Tuesday, March 19, 2019

अक्का के कलेक्शन में कल एक किताब हाथ लगी - अभिज्ञात की भग्न नीड़ के आर- पार । अभिज्ञात द्वारा अक्का को भेंट की गयी थी पुस्तक, तो बस याद संजोने को ये तस्वीरें ---



25 मार्च 1991.......

देहांतरण -- कहानी, जनसत्ता के सबरंग नें

देहातंरण भी सुमति अय्यर की आखिरी दिनों की लम्बी कहानियों में से एक कहानी है। वे कहानियां जो मानव मन के भीतरी ग्वहरों में सधे, धीमें कदमों से प्रवेश करती हैं, अंदर छुपी गांठों को बेहद एहतियात से खोलती हैं और गंभीर होते हुए भी कविता की तरलता लिए बहती हैं।
देहातंरण, कहानी है बेहद पहाड़ी परंपरागत परिवार में , छोटे से रसोईघर में अपनी समूची जिंदगी काट देने वाली उस सास की जिसके मन को समझती है धुर दक्षिण से आयी उसकी बहु और निश्चिंत हो आंखें मूंद लेती है सास कि उसकी आत्मा को विस्तार मिलेगा बहु की देह में।
हमें लगता है, कुछ कहानियां केवल जी जा सकती हैं, उनके विषय में लिखना, कहना जैसे सम्भव ही नहीं हो पाता। सो पढ़िए कुछ अंश कहानी के.......

'' कमरे में पसरी ताजी खुली हवा आजी के बीमार चेपरे पर चिपकने लगी थी। कल रात भर मेह बरसा था। हवा का गीला सा झोंका कमरे में धीरे बह गया और रात का सीलन भरा अंधेरा अब कमरे के बाहर तेजी से निकल गया।शर्बरी ने ध्यान से उस क्लांत चेहरे को देखा।लगा बरसों से जमा कुछ धीमे धीमे उघड़ने लगा है। भीतर जो कुछ खामोश होने लगा था तो क्या उम्र के साथ उसका दायरा बढ़ने लगता है। या जिसे खामोश हुआ समझते हैं, वह खामोशी बोलने लगती है- जब बाहर के सारे स्वर थमने लगते हैं। आजी के भीतर की इसी खामोशी की साझेदार बनी है शर्वरी। उम्र बर की तटस्थता के बावजूद वह कौन सी हुक थी , जो भीतर थी, कि अनजाने ही उनकी आंखों में धूल झोंक कर बाहर निकल आई, वह भी यूं शर्वरी के सामने। सब कुछ जैसे धुल गया कमरे के इस खुले उजास में। आजी की उम्र, उनकी बीमारी, उनकी पीठ, उनके चेहरे पर उतरने लगी है।धुंधले पड़ते समय के उस छोर से आजी कितने कितने क्षण बटोर रही हैं। जितना ही वे डूबती जाती हैं, वक्त और शरीर की मिली जुली साजिश में, उतना ही अतीत का कोी न कोई टुकड़ा ऊपर तिरने लगता है।"

कोई शिकायत नहीं, कोई कड़ुवाहट नहीं, कहीं कोई चीख- चिल्लाहट नहीं पर आजी का उम्र भर का अकेलापन, भरे पूरे घर में कितनी शिद्दत से मुखर हुआ है, भीतर तक पसरता चला गया है। यही खासियत है सुमति अय्यर की कलम की - दर्द पिघले या शोषण सिसकारे, विद्रूपता, भयावहता हावी नहीं होती पर बात इस मन से उस मन के भीतर तक पहुंच जाती है।

आजी फिर ऊंघने लगी थीं। कैसा बारीक सा रिश्ता रह गया है: सास बहु से हट करएक रिश्ता जो उन दोनों में पिछले एक माह में बन गया है। छलते छलते शेष रह जाने वाला विशुद्ध सबंध। 

सास बहु के बीच पनपे इस रेशम सरीखे सबंध को इतने कम शब्दों में पर इतनी पूर्णता से पाठक के भीतर रोप देना.... जादूगरी सा नहीं लगता भला।

नीचे है, सबरंग में छपी कहानी के पन्ने ---