लकडिया सुलगाते 
आँगन में कपडे सुखाते
सब्जी में नमक का अनुपात  साधते 
भाइयों के टिफिन सजाते 
मा के घुटनों में मालिश करते 


वह नटखट बच्चा
हथेलियों में लुका लाया है 
भगौने से जली उँगलियों के लिए 
ढेरो मेंहदी ,
वह बच्चा लाया है ,
रूखे बालो के लिए खुशबू वाला तेल ,
महकता साबुन ,सितारों वाला  लाल लंहगा,
बिवाइयों वाले पैरो के लिए 
महावर और चांदी की पायजेब 
वह बेवजह चक्कर नहीं काटेगी
चौके से बैठक और बैठक से आँगन तक ,
वह बच्चा उसके लिए लाया है 
घोड़े पर बैठा राजकुमार 
जो उसे इस सीलन भरे मकान  से 
ले जायेगा ,एक गोल दुनिया दिखाने.
वह मुस्कुराती है सोच कर 
आईने में अक्श देखती है 
मुस्करा कर शुरू करती है 
साल का पहला दिन 


गोल रोटिया सेकती है 
बापू की मनपसंद सब्जी बनाती है 
कहानियां सुनाती है 
भाइयों को 
चाय के साथ पकौड़िया खिलाती है
मेहमानों को ,
वह प्रतीक्षा में है ,
वह नटखट बच्चा कुछ देर 
सताने के बाद खुशहाल दिन 
खोल देगा .
उसे उसके खुशहाल दिन दे देगा .


बीतते हैं दिन 
बीतती है लड़की 
मुट्ठियाँ नहीं खोलता 
वह नटखट बच्चा 
लम्बी प्रतीक्षा के बाद 
बंद होता है गुनगुनाना 
ख़त्म होता है मुस्कुराना 
और 
वह अल्हड लड़की .
सोचने लगती है 
अगर सचमुच लाया है 
मेंहदी ,महावर ,पायजेब ,
लाल लहंगा ,घोड़े पर बैठा राजकुमार 
तो सचमुच नटखट है 
वह बच्चा 
गलत चीज लाया है 
इस बार भी 
उसे तो लाना चाहिए था 
बापू की रुकी हुई वेतन वृद्धि 
भाइयों के लिए कपडे लत्ते और खिलौने 
माँ के लिए अच्छी दवाई ...

फिर एक बार 
औरत होने लगती है लड़की 
साल के अंतिम क्षण तक के लिए. 






सुमति जी ने यह कविता अस्सी के दशक की समाप्ती पर लिखी थी शायद ,तबसे उस लड़की की हांथो की लकीरों में ,सपनों के रंगों में कुछ फर्क आया है ? शायद ....शायद ,आँगन से चौके तक के चक्कर ,आँगन से चौके और चौके से दफ्तर और बाज़ार तक में तब्दील हो गये  है .कुछ के हांथो में बस का हैंडल तो कुछ के हांथो में कार का स्टीयरिंग आ गया है पर इंतज़ार............. 



 {picture © sunder iyer}
















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