Saturday, August 24, 2019












मित्र परिषद, कलकत्ता की भारतीय में अक्का की कविता रंग

 जिन हथेलियों को
अपने हाथ में तुमने लिया था --------
मेरी हथेलियां थीं।
तुमने कहा था 
विश्वास नहीं उगता 
नरम हथेलियों में
उगते हैं तो सिर्फ सपने,
मैंने खोजना चाहा था --विश्वास ।
बात जो खिलाफ गयी थी
वह मेंहदी के खिलाफ थी।
तुमने कहा था----
सिर्फ मेंहदी की आड़ी तिरछी 
रेखाओं में ही रंग नहीं होता।
रंग देखना है तो 
घास के गट्ठर ढोती
घसियारिन की हथेलियों को देखो ।
उतरती शाम 
घर लौटती घसियारिन की हथेलियां 
मैंने अपने हाथ में ली,
उनमें रंग नहीं
गट्ठे पड़े थे,
तुम ठीक कहते हो--
यहां सपने नहीं 
विश्वास पलते हैं ।
अब जो यह लौट रही है अपने घर
खट कर दफ्तर में दिन भर,
यह ,मैं हूं ।
क्या मैं
सच में अलग कुछ और हूं
सच कहूं
मेरी हथेलियां बांझ नहीं
इनमें विश्वास का बीजारोपण
तुमसे ही नहीं बना।

Monday, June 17, 2019

सफर के साथी --- कहानी संकलन




सफर के साथी--- कहानियों का एक संकलन , जिसका संपादन हरभजन सिंह मेहरोत्रा द्वारा किया गया था । पुस्तक का मुख्य पृष्ठ ।



  

प्रकाशक कृतिकार प्रकाशन, शास्त्री नगर, कानपुर और मुद्रक अजीत प्रिंटर्स , कौशल पुरी, कानपुर,.......पता नहीं इन पतों पर अब ये हैं भी या नहीं.





















हरभजन सिंह मेहरोत्रा द्वारा सुमति अय्यर के विषय में लिखी गयीं बातें




उन्हीं बातों में सुमति जी के उस समय के घर का वर्णन.......लाजपत नगर, कानपुर का घर, जो उनका संसार से विदा लेने का स्थान भी बना ।


Tuesday, March 19, 2019

अक्का के कलेक्शन में कल एक किताब हाथ लगी - अभिज्ञात की भग्न नीड़ के आर- पार । अभिज्ञात द्वारा अक्का को भेंट की गयी थी पुस्तक, तो बस याद संजोने को ये तस्वीरें ---



25 मार्च 1991.......

देहांतरण -- कहानी, जनसत्ता के सबरंग नें

देहातंरण भी सुमति अय्यर की आखिरी दिनों की लम्बी कहानियों में से एक कहानी है। वे कहानियां जो मानव मन के भीतरी ग्वहरों में सधे, धीमें कदमों से प्रवेश करती हैं, अंदर छुपी गांठों को बेहद एहतियात से खोलती हैं और गंभीर होते हुए भी कविता की तरलता लिए बहती हैं।
देहातंरण, कहानी है बेहद पहाड़ी परंपरागत परिवार में , छोटे से रसोईघर में अपनी समूची जिंदगी काट देने वाली उस सास की जिसके मन को समझती है धुर दक्षिण से आयी उसकी बहु और निश्चिंत हो आंखें मूंद लेती है सास कि उसकी आत्मा को विस्तार मिलेगा बहु की देह में।
हमें लगता है, कुछ कहानियां केवल जी जा सकती हैं, उनके विषय में लिखना, कहना जैसे सम्भव ही नहीं हो पाता। सो पढ़िए कुछ अंश कहानी के.......

'' कमरे में पसरी ताजी खुली हवा आजी के बीमार चेपरे पर चिपकने लगी थी। कल रात भर मेह बरसा था। हवा का गीला सा झोंका कमरे में धीरे बह गया और रात का सीलन भरा अंधेरा अब कमरे के बाहर तेजी से निकल गया।शर्बरी ने ध्यान से उस क्लांत चेहरे को देखा।लगा बरसों से जमा कुछ धीमे धीमे उघड़ने लगा है। भीतर जो कुछ खामोश होने लगा था तो क्या उम्र के साथ उसका दायरा बढ़ने लगता है। या जिसे खामोश हुआ समझते हैं, वह खामोशी बोलने लगती है- जब बाहर के सारे स्वर थमने लगते हैं। आजी के भीतर की इसी खामोशी की साझेदार बनी है शर्वरी। उम्र बर की तटस्थता के बावजूद वह कौन सी हुक थी , जो भीतर थी, कि अनजाने ही उनकी आंखों में धूल झोंक कर बाहर निकल आई, वह भी यूं शर्वरी के सामने। सब कुछ जैसे धुल गया कमरे के इस खुले उजास में। आजी की उम्र, उनकी बीमारी, उनकी पीठ, उनके चेहरे पर उतरने लगी है।धुंधले पड़ते समय के उस छोर से आजी कितने कितने क्षण बटोर रही हैं। जितना ही वे डूबती जाती हैं, वक्त और शरीर की मिली जुली साजिश में, उतना ही अतीत का कोी न कोई टुकड़ा ऊपर तिरने लगता है।"

कोई शिकायत नहीं, कोई कड़ुवाहट नहीं, कहीं कोई चीख- चिल्लाहट नहीं पर आजी का उम्र भर का अकेलापन, भरे पूरे घर में कितनी शिद्दत से मुखर हुआ है, भीतर तक पसरता चला गया है। यही खासियत है सुमति अय्यर की कलम की - दर्द पिघले या शोषण सिसकारे, विद्रूपता, भयावहता हावी नहीं होती पर बात इस मन से उस मन के भीतर तक पहुंच जाती है।

आजी फिर ऊंघने लगी थीं। कैसा बारीक सा रिश्ता रह गया है: सास बहु से हट करएक रिश्ता जो उन दोनों में पिछले एक माह में बन गया है। छलते छलते शेष रह जाने वाला विशुद्ध सबंध। 

सास बहु के बीच पनपे इस रेशम सरीखे सबंध को इतने कम शब्दों में पर इतनी पूर्णता से पाठक के भीतर रोप देना.... जादूगरी सा नहीं लगता भला।

नीचे है, सबरंग में छपी कहानी के पन्ने ---










Wednesday, January 16, 2019

अविरल मंथन, साहित्यिक त्रैमासिक-- जनवरी- मार्च 98 में कहानी- अथवटपुराणम्

एक पत्रिका और हाथ लगी -- अविरल मंथन । पता नहीं अब प्रकाशित होती भी है या नहीं। वैसे भी हिंदी की बड़ी बड़ी पत्रिकाएं जब समाधिस्थ हो गयीं हैं तो यह भी गुम हो गयी हो तो भला आश्चर्य कैसा। हां, तो इस पत्रिका के मार्च 98 के अंक में सुमति अय्यर लिखित एक कहानी प्रकाशित हुई थी, कहानी थी, अथवटपुराणम् । 
कहानी एक बालक की जबानी है । घऱ और आस- पास के परिवेश से उसकी कोमल और अलग सी संवेदनाओं का संघर्ष, सारी विद्रूपताओं के बीच कुछ कोमल, सुंदर सा खोज उसे मुट्ठी में बंद कर उसी के सहारे जीवन पार करने का तरीका खोज लेना और सबसे अधिक अपने पिता को समझना और उनके हताश दिनों में उनके संजीवनी खोज लाना, सब मन को भीतर तक गीला कर जाता है।
एक समय के दक्षिण भारत के गांव साकार हो उठते हैं, सुमति के चित्रण से। कहानी लम्बी है पर उबाऊ कतई नहीं। हर पात्र दूसरे से अलग, कहीं कहीं एक- दूसरे के प्रति निष्ठुर और अन्याय करता हुआ भी पर सब जैसे अपने अपने कटघरे में अवश । किसी भी पात्र पर न गुस्सा आता है, न घृणा, बस उनकी विवशता पर हल्का से तरस आता है ।
खुद ही देखिए, नीचे , कहानी के कुछ अंश ---







"उन्हें एक दूसरे भी शिकायत रही। चित्रों में मखमली एहसास के साथ कम रंगों के इस्तेमाल से मैं तमाम उड़ान, फिसलन, पिघलन, पत्तों की चरमराहट तक का आभास देने की कोशिश करता था। पिता की कविता को रंगों में जीता हुआ मैं विद्रूपताओं को भी आंकने लगा था। दरअसल जीवन की, घर की विसंगतियों का शायद प्रभाव पड़ना ही था। अब मैं प्रतीकों में रुचि लेने लगा था। कभी आंख की जगह चिड़िया बना देता, कभी बकरी...। कभी आदमी के कान हाथी के कानों की तरह पंखेदार बना देता..."



" मुझे याद है- एक स्थानीय नेता की षष्टी पूर्ति के अवसर पर एक प्रोट्रेट बनाने का काम मिला था । दस दिन लग कर मैंने प्रोट्रेट तैयार किया। उनके मित्र ने आ कर देखा तो तमतमा गए थे। केवल धड़ बनाया था मैंने, सिर नहीं। मैंने उन्हें समझाने की कोशिश भी की कि नेताओं में तो ऊपर का हिस्सा होता ही नहीं । जो नहीं है उसे कैसे दिखा दूं। प्रोट्रेट बहरहाल घर पर ही धूल खाता रहा। गालियां मिलीं सो अलग....."


" पिता
तुम महसूस करते हो
चांदनी का जादू
आलता लगे पांव की
उन्मुक्त थिरकन
जलकुंभी भरे तालाबों का सन्नाटा-
पर, तुम नहीं जानते क्या कुछ झड़ रहा है
घर की भीतर की दीवारों से,
क्यों बेरंग होता जा रहा है
पूरा घर.....।"

" पिता की गाड़ी जहां रुकी थी उस घर को मैं आज तक नहीं भूल पाया । हूबहू याद है, घर के आगे बनी वह बड़ी सी अल्पना, ओसारे की दीवार पर बने भित्ती चित्र - चमेली की खूब फूली बेल-- उस घर को पूरे मोहल्ले से अलग करते थे । बैसगाड़ी की आवाज सुनते ही वह बाहर निकल आयीं थीं, दूधिया हंसी बिखेरतीं । हल्का सांवला रंग, बड़ी आंखें, घुंघराले बालों की लम्बी वेणी और उसमें गुंधे मोतिया के फूल । मैं समझ गया था, यही वह हैं जिनके साथ पिता अक्सर बाहर रहते थे । दादी और मां की चुड़ैल , पिता की सखि। मेरे बाल मन में पड़ी उनकी पहली छांह सखि ही थी।
पिता ने मेरी परिचय कराया तो उन्होंने मुझे पास खींच कर चूम लिया था।..........
शाम की संझावती के बाद पिता तानपुरा ले कर बैठ गए थे। याहि माधव, याहि केशव... जयदेव उन्हें बहुत पसंद थे और अचानक ही वे पैरों में घुंघरू बांध उठ खड़ी हो गयीं थीं । मानिनी राधा का मान, उसका उलाहना, पिता की आवाज से हो कर उनकी आंखों और हाव भाव में उतर आया था। आम शामों से अलग वह शाम थी। घर की कब्रनुमा शाम नहीं । कृष्ण का अप्रतिम रूप 'अधरं मधुरं- नयनं मघुरं मधुराधिपते अखिलं मधुरं' में रूपाकार हुआ था और 'कनक सभागत कांचन विग्रह. में नटराज का लास्य मूर्तिमंत हो गया।................ 'धीर समीरे यमुना तीरे  में यमुना का किनारा और वंशी बजाते वनमाली का दृश्य आंखों के सामने साकार हो गया था। पिता का कंठ, उनका अंग संचालन और मेरी कल्पना का विस्तार.......जितनी देर वहां रहा जैसे बेमौसम खिल आए जंगली फूलों के संसर्ग में रहा । सांस खींच सब कुछ भीतर भर लेने की इच्छा हुई । पिता शावद जीवन के लिए ऊर्जा वहीं से भर लेते होंगें।










Sunday, January 13, 2019

कहानी- निर्माल्य, उपहार पत्रिका में





'उपहार' में 'निर्माल्य' सुमति अय्यर के जाने के बाद प्रकाशित हुई थी। 'निर्माल्य'  और 'देहांतर' जैसी कुछ लम्बी कहानियां जो सुमति जी ने आखिरी दिनों में लिखी थी एक अलग ही स्तर की कहानियां हैं। विषय गूढ़ है किंतु ऐसा जटिल नहीं कि समझ ही न आए। कहानी गम्भीर है किंतु नीरस नहीं। भाषा विन्यास, संस्कृत के श्लोकों का उद्धरण, कुछ पौराणिक संदर्भों का जिक्र, सब मिल कर कहानी को मात्र कहानी के स्तर कहीं बहुत ऊपर उठा देते हैं, लेकिन इनसे न कथानक ढीला होता है, न प्रवाह में कहीं बाधा पड़ती है और न ही कही- अनकही मन की भावनाओं , मानव मन की गुत्थियों की बेआवाज बहती लहरेंआपके मन को सींचने से रुकती हैं। हर बार इन कुछ कहानियों को पढ़ने के बाद हमें लगता है, काश.... यह रचनाक्रम कुछ और लम्बा चल पाता तो शायद हिंदी कहानी की यात्रा में एक नया ही पड़ाव रच जाता। खैर जिस पर बस नहीं उसके लिए क्या कहें, चलिए जो है उसे ही संजो लेते हैं. कुछ अंश निर्माल्य के---



"वह चौदस की रात थी और मां छत पर ही थीं काम से निपट कर। आदित्य चाचा बाबा की प्रतीक्ष3 में रुके थे। बाबा को उस दिन देर से लौटना था। मां ने वरूण सूक्त की जिद की थी --
अर्यम्य वरुण मित्र्यं या सखायं वा सदमिदभ्रातरं वा ।
वेशं वा नित्यं वरूणारणं वा यत्सीमागश्चकृमा शिश्रथस्तत ।।
हे वरूण , अज्ञान और प्रमाद से जिस अपराध को हम लोग करें, उन सबका नाश करिए।


मां की आंखें भर आईं थीं. शून्यभाव से आदित्य चाचा ने भी उनकी ओर देखा था। सब कुछ था उसमें, पर कुछ नहीं था।"


बस एक वाक्य---"सब कुछ था उसमें, पर कुछ नहीं था।' और कितना कुछ कह गया। ऐसे न जाने कितने वाक्य बिखरें हैं इस कहानी में, जो अपनी सहजता में भी भीतर का सारा कुछ उड़ेल जाते हैं। मन के भीतर के वे भाव जिन्हें व्यक्त करने को शब्द जैसे बने ही नहीं हैं, बड़ी ही सहजता से पाठक के भीतर तक रोप आती हैं सुमति।


"उस दिन शाम मां सालों बाद खुली थी उसके सामने। अपने तरह तरह के रूपों, मीती हंसी, अबूझ हंसी, संदर्भहीन बातों से दिगभ्रमित करती मां एक- एक शब्द के साथ अपना जीवन खोल रही थीं। अपने पूरे अड़तीस वर्षीय दांपत्य जीवन को अपने ही बेटे के सामने परत -दर -परत खोलती वह औरत उसकी मां थी। पर उसके स्वर में न जाने कितने युगों की कथा थी, अनसमझे रह जाने की व्यथा, गलत समझे जाने की व्यथा। तब हवा चुप थी-- सीढ़ी के पास आ कर बैठ गईं थीं वे। कावेरी का प्रवाह जैसे धीमा हो गया था । पक्षियों की चहचहाट शांत हो गई थी, एक नीरव सन्नाटा था चारों ओर। गिलहरी आम के बाग के सन्नाटे को रह रह कर तोड़ रही थी। चौदस की रात थी, मंत्रमुग्ध करने वाली। कावेरी का पाट, उसका विस्तार , देख कर उस क्षण जीवन का अर्थ धीरे धीरे उभरने लगा था। तभी मां का रेशम सी आवाज गूंजी..........."


इस अंक में पत्रिका के सात पन्नों में है कहानी और वह भी गतांक से आगे..........कहा था न हमने बहुत लम्बी है कहानी। और हो भी कैसे न...मन की हर परत और वह भी अलग अलग पात्रों के मन , सबके अपने अलग आग्रह, दुराग्रह, गांठें, खुलापन, इन सबको न्यायसंगत ढंग से, दुलराते हुए सहेजना कोई दो शब्दों में कहने वाली बात तो है नहीं।  





Sunday, January 6, 2019



 किस वर्ष में प्रकाशित हुआ यह कविता संग्रह यह हमें पुस्तक में कहीं मिला नहीं लेकिन इतना तो तय है के 1985 के पहले ही हुआ था। पुस्तक का मूल्य था मात्र 7.50 रूपए। अब तो पचास पैसे भी धीरे धीरे लुप्त हो रहे हैं और साथ ही लुप्त हो रही है पुरानी किताबों के पन्नों से आती वह सोंधी खुशबू।
चलिए , आज पढ़ते हैं, सुमति अय्यर के इस कविता संग्रह की एक कविता---

अठारह सूरज के पौधों की तरह।
मैं स्वयं,
ऊपर से थोपी गयी भूमिका की तरह,
कट कर रह गई हूं,
दो पृष्ठों में।
सुनो,
मैं तुम्हारे इस संस्करण की
भूमिका तो बन सकी हूं,
क्या पता,
अगले संस्करण तक
यह दो बात भी
समाप्त हो जाय
और मुझे फ्लैप पर भी जगह न मिले
फिर मैं पुस्तक कैसे रह गयी
तुम पुस्तक हो,
और मैं तुम्हारा नया विज्ञापन,
और विज्ञापन बदलते हैं
        समय के अनुसार ।


सम्बंधों का सच इतने शालीन व्यंग से उकेरा है, सुमति जी ने कि बस होठों के कोर पर एक छोटी सी टेढ़ी मुस्कान आ कर टिक जाती है और शब्द हाथ बांधे खड़े रह जाते हैं।