Monday, November 5, 2012

टटोलती रहीं तुम्हारी आंखें
मेरे चेहरे को
ढूंढती रहीं
शायद वह
जो तुम पढना चाहते थे
या कि
जो सचमुच मैं कहना चाहती थी
पता नहीं
क्या मिला तुम्हें अक्सर
वह जो तुमने चाहा पाना
या कि वह जो मैंने कहना
पर सच है
जब भी तुमने टटोला
मैं चिड़िया हो गयी चहचहाती
मेंह हो गयी आकार बदलती
अमलतास हो गयी हंसी बिखेरती
पलाश हो गयी आंच बांटती
हरसिंगार हो गयी शांत झरती
बसंत शरद हो गयी
पर नहीं हुयी सिर्फ़ चेहरा
तुम्हें भी तो नहीं मिला होगा
कोई चेहरा
मिला होता तो
तुम भी हो जाते चेहरा
तमाम चेहरों के बीच
एक चेहरा
पर
तुम आकाश हुये समेटते
समुद्र हुये डुबोते
बारिश हुये भिगोते
पहाड़ हुये मुग्ध करते
छतनार हुये सुरक्षा देते

तुम चेहरा नहीं हुये
इसीलिये तो
मैं मेंह बनी
मछली बनी
बारिश की बूंद बनी
पहाड़ की बर्फ़ बनी
छतनार की खुशबू हुई
नहीं हुई सिर्फ़ चेहरा
हम हम हैं
कि चेहरा नहीं हैं
सर्वनाम नहीं हैं......

और आज के ही दिन तुम सारी गणित,सारी व्याकरण ,सारी परिभाषाओं और पहचान से परे बारिश,पहाड़,मेह,खुशबू हो गयी थीं.और हमने भी संजो रखा है तुम्हें पहली बारिश मे उठती माटी की सोंधी गंध में,अलस सुबह झरते हरसिंगार के रंग में,दूर पहाड़ों पर गूंजते लोक गीतों के बोलों में.......यहीं हो आस पास.