Monday, November 7, 2016


5 नवम्बर.... अक्का के चले जाने का दिन. सोचा आज फिर अरसे बाद उनका लिखा कुछ शेयर किया जाय. बस इसी बहाने कुछ समय साथ बिताया जाय. तो हाथ आई यह किताब..... इतिहास में सिलवटें. यह अक्का का संपादित किया हुआ सत्तर - अस्सी के दशक के कुछ लेखकों की कहानियों का संकलन है. उस समय जब इन कहानियों का संकलन निकालने का विचार किया गया होगा तब पृष्ठभूमि में ताजा घटित दूसरी घटना थी पर वो सरोकार आज भी उतने ही सामायिक हैं बल्कि स्थितियां बदतर होती जा रहीं हैं. अंधेरा थोड़ा और गाढ़ा हो गया है .पर इससे क्या...दिया बारने की ललक खत्म तो नहीं हो गई, न. सिलवटें बढ़ गईं हों तो क्या, सिलवटें मिटाने का प्रयास करने वाले हाथों की संख्या प्रत्यक्ष रूप से कम नजर आए तो क्या....ऐसी भी बंजर नहीं हो गई माटी की कुछ भी अंकुआये ही नहीं.  

चलिए, अब हम चुप हो जाते हैं और आपको ले चलते हैं किताब की ओर....









मेरे कंधे पर कम्बली और हाथ में बांसुरी थी.
मैं तो सोया  नहीं
कहीं गया भी नहीं
पर
मेरे हाथ में बंदूक और कंधे पर लाश
कौन धर गया।



मैंने तो जमीन के
अतल तल में
गुरूओं की वाणी
और
कृष्ण की गीता बोई थी,
यह आग के बीज
और नफरत की फसल कैसे उगी।
                                                              
 मिन्दर




अब और नहीं   

सच अब और नहीं। बहुत हो चुका है यह सब। पिछले वर्षों में ही हुआ यह कि हम समुदायों में बंटने लगे। हम और वे बन गए हैं। छोटी छोटी बातें बड़ी बड़ी हिंसक घटनाओं की पृष्ठभूमि तैयार करने लगीं हैं। हम जैसे लगातार उस अंधी खाई की ओर बढ़ रहे हैं जहां पहुंच कर सब तहस नहस हो जाएगा।

समुदाय की रक्षा के नाम पर, धर्म की रक्षा के नाम पर राजनीति ने खुल कर जो छूट ली है उसका परिणाम हम पिछले वर्षों में भुगतते आ रहे हैं। पंजाब और फिर दिल्ली और देश के अन्य भागों में। सम्प्रदायिक राजनीति वोट बैंकों की चिंता अस्मिता की रक्षा के नाम पर नृशंस हत्यायें हिंसा की प्रतिक्रिया में दूसरे समुदाय की कट्टरता- दरअसल हम इस दलदल में इस कदर धंसते चले जा गए हैं कि बाहर निकलना मुश्किल हो गया है।
हिंसा का सिरफिरा दौर अपने जुनून में तमाम मानवीय मूल्यों की भी हत्या करता चला जा रहा है। जिनकी रक्षा के लिए हमारे इतिहास में कई नाम रक्त में दर्ज हुए हैं, धर्म और राजनीति का यह खेल जब भी हिंसा के खूनी दौर में से गुजरा है संवेदनशील साहित्यकार की कलम मौन नहीं रह सकी। धर्म हो या राजनीति मानवीय मूल्यों से बढ़ कर कतई नहीं हैं, ये मूल्य हमारी सांस्कृति अस्मिता के अंश हैं। य़ह सच है कि जब भी य़ह दौर शुरु हुआ है पहला वार इन्हीं मूल्यों पर पड़ता है। शताब्दियों से चले आ रहे सम्बन्धों में दरार पैदा कर देना -- हिंसक आतंकवादियों के लिए आसान हो पर क्या यह तकलीफदेह नहीं होता, और फिर कुछ लोगों के कारनामों को एक पूरे समुदाय से जोड़ कर दिखाना कितना घातक होता है।
स्थिति अब ऐसी है कि यहां फूलों के बीजों की जगह मौंतें बोई जाने लगीं हैं, जिन पर हड्डियों के फूल लगेंगे, तवे पर सेकें जाने वाले फूल हों या सीने पर उतर जाने वाले बारूद के फूल--आज का सच वही बन कर रह गया है, पर इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता कि आज भी हिंसा से नफरत करने वाले लोग मौजूद हैं। शान्ति के साथ परस्पर सौहार्द के साथ रहने को इच्छुक लोगों की कमी नहीं है, ऐसे में देश का विवेकी चिन्तनशील बुदध्जीवी वर्ग क्षणिक और तात्कालिक आवेश में बात नहीं कर सकता, क्यों कि वह जानता है कि साहित्य शाश्वत मूल्यों का दस्तावेज है। हमारे हाथों में विश्वास के बीज हैं, हमारे लिए हमारा अतीत अभी भी ताजा है, हमारे रागात्मक और भावात्मक लगाव अभी भी बरकरार हैं,  इनमें कोई भी धार्मिक, राजनीतिक, भौगोलिक षडयंत्र दरार नहीं डाल सकता। इससे पहले कि अगली पीढ़ी नफरत के बीज बोये और आग की फसल उगाये, हमें विश्वास के बीज बोने होंगे, ताकि मानवीय सौहार्द की फसल उगे.वह प्यार, वह विश्वास, वह आस्था, जिसे हमने खोया है, उसे हमें ही लौटाना होगा। इतिहास में अगर सिलवट है तो उसे ठीक किया जा सकता है, पर सिलवटों में ही इतिहास लिखा जाय तो?
इन कहानियों के बारे में अधिक कुछ नहीं कहना चाहूंगीं। कहानियां स्वयं बोलती हैं, पर सिर्फ इतना कहना चाहूंगीं कि इन कहानियों में जहां एक ओर हिंसा, प्रतिहिंसा के प्रति आक्रोश है, वहीं मानवीय मूल्यों के प्रति आस्था का आग्रह भी।

इसी आग्रह के साथ

--- सुमति अय्यर



इतिहास की चादर में पड़ने वाली
सिलवटों को
ठीक करने के प्रयास में लगे
उन तमाम मानवतावादी मनीषियों के नाम।


                                                                       कथा -क्रम



                                 निर्जन                                                    श्रीनाथ
                                 रिफूजी                                                   स्वदेश दीपक
                                 रक्त कुंड                                                मूल-- महेन्दर फारग  
                                                                                              अनुवादक -- अमरीक सिंह दीप
                                आओ हंसें                                               महीप सिंह
                                लेडीज                                                     मृणाल पांडे
                                सांझी खिड़की                                          रामस्वरूप अणरवी
                                लाल क्रास                                                कुलवंत कोछड़                       

                                मेरे कद के लोग                                         अमरीक सिंह दीप
                                पंजे                                                           शैदाई
                                आत्मबोध                                                  चंद्रकांता
                                आकाश खाली है                                         हर भजन सिंह मेहरोत्रा
                                देशान्तर                                                    सुमति अय्यर




बतौर संपादक अपनी बात कहते हुए सुमति अय्यर ने सामाजिक स्थिति पर प्रकाश डाला और फिर कहा बस ''अब और नहीं''. इन कहानियों ने भी हिंसा , नफरत, हत्या, अपराध की बात की पर करूणा,वात्सल्य और भाई- चारे पर विश्वास भी जगाया.आवश्यकता आज इन सब की उससे कहीं और ज्यादा है.क्या हम अब और नहीं को फलीभूत कर पायेंगे. चलिए, उम्मीद जगाए रखने, कोशिश करते रहने का वादा तो कर ही सकते हैं.