Friday, May 20, 2011

आज अरसे बाद कितबों को एक बार फ़िर से व्यवस्थित करते हुये एक किताब हाथ लगी ’धूप की स्याही’.पुस्तक की सम्पादिका हैं उर्मिला शिरीष.कुछ महिला कथाकारों की कहानियों का संकलन है.इसमे एक कहानी सुमति जी की भी है,’मुट्ठी भर पहचान’.कहानी है मन से जुड़े अपरिभाषित सम्बन्ध की मिठास,अलग होने के दर्द और छूटी डोर के परले सिरे पर अपने आप को खोजने की चाह की.
कहानी के विषय मे बतियाने से ज्यादा मन कर रहा है उनके लिखे को जस का तस यहां संजो ले.आखिरकार यह प्रयास उनके लिखे को समेटना ही तो है.पूरी पूरी उनकी पुस्तक से अधिक सुखद लगता है यूं अचानक उनका किसी किताब या पत्रिका के पन्ने से अनायास ही बाहर आ मिल जाना.फ़िर फ़िर पढी गयी लाइने भी हर बार कुछ नया थमा जाती हैं
चलिये चले कहानी की तरफ़........

वह देर तक सीढीयों पर पसीने को झेलती खड़ी रही.उसका सारा उत्साह जैसे कपूर बन कर उड़ गया.सड़क के मोड़ से वह लगातार बालकनी को देखती आ रही थी.शायद सुवीर प्रतीक्षा मे एक बार झांक जाय.उसे लगा जैसे सुवीर को उसकी प्रतीक्षा ही नहीं हैं.अपना गैर प्रतीक्षीत होना और बालकनी का खालीपन जैसे उसे भीतर तक हिला गया.पर उसने अपने को आश्वस्त करने की पूरी कोशिश की.कितनी अजीब बात है,मन कभी कभी सम्बंधो के प्रति इतना भावुक हो उठता है कि आत्मीय की उपेक्षा को भी नजर अन्दाज करने को मचल उठता है.कलात्मक ढंग से लिखे गये हस्ताक्षर को वह देखती रही.वही चिर परिचित हस्ताक्षार’सुवीर दत्ता’.वह क्षण भर को ठिठकी और उसके हाथ अनायास ही घंटी की ओर उठ गये.एक बार बजाने के बाद जैसे उसके हाथो को ब्रेक लग गया हो.वह दोबारा बजाना चाह कर भी जैसे भूल रही थी.यह उन लोगो का कोड वर्ड था.दो बार बजाने पर तुरंत दरवाजे की बाहर खड़े व्यक्ति की पहचान उभर जाती थी और वे अपने को एक दूसरे के लिये तैयार कर लेते थे.
अन्चीन्हा भय जैसे उभर कर सामने आ गया है.
उसे लगा कहीं सुवीर दरवाजा न खोले तो?उसने दोबारा हाथ उठाया.खटाक से दरवाजा खुला.”
हाय,मोना दी.’उसका सिर उठ गया.यह आभा थी.सुवीर को देखने की उत्सुक आंखो मे हल्की निराशा तैर गयी.पर वह संभल गयी.
’हाय,आभा” उसने जबरन मुस्कुराहट को बाहर ठेलते हुये कहा.
"भीतर आओ दी,सुवीर दा नहा रहे हैं" और वह भीतर भाग गयी.
उसने धीमे से कदम रखा.दरवाजे की चौखट पर पिछली होली पर बनायी गयी अल्पना का सारा भराव धुल चुका था.खाली हल्की लकीरे बच रही थी.बड़े चाव से वह रात दो बजे तक रंग घोलती रही थी.उसे भीतर के खालीपन का एह्सास होने लगा था.
इस शहर को वह खूब पहचानती थी.वही शहर थी जहां पिछली नौकरी की चार साल गुजारे थे.हर शाम गलियों मे भटक कर चलना सुवीर की आदत थी ,जो बाद मे उसकी भी आदत बन गयी थी.पता नहीं क्यों उसे यह शहर अजनबी लगने लगा है.कल शाम जब ट्रेन धीमे से रेंगते हुये प्लेट्फ़ार्म पर रुकी थी ,तो वह सह्सा अपने को शहर की चिरपरिचित गन्ध तथा आत्मीय लोगों की गन्ध से जुड़ती मह्सूस करने लगी थी.यूं लौटना कितना आश्वासन देता है.आज सुबह से ही वह हर दुकान ,व्यक्ति और सड़क को घूर कर पहचानने की कोशिश कर रही है.पर पह्चान है कि जैसे उभरती ही नहीं.सब उसे देख कर रास्ते भर मुस्कुराते रहे पर वह चाह कर भी ऐसा नही कर पायी.उसने अल्पना को ध्यान से देखा और पह्चानने की कोशिश की.नहीं.जैसे वह अब इसे पूरा नहीं कर सकती.मनीप्लांट खूब फ़ैल रहा था.
उसे याद है हर बार नयी पत्तियों को देख कर सुवीर जेब टटोलता था.
’पैसे नहीं आये .क्या पता कहीं से कोई चेक आ जाये.’
औए वह हंस देती थी.फ़िर तो सारा दिन पोस्ट्मैन के इन्तजार मे कट जाता था.पर अक्सर सूखा दिन गुजर जाता था,तो सुवीर रात को सौ गालियां सुनाता और कहता -’कौन कहता है यह मनीप्लांट है.साला फ़ूसफ़ास है बिल्कुल.’
बाहर बिछे दीवान पर अब एक नयी चादर पड़ी हुयी थी.और उसमे एक शिकन तक नहीं.उसने धीमे से उस पर हाथ फ़ेर कर सिलवटें ठीक करने का अभिनय किया.जैसे अपने को बहलाना चाहा.धीमे से बैठक में घुस कर बैठ  गयी.कहां चला गया वह उत्साह,आते ही बैग उधर फ़ेका,चप्पल उधर और तुरन्त रसोई मे चाय बनाने चली जाती थी.जाते जाते सुवीर की लापरवाही पर सौ कमेन्ट्स करती और वह मुस्कुराता हुआ कहता,’आखिर आप किस मर्ज की दवा हैं?कीजिये ना."
वह नीचे बिछे कालीन पर बैठ गयी सोफ़े की टेक लेती हुयी.कमरा उतना ही साफ़ सुथरा था जितना उसके समेय रहा करता था.साफ़ सुथरेपन से उसे ही नहीं अक्सर सुवीर को भी एलर्जी हो जाया करती थी.कभी कभी जमी हुयी धूल,अस्त व्यस्त पड़ी पुस्तकें जैसे सुकून देती हैं.पूरे व्यव्स्थित कमरे में जैसे हम भी सोफ़ा सेट हो जाते हैं.’मोनू मैं नहीं रह सकता ऐसे’ और दोनों बेतहाशा ठहाके लगाते.कितनी बार व्यस्थित फ़िक्स्ड डिपाजिट वाली  जिन्दगी जी रहे दोस्तों के घर से वे लोग उठ जाया करते थे की वहां उनका दम घुटने लगता था. 
पर अब ?एक कण धुल नहीं ,न ही  फैली हुयी किताबें .उसने सर सोफेपर टिका लिया.और सारी पेंटिंग्स  गौर से देखने  लगी  थी. सारी पेंटिंग्स से जुड़े सन्दर्भ उसे परेशान करने लगते हैं .अक्सर सुवीर ने उससे झगड़ने के बाद ये पंटिंग्स बनायी हैं.वह सारी  नाराजगी और कहीं नहीं कैनवास पर उतारता था.पुरजोर गुस्से में लाल और काले रंगों को घोलता था.और वह चप्पल पहन कर पूरी कोलोनी में बेमतलब चक्कर लगा कर लौटती तो दोनों नोर्मल मूड में  होते थे.
वह अतीत से फिर जुड़ने लगी .अतीत का छोटा सा भी हिस्सा पकड़ में  आये तो उसे छूने को मन ललकने लगता है.अतीत जैसे कही नहीं गया है ,उसके भीतर ही घुल कर अशेष बन गया है और न तो वह ख़त्म ही होता है ना ही  लौट कर आता है.
आभा पास आ कर बैठ गयी.इतने में सुवीर तौलिया लपेटे आ गया. अगले कमरे में झाँक कर उसे देख कर मुस्कुराया .
'कब आयी मोनिका ?बस, एक मिनट .अभी आया .'
वह सिर्फ मुसुकुरा पायी थी की उसने दरवाजा भेड़ लिया.उसे पहली बार लगा क़ि उसका नाम मोनिका है.और उसका  भी एहसास सुवीर से ही होना था .उसके भीतर की तकलीफ बदने  लगी.
वह हलके नीले रंग का कुर्ता पायजामा पहन कर कमरे में आ कर बैठ गया. 
  'दीदी को कुछ खिलाया पिलाया '
उसका सवाल आभा के लिए था .
आभा हंस दी बेमतलब और उसकी और मुखातिब हो कर बोली -
'कैसी हो दी ?'
'ठीक हूँ .'
वह उसके सवाल का इन्तजार करती रही .वह सिर्फ किताबें उलटता पलटता रहा.शायद उसे कुछ पूंछना ही न हो .
'तुम नहीं पूछोगे कैसी हूँ  ?भीतर की तकलीफ जैसे पहली बार फट पडी थी.
'इस सवाल का कोइ औचित्य है ?तुम जैसी लग रही हो सोचता हूँ ,खुश हो.'
सुवीर इतना शांत और तटस्थ कब से हो गया है?वह उसे अवाक देखती रही .क्या वह इतना ही शांत और तटस्थ               था  जब वह जा रही थी .उसका जाना उसकी जिन्दगी का एक बड़ा अभाव था और वह एकबारगी हिल गया था.आज तक उसके स्टेशन पर विदा होता वह चेहरा भूलता नहीं .चश्मे के भीतर छिपी आँखों की वेदना उसे रास्ते भर सालती रही थी .कई बार जी चाहा था लौट जाय पर लौट नहीं सकी. अपने जाने के एक पल उस एक पल को वह झेल नहीं पायी थी. उसे पहली बार लगा था क़ि निर्णय के वक्त का अहम भाव पल बीतते ही घुल जाता है और शेष रह जाती है न सह पाने की तकलीफ .
पर वह लौट न सकी.ना लौटने का ढंग उसी का सिखाया हुआ था.
उसके लिये अतीत कभी मोहक नहीं रहा था.’जो कुछ गुजर जाता है वह चाट के पत्ते की तरह होता है,खाओ और फ़ेंक दो’.वह उसकी दलील चुपचाप सुनती पर स्वंय खुद को अतीत से कभी नहीं काट पाती.जबकि वह पलक झपकते ही उसे काट कर अलग कर लेता है और हथेली पर रख कर उछाल देता है.
" चाय पियोगी न दी?"आभा ने आग्रह से पूछा.
"पी लूंगी."
"और तुम?"
"नहीं"
वह प्रिसाइज हो रहा था.आभा उठ गयी.वह उसके खुशनुमा चेहरे को देखती रही.आभा की वही अल्हड़,अनगढ चाल.वही खुशनुमा चेहरा.
"तुम दुबले लगते हो."उसने कमरे के मौन को दुबारा तोड़ना चाहा.
"बहुत दिनों बाद देखा है ना,तो लगता होउगा.वरना...."वह रुक गया.
"वरना क्या?"
"वरना अब मैं पहले से अधिक सलीकेदार जिन्दगी जी रहा हूं.खुश हूं."
"खाना पीना?" फ़ालतू सा सवाल था उसका.
"आभा है,वह सारी देख भाल कर लेती है.मैं निश्चिन्त हूं.इस बीच जितनी मदद उसने की है,मैं भूल नहीं सकता."उसका स्वर जैसे दूर से आया.
वह चुप उसे देखती रही ,शायद अगले सवाल की तलाश में.वह अधलेटा सा हो गया और उसने अपनी टांगो को धीमे से सहलाना शुरु किया.चुप्पी के क्षण गुजरने लगे.अक्सर अधिक पढ लिख लेने से भी संस्कार बन जाते हैं.खुल कर हंसना,टांगे पसार कर बैठना,सब छूट जाता है.और बची रहती है ओढी हुई सभ्यता .
वह बार बार चाहती थी उससे पूछे,"क्या वह उसकी कमी कभी मह्सूस नहीं करता.?"
पर उसे देख कर कम अज कम ऐसा नहीं लगता.
उसके लिये प्रश्न सुविधाओं का रहा है व्यक्ति का नहीं.उसकी सारी सुविधाओं का उत्तरदायित्व जो संभाल ले ,वह मोनिका हो, आभा हो या कोई भी दीपा,सीमा.जैसे कोई आफ़िशियल पोस्ट हो.
सवाल उसने किया था ." तुम्हे कैसा लगता है वहां ?"
वह चुप रही.क्या कहे वह ?उसे ही देखती रही.
" अच्छा तो लगता होगा ना.आई.ए.एस पति जो है."
यह इतना निर्दय हो सकता है? वह भीतर तक कांप गयी.
" ना कहूं तो क्या अविश्वास करोगे?"
" बात विश्वसनीय तो नहीं लगेगी."
" मेरी मांग का सिन्दूर हो या गले का मंगलसूत्र हो अगर यही खुशी के प्रतिमान हो तो यही सही.फ़िर सुख भी निहायात विरोधाभाषी और आन्तरिक होता है.कभी दे देने का या फ़िर कुछ पा लेने का."
"  तो तुम्हारे सुख के प्रमाण गलत हैं,क्यों?" वह सिगरेट जला चुका था," तो फ़िर दुःख के भी प्रमाण होंगे."
" हां, वे दिन जो मैने अकेले में रो कर कांटे हैं."
"च च..." वह जैसे व्यंग कर रहा था.वह तिलमिला गयी.
" कैसे हैं तुम्हारे आ.ए.स. पति ,आइ मीन ,अरविन्द साहेब .खूब प्यार करता होगा."
वह चुप ही रही.उसने तो नहीं पूछा सुवीर से कि मेरी जगह आभा को देख कर तुम खुश हो या तुम सुखी हो.वही क्यों उसे खींचने के मूड में है.
" तुम्हे कभी एह्सास होता है............."
वह बीच में ही टोक कर बोली," एह्सास क्षणिक होते हैं ,सुवीर.बहुत क्षणिक.एक क्षण होता है जब तुम्हारी कमी बिलकुल मह्सूस नहीं करती.कभी इस कदर कि........खैर छोड़ो,आइ एम वेरी पुअर इन मैथेमैटिक्स.अगर छूटे हुये क्षणों को मल्टीप्लाइ कर के जीने का सौदा करती तो आज कुछ और होती."
वह उसे सीधा देखने लगा था.वह नाखून के मैल को साफ़ करती हुई बोली,"कुछ क्षणों का सुख केवल तुम दे सकते हो और......"वह वाक्य पूरा करती कि उसने टोक दिया
" बाकी केवल वह दे सकता है,क्यों?"
"मैंने ऐसा तो नहीं कहा."
"पर यू मीन इट"
"हां आइ कान्ट डिनाई इट."
वह दूसरी सिगरेट सुलगा चुका था.
आभा चाय ले कर आ गयी.
" अरे तुम दोनों अभी तक तने बैठे हो.देखो ,सुवीर दा,मोनिका दी कितनी दूर से तुमसे मिलने आयी हैं और तुम हो कि तने बैठे हो.यह हमें अच्छा नहीं लगता."
वह उसे देख कर मुस्कुरा दिया.वह उठ कर रसोई की ओर चल दी.आभा भी उसके पीछे पीछे आ गयी.रसोई के दरवाजे पर उसने पारम्परिक भित्ति चित्र बनाये थे-कई जगह उनका रंग मद्धम पड़ चुका था.लगातार बारिश हुई पिछले दिनों.उसे लगा लगाव भी इसी तरह किसी भी दिन मिटने लगते हैंतो फ़िर मन जैसे चटक कर टूटने लगता है.अब उसे लगा उसका दुःख सिर्फ़ जाने का नहीं आने का भी है.उसकी भूल भी क्याथी?कुछ नहीं ,पर इसके लिए कितना बड़ा क्रोस ढोने को मजबूर है वह.
उसे याद है अपना निर्णय जब उसने सारे विरोधों और समाजिक मान्यताओं को ताक पर रख कर सुवीर के आगे दोस्ती का हाथ बढाया था.सुवीर कभी परम्पराओं और मान्यतायों को पचा नहीं पाया था.उसकी शुरुआत ही विरोध में हुई थी.परम्परागत वैवाहिक संस्था हो या प्यार जैसा रुमानी ख्वाब उसने सबको काट कर जिन्दगी शुरु की थी.पता नहीं कौन सा कोण था,जहां आ कर सारा शुरु किया हुआ जीवन रेत के महल की तरह भरभरा कर गिर गया था और रेत की चुभन लिये हुये कातर हो गया था.
उसके प्रति लगाव रख कर वह्खुश नहीं रह्सकेगी इसे उसने बखूबी पहचान लिया था,सिर्फ़ दो माह के परिचय में.पर सारी हिदायतों को अंगूठे पर रख कर उछाल दिया था.
सुवीर के सम्मोहन के आगे सारी बाते बेमानी लगने लगी थी.उसकी गलती जैसे वहीं शुरु हो गयी थी.
फ़िर वही गणित .एक बार अंक इधर उधर हो जाय तो सारा गणित गलत हो जाता है.उसने भूलों को बार बार जान कर दोहराया था.धीरे धीरे लगाव गहराने लगा था.उसने मह्सूस किया था कि जिन्दगी सुवीर के बिना चल नहीं सकती.जिन्दगी को इतना सापेक्षिक बना लेना उसे कतई बुरा नहीं लगा था.सुवीर क्या तब ऐसा था? नहीं.सुवीर की तमाम खामियों के बावजूद उसने उसे स्वीकार किया था.स्वीकार के तहत सारी अपेक्षाओं को उसके लिये अर्पित कर दिया था.पर क्या सब वैसा ही था.
" दी, आमलेट खाओगी?" आभा उसे वर्तमान में खींच लायी थी.
" अगर बना सको तो."
" हां हां बना देती हूं.क्यों नहीं." वह उत्साह के साथ प्याज काटने लगी.
" बस सुवीर दा हैं ही ऐसे दी.बुरा मत मानना.खुद इतना रोये,जिस दिन तुम्हारी शादी हो रही थी. समझा समझा कर थक गयी.अब तुम्हे देख तन रहे हैं.आखिर पुरुष हैं न."आभा हंस दी.
कितना सोचती है यह लड़की.मोना उसे देखती रही.
" अरे हां दी,सुवीर दा की मां और बहन आयीं थी.यहां रह्कर गयीं हैं काफ़ी दिन.सुवीर दा उन दिनों बहुत खुश नजर आये.याद है पहले  हांका करते थे कि वे लोग आयेंगी तो यह करूंगा,वह करूंगा.कुछ भी नहीं किया बस उन्हें देख कर उछल पड़े.
वह पूरे उत्साह के साथ सुना रही थी. सुवीर ने कभी नहीं लिखा.उसे आश्चर्य हुआ.अगर आदमी किसी के वर्तमान से अनुपस्थित रहे तो लगाव भी खत्म हो जाता है क्या?व्यक्ति तो कहीं नहीं खत्म होता फ़िर यह लगाव ही क्यों खत्म हो जाता है.
वह कमरे में आ गयी.
सुवीर लेटा लेटा कोई पुस्तक पढ रहा था.
" सुना है,अम्मा और माला दी आयीं थी.तुमने लिखा क्यों नहीं?"
" जरूरत नहीं समझी."
"क्यों"
" इसका जवाब मैं नहीं दे सकता."
"पर.."
" क्या फ़र्क पड़ता तुम पर?  तुम इतनी दूर कलकत्ते में बैठी कर भी क्या सकतीं थी.दो चार पत्र घसीट देती यही ना."
वह आक्रामक था.
उसे लगा वह उसकी जिन्दगी की तमाम घटनाओ से छिटक कर दूर छूट गयी है.और यही एह्सास विश्व् रूप लेता जा रहा है.वह इस एह्सास के भार से तिलमिला रही थी.यह क्या वही सुवीर है जिसकी सुबह की चाय भी उसके बिना नहीं पचती थी-अखबार के बगैर एक बार भले ही पच जाय,पर उसके बगैर नहीं.कभी वह आउट आफ़ स्टेशन भी रहती तोवह दो कप बना कर रखता था."पर सुवीर से पहले जैसे
 व्यवहार की अपेक्षा रखना अरविन्द के अधिकारों का हनन तो नहीं होगा?"वह सोच कर ही पागल हो जायेगी.
"पर सुवीर,शादी के लिये तो तुमने ही कहा था."
"हां, कहा था ,तो?"
"फ़िर मुझे इतना टीज क्यों कर रहे हो?तुम ना कह कर देखते क्या मैं कर लेती.?"
"पर मैंने कहा ही था तो तुम्हे क्या कर लेना था?"उसने सीधा सवाल उछाला.
वह कातर हो गयी.हां, क्या उसे कर लेना था.उसकी आंखों में आंसू आ गये.
"प्लीज ,डोन्ट क्राई नाउ.आई हैड इनफ़ आफ़ इट.इतने दिनों केअकेलेपन को मैंने अकेले सहा है.
तुम जानती हो सुबह की चाय से ले कर रात के कम्पोज तक ये खाली दीवारें कैसे काटने को दौड़ती हैं?
तुम जानती हो तेज बुखार में अकेले पड़े सिर्हाने में थर्मामीटर और आइस बाक्स रख कर बेहोश पड़े
रहने की तकलीफ़ क्या होती है?तुम जानती हो शाम भूखे घर लौटने पर गैस खत्म हो जाने का दुःख
क्या होता है?नहीं,तुम क्यों समझोगी ?समझी ही होती तो भागती क्यों?ऐसे में मुझे औरत की
जरूरत होती है."वह हांफ़ गया था.

"सुवीर ,यूं तो मैं भी तुम्हारे लिये जरूरत थी ना?तो क्या जरूरत भी व्यैक्तिक और तत्कालिक होती है.
"हां,मैं कब इन्कार कर रहा हूं"
"तुम किसी और से...."
" आइ नो व्हाट यू वांट टु से.तुम जानती हो मैं इससे ऊब गया हूं.हर बार वही कोर्ट शिप,नाम धाम ,पता देना,फ़िर रुचियां,
फ़िर काफ़ी हाउस की शाम,आई कांट पुल आन.मुझे एक बात समझ में आती है,दैट इज माई नीड.जो
मेरी जरूरत समझे,वह शर्तहीन व्यक्ति मुझे स्वीकार है.भले ही वह कोई हो.आई नीड अ वूमेन टू टेक केयर आफ़ मी."
उसने चादर फ़ेंक दी थी और हाथ पांव सीधे करने लगा था.संवाद को और खींच कर वह कड़ुवाहट को
बढाना नहीं चाहती थी.वह धीमे से उठ गयी.भीतर की हवा जैसे तन गयी थी.तनाव में जीने की
आदत अब नहीं रही.बाहर शाम उतरने लगी थी.और  पीछे खुले जंगल का हरापन उसे उसे सहला गया.
भीतर की तनी हुई हवा में जैसे उसका दम घुटने लगा था.उसने सांस को खींचा और पूरी तरह फ़ेफ़ड़ों
में भर लिया.वह जैसे ताजी हो गयी.
गमले में लगे कैकटस के पास खड़ी रही.कितना इन्तजार रहता था दोनों को इसमें फ़ूल खिलने का.
खिलता भी तो चार छः महीने में एक बार.दोंनो उसे देखते रहते.उस नन्हीं खुशी को एक दूसरे से
शेयर करने का सुख उसे आज भी याद है.
विवेक अक्सर कहता," भाई सुवीर ,इतनी सुशील लड़की है मोनिका.अगर सचमुच तुम्हें उससे इतना
प्यार है तो शादी क्यों नहीं कर लेते?"वह ठठा कर हंस पड़ता.
"विवेक,बाहर भोंपू के बजते ही भाग जाने वाली उम्र नहीं है,न ही बादल के टुकड़े को देख कर तुरंत
मेघदूत उठा लेने वाली उम्र.मैं बहुत आगे आ चुका हूं"
वह उसके जीवन में जरूरतसे फ़िलरहो चुकी थी.और इसका एह्सास उसे काफ़ी देर बाद हुआ.
उसे पहली बार लगा था सुवीर की जरूरत के लिये एक शब्द काफ़ी नहीं उसे कई पर्याय चाहिये.जब
जिसे चाहो फ़िट कर लो.वह भी फ़िलर बनी थी.पर उसे कोई दुःख नहीं था.उस बात को उसने जब
स्वीकार करने की ताकत बटोरी थी,सह्सा ही उसने उठा कर कालम ब्लैक कर दिया था.उसने एक दिन
निर्णय सुनाते हुये कहा,"मोनू सोचता हूं साफ़ कह दूं.मैं दीपा को चाहता हूं.आई नीड हर.और तुम्हारे
रहते यह्सम्भव नहीं.हम दोनों के बीच जो कुछ रह गया है ,वह एक समझौते से अधिक कुछ नहीं
व्हाई डोन्ट यू चूज अ मैन एन्ड स्ट्राट योर लाइफ़? शादी वादी मैण नहीं कर सकता.आई मे लाइक
यू,बट इट डजन्ट मीन मैरिज."
फ़िर सहसा ही उसके साथ बिताये गये चार वर्षों का अर्थ घुलने लगा था.उसे अपनी उपस्थिति गैरजरूरी
लगने लगी थी और अपना उसकी जिन्दगी में होना अनाधिकार चेष्टा.वह चुपचाप अपने बेड पर आ
गयी थी.अपने इस निर्वासन को यहीं रह कर झेलने की ताकत जैसे चुक गयी थी.फ़िर सब जैसे तय था.
उसने निर्णय लिया पूरे सप्ताह भर बाद.
अरविन्द के साथ उसका विवाह और आज दीदी से मिलने का बहाना कर पहली बार सुवीर से मिलने अकेले
दिल्ली आना.उसने सोचा आठ महीने के अलगाव ने सुवीर को व्यग्र कर रखा होगा.सब कुछ अस्त-व्यस्त होगा.
पर यहां उसकी जिन्दगी को शांत और मधुर देख कर भीतर जैसे कांच की कोई किरच चुभ गयी.
सब कुछ सहने का दावा करने के बाद भी यह एह्सास उसे भारी पड़ रहा है.सुवीर एक बार,काश एक बार
उससे कह देता,"मोनू मैं तेरे बिना नहीं रह पाता." काश एक बार उससे उसी अन्दाज में खुश खुश
बातें कर लेता.वही आत्मीयता उसे एक बार फ़िर अभीभूत कर लेती.
पर नहीं.आभा ने उसके कंधों को छू लिया.वह मुड़ी.
"अरे दी,रोरही हो?"
वह स्वंय चौक गयी.क्या होगा अपनी कमजोरी को जाहिर कर के.उसने कस कर आंसू पोंछ लिये
और कमरे में आ गयी.सुवीर के आगे नाश्ता लग चुका था और वह तन्मयता से खा रहा था.वह उसे
देर तक देखती रही.नहीं ,सुवीर पर कोई असर पड़ता नहीं दिखा.
उसने प्लेट में ही हाथ धो लिये और मुंह पोंछता हुआ बोला,"तुम रुक रही हो या जा रही हो?"
"आयी तो थी सप्ताह भर के लिये पर सोचती हूं जितनी जल्दी टिकट मिल जाय लौट जांऊ."वह
तकलीफ़ छिपा कर बोली.
"हां, अब तो ठहरने का प्रश्न ही नहीं उठता.पूरी ग्रिहिस्थिन हो गयी हो.सच है शादी के बाद
औरतें बदल जाती हैं."उसने अपना ब्रह्म वाक्य उछाला.
"तुमने खाया ,आभा.खा लो और किचन बंद कर यहां आ जाओ."उसकी सारी टोन जैसे बदल गयी थी.
कहां चली जाती है यही टोन ,जब उससे बातें करता है?क्यों इतना कांइया और रुक्ष हो जाता है उसके साथ.
क्या पाप किया है उसने.कोशिश के बाद भी उसे जवाब नहीं मिल सका.
उसने बैग संभाला.
"चल रही हो? छोड़ दू तुम्हें?"
"नहीं खुद चली जाउंगी."
"जब तक हो मिल लिया करना"
यह सपाट स्वर था. न कोई आग्रह ,न ही स्नेह का अंश.
"हूं"उसने जवाब जैसे भीतर दफ़ना लिया और आगे बढ कर पैर छू लिये.वह एक मिनट को हड़बड़ा
गया.उसका हाथ उसकी पीठ पर पंहुच गया.
"खुश रहना,मोनू."उसका स्वर भीग गया.वह जैसे भीतर तक हिल उठी.
सारी मुलाकात की कड़ुवाहट जैसे एक वाक्य ने धो दी हो और अब वह अलगाव के कई महीने गुजार
सकेगी.इस नन्हें सेसुख को वह कस कर मुट्ठी में भर लेगी.दर्वाजे के पास आ कर बोली,"कल आ
कर अल्पना ताजी कर जाउंगी ,सुवीर."
वह मुस्कुरा दिया और वह सीढीयां उतर गयी.

कितना कुछ कहती है यह कहानी आदमी के मन की सुलझी ,अनसुलझी गांठो पर.क्या है मन के खिचाव का रहस्य.हमें क्या वही चाहिये होता है जो मिल नहीं पाता.कैसा दुराग्रह है स्वीकारे जाने के प्रति.या फ़िर क्यों आड़े आता है हमारा अहम सामने वाले से स्वीकार लेने में कि उसका एक स्थान है हमारी जिन्दगी में.
एक समय था सत्तर अस्सी के दशक तक जब कला,साहित्य,नाटक आम जिन्दगी के या कहें कि समाज के एक बड़े हिस्से की जिन्दगी का अंग हुआ करते थे.खास कर हिन्दी लेखन से जुड़ा तबका व्यव्स्थित जिन्दगी को जैसे अंगूठा दिखा कर जीता था.फ़क्कड़्पना ,भले वह ओढा ही हुआ हो बौद्धिकता का एक मापदंड जैसा था.खद्दर का कुर्ता और खादी का झोला उस सोच को व्यक्त करने के तरीके थे जैसे.उस जीवन शैली को एक फ़्रेम में फ़्रीज़ कर दिया है सुमति जी ने.