Friday, November 18, 2011

एक कहानी -घटनाचक्र

हिंदी कहानी का मध्यान्तर’ सम्पादक रमेश बक्षी,इस संग्रह में ३६ कहानियां हैं--समय के क्रमानुसार,पहली कहानी क्रिष्ण बलदेव वैद की और आखिरी सुमति अय्यर की.इस संग्रह का प्रथम संस्करण १९८५ में प्रकाशित हुआ था.


सुमति अय्यर की कहानी”घटनाचक्र’ में जीवन की विसंगतिया,आदमी का खुद से संघर्ष,आदमी को मजबूर करता उसका स्वार्थ सब बहुत सहज रूप से बहता मिलता है पर हमे जो बात सबसे अच्छी लगी ,वह है नायिका का जीवन को लेने का तरीका.इतनी सारी विभत्स सच्चाईयों के बीच जूझती हुई भी वह दूब के कुछ तिनके उगा ही लेती है ,सांस लेने के लिये.


खुद ही पढ देखिये यह कहानी............


                                                             घटनाचक्र




सुबह खिले काफ़ी देर हो चुकी थी.पर वह लिहाफ़ को गले तक खींच कर पड़ी थी.रामी ने दो बार दर्वाजे को हल्के से खोल कर भीतर झांक लिया था.वह कनखियों से उसे देख कर करवट बदल कर लेट गयी थी.ऊपर पंखा घर्र घर्र करता हुआ चल रहा था.कई बार उसकी ओर ताकते -ताकते उसकी इच्छा होती है,पंखा चलते-चलते अचानक छत से छूट कर नीचे आ गिरे,ठीक उसके ऊपर.उसकी कुचली लाश कैसी लगेगी फ़िर? अपनी क्रूर इच्छा पर खुद सिहर उठती है.पर ऐसा सोचने से खुद को रोक नहीं पाती.
       इस कमरे के साथ जुड़े हुये एयर कन्डीशन्ड कमरे मे सोना उसे कभी अच्छा नहीं लगा.कई बार वे इसकीइस हरकत पर झुंझला उठते हैं.पर वह है कि सुधरना ही नहीं चाहती.पंखे की घरघराहट उसे पसंद है .वे उसे बदल कर दूसरा पंखा लगवाने को कई बार कह चुके हैं,पर वह टाल जाती है.
" इसके नीचे सोते हुये कई बार लगता है जैसे अपने कमरे में होंऊ."
" दूसरे कमरे मे क्या आफ़त है?" वे पूछते
" वह कमरा घर का नहीं,किसी फ़ाइव स्टार होटेल का सूट लगता है."
उसकी इस दलील के सामने वे हार कर चुप हो जाते.
अक्सर उसे लेटे लेटे याद आता है अपने छोटे से घर का कमरा,जिसमे पंखे के नीचे सोने के लिये भाई बहनो मे गुथम्गुत्थी होती.अब वह अकेले पंखे के नीचे लेट कर अशांत रहती है.पता नहीं क्यों पंखे की हवा बेमानी लगती है.
उसका सारा शरीर पसीने से तरबतर रहता हैऔर वह निष्चेष्ट पड़ी रहती है.कोई हरकत नहीं होती.शायद दो साल पहले इस बात पर खीझ कर सारा घर सर पर उठा लेती,पर अब खीझना जैसे भूल गयी है.
रामी चाय का प्याला लिये कमरे में आ गयी है,’कल रात फ़ोन आया था.शाम पांच बजे की फ़्लाइट से .आप सो रही थी.’ पर वह चुपचाप पड़ी सुनती रही.रामी ने उसकी ओर आश्चर्य से देखा.उसने शायद सोचा हो,खबर सुनते ही,वह हुलस कर उठेगी और सवाल पर सवालों की झड़ी लगा देगी.पर उसने पास ही मेज पर रखे प्याले को चुपचाप उठा लिया और सारी व्यग्रता चुस्कियों में पीने लगी.
’क्या हुआ मेम साहब तबियत तो ठीक है न!’रामी के स्वर में आत्मीयता से अधिक यान्त्रिकता थी.उसे खीझ हो आयी.सब उसके उसके व्यवहार की असमान्यता का कारण उसकी शारीरिक अवस्था में क्यों खोजने लगे हैं? उसका मन मानो कुछ भी नहीं है.उसने जवाब नहीं दिया और चुपचाप लेट गयी.रामी ने पास आ कर प्याला उठा लिया और धीरे से पूछा,’जी मितला रहा हो तो कुछ ला दूं?’
’नहीं’ उसने अनमने मन से जवाब दिया और आंखें मूंद ली.
कितना अजीब लगता है,वह इन दिनों को अकेले पड़े पड़े काट रही है .जो उसके क्या किसी भी लड़्की के जीवन में बहुत मायने रखते हैं. अपने शरीर पर होने वाली मामूली से मामूली हरकत जैसे शरीर को झुरझुरी से सहलाती हुई गुजर जाती है.मानस-पटल पर उभरते धुंधले बिम्बों को आकार देने वाले वे क्षण !उसे कितनी यादें आती हैं मां की.वह पास होती तो वह उनकी गोद में सिर छिपा कर लेटती और अपने इन अंतरंग क्षणों की हर धड़कन को उनसे बांटती.


  उसने मां को अग्रिम सूचना के तौर पर पत्र लिखना चाहा था,पर लिखते लिखते जैसे हाथ रुक गये.और उसने कागज़ के टुकड़े टुकड़े कर दिये.सूचना पाने के बाद मां की प्रतिक्रिया का अन्दाजा वह लगा सकती है.और उसे उसी पिटी पिटाई भंगिमा से नफ़रत होने लगी है.कई बार उसने फ़ैसला किया है कि अब वह घर की बात नहीं सोचेगी.दो चार वाक्य अपने में बुदबुदा कर,हर बार उसने यह भ्रम पाल लिया है कि उसने फ़ैसला कर लिया है.पर कुछ होता नहीं.कब तक अपने को झुठलाती रहे? बस एक हद होती है फ़िर अपने भ्रम को सहलाना भी अपमानजनक लगने लगता है.
" मां को मैं चौंकाना चाहती हूं." उनके पूछने पर उसने सफ़ाई पेश करना चाहा था.उसे अपनी ही विपन्नता पर खीझ हो आयी थी.
" हां हां वे जरूर चौंकेगीं," वे तब हंस दिये थे और उनकी हंसी का साथ देते हुये उसने भीतरी आशंका को चुप करा देना चाहा था.
रामी ने दोबारा दरवाजा खोल दिया था," पानी गरम कर दूं मेम साहब?"
वह चुपचाप उसे देखती रही.वह जैसे सहम गयी थी,और अपने वाक्यों को वापस लेने की हड़बड़ी में बोली,’ देर हो गयी थी ,सो पूछ लिया" और उसने सिर झुका लिया.मानो उसकी स्थिति के लिये खुद को जिम्मेदार ठहराना चाह रही हो.उसने सिर हिला दिया.
"अभी इच्छा नहीं है.मुझे डिस्टर्ब न करना.तुम लोग खा लेना. मैं तीन बजे तक नहाउंगी."
"अच्छा, मेम साहब!" वह चली गयी.उसका जी हुआ उसे रोक कर पूछे,रामी जैसे तुम औरों को बहु जी कहती हो मुझे नहीं कह सकती.?" पर उसने पूछा नहीं और चुपचाप उढके हुये दरवाजे पर आंख गड़ा दी.
पता नहीं कैसा अधूरपन छाता जा रहा है दिलो दिमाग पर? हर काम को वह झल्लाहट के साथ करने लगी है.उसे लगता है इस झल्लाहट ने उसके दांतो और नाखूनो को तीखा कर दिया है..और वह सभी को बात बात पर जख्मी कर देने पर तुल गयी है.सच तो यह है कि वह अकेले जीते जीते थक जाती है,दीवारों के साथ,पेंटिग्स के साथ और इन सारी सुख सुविधाओं के साथ.अब वे सारे ऐशो आराम जो कभी उसे एड्वेन्चर लगते थे,डराने लगे हैं और वह भाग कर दूर जाना चाहती है,पर कहां जाय ? यहां तो बाज़ार जाने,पास पड़ोसियों से मेल जोल रखने की भी मनाही है.
उसे अक्सर अपना अतीत याद आता है.वे इस पर रोक नहीं लगा पाय.उसे याद है अपना वह छोटा सा घर,भाई बहन के झगड़ों-उधमों से परेशान मां का झुर्रियोंदार चेहरा कमरे के कोने में पड़ी आराम कुर्सी पर लेट कर अखबार के प्रथम प्रिष्ठ्से ले कर आखिरी प्रिष्ठ तक चाट जाने वाले पिता जी!हालत यह कि आटे का कनस्तर अक्सर खाली पड़ा रहता.जिस दिन पिता जी वहां नहीं मिलते वह समझ जाती,आज या तो कनस्तर खाली है या फ़िर दाल नहीं है.मां की नाक इन दिनो विषेश चढी रहती.हलां कि उस पर तो वे यूं भी बरसती.सारी गरीबी के बावजूद उसके अपार सौन्दर्य और गठित देहयष्टि पर मां की आंख पड़ी नहीं कि उनके आशीर्वचन हांला कि बाद मे अकेली जब बाहर देहरी पर बैठती ,तब सांझ का दिया जला कर ,वह उनके समीप बैठ जाती-तो सह्सा उनकी आंखे नम हो जातीं और कहतीं,"मैं भी पापी हूं रे! कितना कुछ कह जाती हूं.पर सब तेरे भले के लिये ही तो!" और उसका हाथ दबा देती.
उसे याद है ,मां की संदेह द्रिष्टी स्कूल से लौटने तक उसका पीछा करती ही है.वह स्कूल में होती तब भी हर क्षणुन दो आंखों की चुभन मह्सूस करतीऔर अब लगता है,वह यही अनुभुति है,जिसकी वजह से वह अपने जिन्दा होने के एह्सास को नकारती रही है.
उस स्कूल के पूरे मौहाल में एक चेहरा याद आता है---अतुल का.
अतुल उसका पड़ोसी था,स्कूल का साथी.उसके आने से मां को एक बिन मांगा नौकर मिल गया.और उसे एक प्यारा साथी,जिसके आने के बाद उसे अपना जीवन अर्थपूर्ण लगने लगा था.कब वह घर का अतुल होता हुआ उसका अतुल हो गया ,वह जान ही नहीं पाई.मां को उसका आना-जाना अच्छा लगता था.एक काम काजी बेटा जो मिल गया था.दीपू और मंगू तो इतने छोटे थे कि उनका काम भी मां को ही करना पड़ता था.पापा को राजनीति  की गर्म चर्चा करने वाला एक साथी मिल गया था.उन्हें तो अतुल की एक दिन की भी गैरमौजुदगी अखरती.मतलब यह कि अतुल के आने जाने से घर भर को सुविधा थी.बस एतराज था तो उन सपनों से जो उन दोनो ने रौशनी में बुने थे.
" ही इज ए बास्टर्ड ." पापा चिल्लाये थे ,जिस दिन उसने अपना प्रस्ताव रखा था.
" न अपना कुल,न अपना गोत्र ! कहीं ऐसे में रिश्ते टिकते हैं ? फ़िर कमाना तक भी शुरु नहीं किया और मंजनू पहले बन गये!"पापा का गुस्सा काफ़ी देर तक उफ़नता रहा था..मां भी रसोई में उसे बिठा कर सुनाती रही.
किसी ने उससे पूछने की आवश्यकता नहीं समझी थी शायद!वे तो मानो मान बैठे थेकि बेटी उनकी  इज्जत सरे आम उतार फ़ेंक रही है.मां ने आंखो को छोटा कर के यह भी पूछा था," कहीं कुछ गलत सलत तो नहीं कर बैठी री लड़की?"उसने हर हिलाया था,पर बर्बस उसकी आंखों में आंसू आ गये थे.क्या सोचते हैं ये लोग? पहचान होने या प्यार होने का मतलब सिर्फ़ साथ लेटना ही तो नहीं होता.
पापा ने उसे पास बिठा कर दुलराते हुये कहा था," बेटी ,तुम्हारे भले के लिये जो कह रहा हूं उसे अन्यथा मत लेना.आज तुम्हें सब अनुचित भले ही लगे,कल जब तुम सोचोगी,सब सही ,सहज और आवश्यक लगेगा.मैंने तुम्हारा नाम प्यार से नहीं सार्थकता  के साथ अलकनन्दा रखा था..."आगे कुछ नहीं बोले थे वे.उनकी गोद में सर रख कर रोती रही थी वह.
अतुल चला गया था ,उससे विदा लिये बिना.उसकी बहन ने बताया था,उसका सेलेक्शन कानपुर आई.आई.टी .में  हो गया है और वह वहीं चला गया है.उस दिन वह घर लौट कर बिना खाये पिये ही सो गयी थी.किसी ने पूछा तक नहीं,फ़िर घर की अवस्था भी कुछ ऐसी थी कि एक वक्त का खाना बच जाना उनके लिये गैर मामूली बात नहीं थी.लड़की का भूखा सो जाना उन्हें सहज जरूर लगा था.अतुल का उससे बिना मिले चले जाना ,उसे असह्य हो उठा था.
कुल गोत्र को आड़े रख कर उसके और अतुल के सम्बन्धो की धज्जियां उड़ा दी गयीं.अब यहां कौन से रिश्ते कायम रह गये.?वहां कम से कम प्यार तो रौशनी में बुना गया था,यहां तो रिश्ते ही अंधेरे में जी रहे हैं.कुल गोत्र का पता तो दूर ,वह तो उनका पूरा नाम भी नहीं जानती.
’बस सुहाग ही तो नहीं रहेगा न?" उसे आश्चर्य हुआ था,यह वही मां बोल रही है,जो हर सोमवार कैलाश-मन्दिर में अपने सुहाग की रक्षा के लिये माथा टेकने जाती है.यह वही मां है जिसने अतुल को ले कर काण्ड खड़ा किया था? या ये वही पापा हैं जिन्होंने नाम की दुहाई दे कर उसकी अर्थवत्ता बनाये रखने का आग्रह किया था.पर हकीकत से बड़ा कुछ नहीं होता.यह वही मां थी.वही पापा.वे जब पारिवारिक मित्र त्रिपाठी जी के हाथ प्रस्ताव ले कर आये थे,तो मां और पापा किंकर्त्तव्यविमूढ हो गये थे.उसका पूरा विश्वास था ,पापा उसी तरह चिल्लायेगे," यू आर अ बासटार्ड." इतनी बड़ी बात कहने की हिम्मत कैसे हुई पर उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब वे दोनों मौन रहे थे.एक दिन की मोहलत तो त्रिपाठी जी ने नाजुक स्थिति का अन्दाजा लगा कर दिला दी थी और वह ब्यूक गाड़ी उनके दरवाजे से धूल उड़ाती चली गयी थी.
कैसा प्रस्ताव था यह?न विवाह का ,न मन्त्रोच्चार का झंझट! वह शादी शुदा ,बाल बच्चेदार ,अति सम्पन्न व्यपारी थे,जिन्हें अपने भरे पूरे परिवार को कलकत्ते में छोड़ कर बम्बई में रहना पड़ता था.कलकत्ते का कारोबार उनके भाई संभालते.बम्बई में सारे दिन व्यस्त रहते पर सांझ घिरते ही उनका अकेलापन उन्हें शून्यता से भर देता.उन्हें एक केयर-टेकर चाहिये और वह भी लड़की,जो वहां उनके साथ रह सके.उनकी उस व्यस्तम जिन्दगी में से हासिल बचे क्षणों में साथ निभा सके- बिल्कुल पत्नी की तरह पर समाजिक तौर पर नहीं,निजी जिन्दगी में ,बंद दीवारों के बीच,सामाजिक भद्दे शब्दों में ’रखैल.
उसे इस प्रस्ताव पर आश्चर्य हुआ था,त्रिपाठी जी ने पापा को विश्वास दिलाया था की वे अलका को देख चुके हैं और कई दिनों से प्रस्ताव रखने में हिचकिचा रहे थे.यह तो त्रिपाठी जी ने उन्हें आश्वासन दिया है .काफी देखे ,भले सुने आदमी है .तकलीफ नहीं होगी.बिलकुल सुविधाओं से लाड देगे .बस,अलका राज करेगी .बम्बई में उसका परिचय किसे मालूम होगा ? आस पड़ोस वाले खुद ब खुद पति पत्नी समझाने लगेगे - कौन मांगता है शादी का सर्टिफिकेट. वे अपनी बात पापा तक पहुचाते पंहुचाते माँ की ओर देख लेते .
" अगर आपको एतराज हो तो यही घर में माला बदलवा लेते है ,ठाकुर जी के सामने !"
उन्होंने एक जोरदार तीर मारा था और वही तीर था जो निशाने पर लग गया .मां और पापा उस रात देर तक बाहर नीम तले बैठे रहे थे .वह उनकी बातें सुनने की आशा में तीन बार दरवाजे तक आयी,पर कुछ भी नहीं सुन पाई.
अगली सुबह मां ने उसे चाय देते हुये पूछा था," तुम्हारा क्या ख्याल है अलका?" कुछ क्षण मौन घहराया ही रहा.दोनों खामोश थे,अपने अपने अर्थों में.और उस खामोशी को वह किसी भी मूल्य पर तोड़ कर कोई भी कसैला घूट अपने भीतर नहीं उतारना चाहती थी.चुप रही वह.मां ने उसकी ओर देखा था,मानो वह दोबारा वह सवाल उठाते हुये डर रही हों.
" तुम लोगो ने क्या सोचा?" उसने सवाल को धुयें के छल्ले की तरह उनकी ओर लौटा दिया.मां चुप रही,मानो किसी तकलीफ़ को आंधी की तरह भीतर ही भीतर झेल रही हो.उनके चेहरे का तनाव क्षण भर में गायब हो गया. फ़िर पुचकारती सी बोली थी,"हम तो चाहते ही हैं,तुम सुखी और सम्पन्न रहो.तुम्हें एक भले घर में ब्याह दें - यह हमारा सपना था.हमारी इच्छा भी यही है.पर इच्छा से क्या होता है?"
उसे लगा था,वे झूठ बोल रहीं हैं.रहा होगा कभी वह सपना,पर बारी बारी से चार बच्चों के जन्म के बाद कहां खो गया वह,जो अब ढूढे नहीं मिल रहा.पापा केवल गली से गुजरती बारात को तमाशबीन की तरह देख सकते हैं बस! उसे आश्चर्य हुआ सोच कर कि आर्थिक विपन्नताओं में नैतिकता की सीमा को सुविधानुसार विस्तरित एंव संकुचित करने की अपार क्षमता होती है.उसका जी चाहा था,किसी अर्थशास्त्री और नैतिकशास्त्री से पूछे कि इनका मिलाजुला समाजशास्त्र कैसे बनेगा? उसने तो कभी सुविधाओं की शिकायत नहीं की थी ! फ़िर सत्रह वर्षों से वह इसकी आदी हो गयी है.सहसा मां को इसका ख्याल क्यों आया? नैतिकता का अनकहा बोध सिर्फ़ उसके भीतर ही बच रहा था.
अब जब वह घर गयी थी ,तो नये बदले घर की सुविधाओं को देख कर उसे विश्वास हो गया था कि सुविधा की जरूरत उसे नहीं ,घर वालों को थी.उसे याद है,पिछली बार पापा अपराधी की तरह सिर झुकाये बैथे रहे थे.उसका जी हुआ था ,वह कह दे कि जिस समपन्नता के लिये मुझे बच कर आज अपने को अपराधी महसूस कर रहे हैं,वह मुझे भी सुरक्षा नहीम दे पायी है.संपन्नता सुख सुविधाओं से नहीं ,खुद को गहराई से समझने और समझ कर उसे जीने से पनपती है.वह अकेले में बैठ कर जब भी सुख दुःख के गणित को परखना चाहती है,उसे हमेशा दुःख का पलड़ा ही भारी लगता रहा है.अपनी सारी सुख संपन्नता उसे एकदम अवैध लगने लगती है.उसे अक्सर लगता है,जैसे पूर्वाग्रहों की काली परछाई अक्सर उसके चेहरे पर छा जाती है.


वह घर गयी थी सिर्फ़ अपने स्म्रिति शेष अतीत को भरने ,भोगने और फ़िर से ताजा करने के लिये.पर उसे वहां जा कर मह्सूस हुआ,अतीत बस पोस्टर कलर की तरह है.एक जमाना था,जब,वे चटख थेव,सजीव थे,पर बहुत जल्द फ़ीके पड़ जाते हैं.रंग दोबारा घोला नहीं जाता,उसी सानुपातिक मिश्रण में .और उसे अपना जामा ऊपर से फ़ेर दिये गये ब्रश सा लगने लगा था.
मां ,मां न हो कर सुविधाओं की पूर्ति करने वाली नौकरानी हो कर रह गयी थी .उसकी हर सुविधा का ख्याल वह जब भी रखती उसे सबकी याद आ जाती.पुरानी मां की तो छाया तक शेष नहीं रह गयी थी.शायद उन्हें अपनी नयी अर्जित सुविधाओं में जीते जीते उसके प्रति क्रितग्यता का भाव व्यक्त करने के अलावा और कोई लगाव नहीं रह गया था.
वह कितना चाहती रही थी कि दीपू,मंगू और नन्हीं पंखे के लिये उससे झगड़े,मां उसे इस उस बात के लिये टोकें ,पर वह तो जैसे अजनबी हो गयी थी.वह बुरी तरह ऊब उठी थी.
इत्त्फ़ाक से उन्हीं दिनों त्रिपाठी जी की भतीजी का ब्याह था.पापा और मां दोनों नहीं गये थे.पापा कमरे की बत्ती बुझा कर लेट गये थे और मां ठाकुर जी के सामने बैठ कर रामचरित  मानस पढने लगी थी.उसके भीतर कई कई सवाल उफ़नने लगे थे,जो भीतर ही घुल गये.शब्दों की कड़ुआहट को होठों तक ला कर मुंह का जायका भक्भका करना उसे फ़ालतू लगा था.लगा था जैसे मां और पापा ने छोटे छोटे चौखटे बना लिये थे,जिनमें वे अपने चेहरे फ़िट नहीं कर पा रहे थे.इसी बोध ने उसे असहज बना दिया था.
वह समझ नहीं पा रही थी कि यह सब उसके सामने स्वांग रचा जा रहा है या फ़िर वे सचमुच अपने भीतर की सच्चाई के सामने घुटने टेक चुके हैं.कुछ भी हो उसे क्या फ़र्क पड़ता .वह गयी थी दो महीने के लिये ,दस दिन मे ही.फ़िर कभी नहीं गयी. लौट आयी थी.लौटते समय मां ने व्यवहारी तौर पर साड़ी और सिंदूर की डिबिया दी थी.उसे याद है लौट कर साड़ी तो उसने सहेज ली थी और सिंदूर की डिबिया रामी को दे दी थी.


बचपन में पश्चिम में फ़ैलती उस सिंदूरी आभा को देख हमेशा उसके मन में एक ख्याल पलता.वह भी मांग में खूब सिंदूर भर कर वहां खड़ी हो जाय. मानो होड़ लेना चाहती हो.उसने एक बार स्वेच्छा से थोड़ी मांग भर भी लाथी तो वह बोलेथे,’तुम मांग भर कर मत चला करो.लगता है,किसी पराई औरत को लिये जा रहा हूं."


घर जा कर उसने मांग रगड़ रगड़ कर पोंछ ली थी.मांग की जलन तो बुझ गयी,पर मन में एक दरार सी पड़ गयी थी,जो आज तक नहीं निकल पाई.
संस्कारों के प्रति अंधभक्ति कभी नहीं रही,पर बाज वक्त उनकी विरक्ति और इस तरह के वाक्यों को देख-सुन कर उसे लगता जैसे वह खुद उधार की चीज है,जिसे किसी को लौटाने को वह व्यग्र हैं.कहां छोड़ आते है अपना पौरुष? प्रेयसी के लिये कुछ कर गुजरने का आवेग कहां चला जाता है?
पिछले दो साल उनके साथ जीते जीते,वह उन्हें बहुत कुछ जानने लगी है. हालांकि उसके साथ उनका कम समय ही गुजर पाता है.अब वे बम्बई से बाहर भी जाने लगे हैं.दोनों के बीच के उम्र के फ़ासले को वह पचा जाती है पर जब वे खुशामदी तरीके से उसका शरीर सहलाते हैं तो उसे उनके पौरुष में पति या प्रेमी के बजाय पापा नज़र आने लगते हैं.उसे अक्सर मह्सूस होता .अगर वह उसके साथ सब जोर जबर्जस्ती करें तो उसे शायद नार्मल लगे.
शुरु शुरु में उसके प्रति उनके प्यार और स्नेह ने उसे इतनी अद्भुत स्फ़ूर्ति दी थी कि जीवन की सारी विसंगतियों को पूरे माद्दे के साथ जीने का अहम उसके भीतर घर कर गया था.उनके प्यार सम्मान को पा कर उसके भीतर का घाव कहीं भरने लगा था और वह स्वस्ति का अनुभव करने लगी थी.उसने एकाध बार मह्सूस भी किया कि इतनी मोहक स्थिति और उन्मुक्त भविष्य को चुनने में उसने इतना वक्त क्यों खराब किया.ऐसा कौन सा कोण था कि उसे इस सारे सुखों को स्वीकारने में भी हिचकिचाहट हो रही थी.वह घटना नहीं घटतीतो वह शायद आज बेहद आश्वस्त और सुरक्षित महसूस करती.
घटना बेहद छोटी थी.उन्होने ही एक पत्र के साथ अपने मित्र सक्सेना को भेजा था.वह आया.उसने उसे कमरे में ठहरा दिया थी.सारा प्रबन्ध उसने और रामी ने मिल कर किया था.उसे पहली बार लगा ,वह ग्रिहणी के सम्मान सहित अतिथि सत्कार कर रही है.
शाम ढलते ही रामी आयी थी," साहब आपको बुला रहे हैं."
" क्या कर रहे हैं ?"उसने उत्सुकता जाहिर की थी.
रामी ने हाथ के अंगूठे से होंठो को छुआ था.वह भारी मन से उठ गयी थी.आरम्भ की औपचारिकता के बाद वह सहजता पर उतर आया था.वह सहजता उसे भली नहीं लगी थी.और सहसा जब उसने कंधे पर हाथ रख उसे भींच लेना चाहा ,तो वह छिटक कर अलग हो गयी थी."रखैल को भी सतीत्व की चिंता है?" और उसका ठहाका गूंज गया था.
जब वह आये थे,तब उसने सारी बातें निहायत अंतरंग क्षणो में रुक रुक कर बताई थी.उसका ख्याल था ,सुनते ही वे भड़केगे.सक्सेना को मार डालने की धमकी देंगे,उसे पुचकार कर चूम लेंगे.पर ऐसा कुछ नहीं हुआ.वे मौन सुनते रहे और वह उनके सीने से लग कर रोती रही.कुछ क्षण बाद एक एक शब्द मानो तौल-तौल कर उन्होंने कहा," यह तो बहुत बुरा हुआ." आगे की प्रतिक्रिया जानने के लिये वह उनकी ओर देखती रही थी.फ़िर वह उसे देखते हुये बोले थे" पिछली बार उसने जो कान्ट्रेक्ट साइन किये थे,पिछले हफ़्ते तोड़ दिये.हमारा नुकसान ढाई लाख का हुआ.मैं तब कारण नहीं समझ पाया था."
" अब समझ में आ गया न?" उसने तीखा हो जाना चाहा.वे मुस्कुरा दिये थे और उसे चिपका लिया था.वह चुपचाप उनके नाइट सूट के बटनों से खेलती रही थी.कुछ देर दोनों के बीच मैन पसर गया था.
" एक बात कहूं ,अलका?"
" हां ," उसने सर उनकी ओर घुमाया
" क्या होता अगर उसे चूम ही लेने देती ?"
वह छिटक कर उठ बैठी थी.वे जैसे स्थिति संभालने की कोशिश करते हुये बोले थे,’ मेरा मतलब है ,तुम इतनी माड पढी लिखी लड़की हो,अब भी उन फ़िजोल्ल के संस्कारों से बंधी हो ? शारीरिक पवित्रता जैसी नैतिकता क्या फ़ालतू नहीं लगती.?"
वह उन्हें घूर रही थी.सहसा उसने कह दिया,"अगर संस्कारों से इतनी ही बंधी होती तो मां बाप के बेच देने पर यहां चली नहीं आती."
’तो फ़िर क्या झगड़ा है?"वे हंस पड़े थे.
वह शांत्नहीं हो पाई थी.
"तुम सोचते होगे,सुख सुविधाओं के लिये तुम्हारे पास आयीं हूं,क्यों? नहीं," उसने जोर दे कर यकीन दिलाना चाहा था," यह सब तो तब भी कुछ अंशों में मिल ही जाता ,यदि मैं किसी और के साथ ब्याही जाती."’ब्याही’ शब्द पर जोर दे कर उसे संतोष मिला था.
रात कड़ुआहट में बदल रही थी.
"अच्छा ,अब दो दिनों के लिये आया हूं इसी तरह लड़ोगी?" उनका वाक्य था या चुम्बक?वह सारा आक्रोश भूल कर उनसे चिपक गयी थी.वह जो पूछना चाहती थी कि क्या वे अपनी पत्नी के साथ हुई किसी तत्सम घटना पर भी ऐसी ही प्रतिक्रिया व्यक्त करते,नहीं पूछ सकी.उसे लगा था ,वह पहली बार समझदार हो गयी है.सब कुछ कह देने के बजाय कभी कभी चुप रह जाना आपसी तनाव को ढीला कर जाता है.टकराने की तुलना में टाल जाना उसे बेहतर निर्णय लगा था और उसने निर्णय ले लिया था.उस रात की मिय़्हास सुबह तक नहीं भूल पायी.उनके बीच की मानसिक दूरी शारीरिक सामीप्य्के कारण पिघल गयी थी.और वही सामिप्य सच लगने लगा था,जिसे उसने कुछ दिनों पूर्व उम्र के फ़ासले के साथ जोड़ कर असहज और असंगत मान लिया था.
आज वे पहली बार उस घटना के बाद आ रहे हैं.उनको सुनाने के लिये उसके पास कुछ भी नहीं है सिवा अपने भीतर होने वाले शारीरिक परिवर्तन के.उन क्षणों को उनके साथ बांटना चाहती है पर कहीं से उसे एक अधूरापन घेर रहा है.वे इस घटना को सहज लेगें वह जानती है पर कहीं कुछ है जो उसे सहज नहीं होने दे रहा.उसे अपने ’मैं’ के साथ जीने की पूरी आज़ादी थे पर उस जिंदगी में वह खुद कहां रह पाई है.
उसकी आंखे दुखने लगी थीं उसने धीरे से करवट बदली.दरवाजा हल्की आवाज के साथ खुला और रामी भीतर 
थी.
"मेमसाहब,चार बज गये हैं .पानी तैयार है." उसके वाक्य ने उसे उठा दिया.
तैयार होते वह प्रसन्न होने का प्रयास करने लगी.सारी जिन्दगी उनकी अनुपस्थिति में एकरस हो कर ऊब का करण बन गयी थी और उसी ऊब की परिणिति थी यह उदासीनता.उनका यूं आ जाना एक सुखद व्यतिक्रम जरूर था पर दिनूं तक जीते चले आ रहे उस खोल से बाहर आने में भी तो समय लगता है न!
वह तैयार हो गयी थी,अन्तिम टच देते देते उसके हाथ रुक गये थे.दरवाजे पर वे दोनों बाहें फ़ैलाये मुस्कुराते हुये खड़े थे.वह मुड़ कर उनकी ओर लपकी.काफ़ी देर तक वे उसे चूमते रहे.वह भी बेहोश सी आलिंगनबद्ध राही.होश तब आया जब उनके हाथ रुके और उनकी हांफ़ती आवाज और बढे पेट से नफ़रत सी हो आयी.
चाय पीते सहसा वे बोले,"मराठा मन्दिर चलें?" वह खुश थी इस प्रस्ताव से.अरसे बाद बाहर जाने का अवसर मिला था.उनकी अनुपस्थिति में अकेले बाहर जाते उसे अपना आपा अरक्षित लगता.हांलाकि अब यह अनुभुति उनके साथ जीने के बावजूद जुड़ चुकी है.
शो शुरु हो चुका था.अंधेरे में अपनी सीट टटोलते दोनों बैठ गये.हड़बड़ी में उसका हाथ पास की सीट पर बैठे व्यक्ति से छू गया थाऔर उसने हाथ खींच लिया था.सारे समय वे अपने हाथ से उसकी कमर घेरे ही रहे.वह चुपचाप पर्दे की ओर आंखे गड़ाये बैठी रही .मध्यान्तर र्में वे उठे.वह साल ओढे बैठी रही.सहसा किसी के स्पर्श से चौंक गयी.
’अतुल!’वह चौंक उठी.एक हर्षमिश्रित आश्चर्य से उसकी आंखें फ़ैल गयीं."तुम"
उसके स्वर के आश्चर्य पर वह हंसता हुआ बोला."हां अलका,इधर टी. आई .एफ़. आर.में पिछले महीने ही एप्वाइंट्मेंट हुआ है.फ़िल्हाल लाज में हूं."
"तुम कैसी हो.बहुत दुबला गयी हो." उसने सारी बातें व्यग्रता से कह सुन लीं.वह अपने शब्द तलाश रही थी.उसके स्वर में वही स्नेह,वही आत्मीयता बरकरार है ,जिसने उसे पागल कर रखा था.उन दिनों कितनी बार उसका जी चाहा था कि इस आत्मीयता के सैलाब से अभिभूत हो कर वही घिसा पिटा पुराना वाक्य दोहरा दे जो सदियों से चला आ रहा है,पर कभी बूढा नहीं हुआ.’नायंभूत्वा.....’ उसे गीता याद आने लगी. पता नहीं क्यों अतुल के पास होते ही उसे अच्छी अच्छी बातें याद आने लगती हैं?वरना उनके पास जाते ही डबल बेड के सिवा कुछ नहीं सोच पाती.
वे कब आये पता ही नहीं चला.वह उनसे बेखबर उससे बातें पूछती रही थी.उसका अतीत लौट आया था.फ़िल्म शुरु हो गयी थी और अतुल उससे विदा ले कर अपनी सीट पर लौट गया था.जल्दी में उसका पता भी नहीं पूछ पायी थी.खैर फ़िल्म खत्म होते ही ,मिल कर पूछ लेगी.उसने अपने को आश्वस्त करते हुये सोचा.चुप थे वे.
" पहचान का था क्या?"उसकी ओर मुड़ कर उन्होंने सवाल किया.वह पर्दे की ओर देख रही थी .उसे समझने में देर लगी कि सवाल उससे किया गया है.वरना वह उसे भी फ़िल्म का एक डायलाग समझ बैठी थी.
"हां,हमारे ही शहर का है" अंधेरे में उसकी आंखें चमक गयीं.
वे चुप रहे.थोड़ी देर बाद उन्होंने धीरे से कहा," सिर में दर्द होने लगा है,चलें"
उनके इस अचानक सिर दर्द का कारण वह नहीं समझ पायी.पिक्चर खत्म होने के घंटे भर पहले वे उठ आये.सीढीयां उतरते वक्त उन्होंने उसके कंधे का सहारा लिया.वह चुचाप चलती रही.वे कार चलाते वक्त मौन थे.उनके मुंह में रखी सिगरेट को उसने आदतन जला दिया.
"यहां रहता है क्या?"वे कड़ी दोबारा जोड़ना चाहते थे शायद.पूछ क्यों नहीं लेते एक बार में सब कुछ? पर उसने थूक निगलते हुये कहा ,"हां"
चुप्पी फ़िर पसर गयी.रात वे चुचाप लेट गये.वह इस चुप्पी से आश्वस्त थी.उनके सवालों के पैनेपन को झेलने में अब स्वयं को अक्षम पाने लगी है वह.उसने उनका सूट्केस तैयार किया.कल ही सबेरे उन्हें हफ़्ते भर के लिये फ़िर जाना था.
वे छत की ओर एकटक देख रहे थे.और दिन होता तो वे इतनी देर बर्दाश्त नहीं कर पाते.
" बहुत अच्छा लगता है न वह?"
उनके स्वर में एक खास किस्म की उत्तेजना थी पर उसका यकीं था कि वे उत्तेजित होने वाली उम्र से कई मील के पत्थर आगे आ चुके हैं.उसका मन हुआ कि चीख कर पूछे कि ,’हां तो क्या कोई नियम है क्या कि मुझे आपके बिजनेस पार्टनर ही अच्छे लगें?" पर चीख नहीं सकी.वे जवाब पाने के लिये निरुद्विग्न से लगे.वह जानती है,यह कोशिश उनके तमाम उम्र के अनुभव की उपज है.पर उनकी परेशानी वह साफ़ अनुभव कर रही थी.वे मानो उस उम्र में लौट जाना चाहते हों,जहां अपने और प्रियजन के बीच में के किसी तीसरे के एह्सास मात्र से मन ढेरों काल्पनिक दुखों,घटनाक्रमों से बोझिल होने लगता है.और अपने विकल्प हो जाने के एहसास मात्र से तीखा हो जाता है.शायद वह उसी उम्र को उधार ले कर जीना चाहती है.उसे भीतर कहीं हल्की खुशी हुई. परिणाम चाहे जो हो ,पर उनके भीतर उफ़नते हुये उस एहसास से वह भीतर ही भीतर अभिभूत हो उठी.उनके चेहरे की झुर्रियां ,सफ़ेद चमकते बाल,बढती तोंद ,सब उसे नार्मल लगे.
वह मुस्कुरा दी.उसने उनके पास जा कर उनका चेहरा अपने हाथों में ले लिया.
"आपसे ज्यादा नहीं".यह वह बोल रही थी.वह हंस दिये-धीमे से किसी आश्वस्त बालक की तरह.उसके सामने वे थे,एक नये चुनौतीपूर्ण ढंग में.इसे झेलना उसे सुखद लगने लगा था.



                                 
 छायाचित्र---सुंदर अय्यर

Friday, September 16, 2011

कुछ पुस्तके सुमति जी के कलेक्शन में से...

१. १९७८ की श्रेष्ठ कहानियां--सम्पादक डा. महीप सिंह
२. राग परिचय,भाग३---हरिश्चद्र श्रीवास्तव
३ नीत्शे--जरथुष्ट्र ने कहा था---प्रस्तुति मुद्राराक्षस
४. पिता और पुत्र---इवान तुर्गेनेव
५. कविता नहीं है यह---अनिल जनविजय
६. प्रश्न और प्रश्न---[ललित निबन्ध]--जैनेन्द्र
७. बत्तीसवीं तारीख--हबीब कैफ़ी
८. तब भी यह देश चल रहा है---अजातशत्रु
९. आधुनिक हिन्दी भाषा और साहित्य--- प्रभाकर माचवे
१०. स्त्री उपेक्षिता--सीमोन द बौउवार
११. कविता का व्योम और व्योम की कविता--- मदन सोनी
१२. गीत गंगा---सं. गीता चौहान
१३. बयान--श्रीमती कमल कुमार
१४. आधुनिक भव बोध की संग्या---अम्रित राय
१५. निठल्ले की डायरी---हरिशंकर परसाई
१६. अधखिला गुलाब---ग्यान प्रकाश पाठक
१७. पूर्व वेला--इवान तुर्ग्नेव
१८. ग्राम सेवक---विश्वेश्वर
१९. अनायक---हबीब कैफ़ी
२०.भर्तहरि शत्कम---स्वामी जग्दीश्वरानन्द सरस्वती
२१. हिन्दी भाषा का इतिहास-- धीरेन्द्र वर्मा
२२. भाषा विग्यान-- डा. भोलानाथ तिवारी
२३. भारतीय नाट्य परम्परा-नेमिचन्द्र जैन
२४. आ नन्द तेरी हार है--वीरेन्द्र आस्तिक
२५. असली इन्सान--बोरीस पोलेवाई
२६. चाबी का गुड्डा-- उषा देवी विजय कोल्हट्कर
२७. भारतीय संस्क्रिति की पावन गंगा---डा.निजामुद्दीन
२८. बघेलखंड के लोकगीत---लखन प्रताप सिंह
२९. कुमार गंधर्व-- सं अशोक बाजपेयी
३०. भारतीय सौन्दर्य्शास्त्र की भूमिका-- डा.नगेन्द्र
३१. मेघदूतम---व्याख्याकार-- आचार्य श्री शेषराज शर्मा रेग्मी
३२. भार्तीय रंग्मंच--आद्य रंगाचार्य
३३. संगीत बोध-- डा> शरच्चन्द्र श्री धर परांजपे
३४. भारत भवन ,कलाओं का घर-- ध्रुव शुक्ला
३५. समय की शिला पर--- फ़णीश्वर नाथ रेणु
३६.भारतेन्दु समग्र
३७. सोबती एक सोहबत-- क्रिष्णा सोवती
३८. छायावाद की काव्य साधना-- प्रोफ़ेसर क्षेम
३९. आदिकाल की भूमिका-- पुरुषोत्तम प्रसाद असोपा
४०. साहित्य चिंता-- डा. देवराज
४१. तीसरी सत्ता---गिरिराज किशोर
४२. पालि साहित्य का इतिहास---डा. राज किशोर सिंह
४३. कुमार सम्भव-- व्याख्याकार प्रद्युमन पांडे
४४. आधुनिक साहित्य और कला---महेन्द्र भटनागर
४५. आचार्य शुक्ल सन्दर्भ और द्रिष्टि---डां जग्दीश नारायण ’पकंज’
४६. सूर संचयन-- डां मुंशीराम शर्मा
४७. मैथिली नाटक और रंगमंच-- डां प्रेमशंकर सिंह
४८. भारतीय संस्क्रिति-- बाबू गुलाब राय
४९. इस यात्रा में---लीलाधर जगूड़ी
५०. मछलीघर--- विजय देव नारायण साही


ये सारी पुस्तके कल ’अनुराग ट्रस्ट’ के पुस्तकालय को पहुंचा आये.सुमति जी को अच्छा लगेगा अपनी पुस्तकें सुधि पाठकों के हाथों में देख कर.



Saturday, August 20, 2011

किताबों से मोह एकदम अलग बात है.उन्हे पढ लेने के बाद,एक नहीं कई कई बार शुरु से आखिर तक पलट लेने के बाद भी उनसे मोह खत्म नहीं होता.ऐसा भी होता है कि अलमारी मे सजी,या स्थान की कमी के कारण कई बार बक्से में बंद किताबों तक कई बार हम एक लम्बे अरसे तक पहुच नहीं पाते पर उनके होने का एह्सास ही सुकून पहुचाने को काफ़ी होता है.पर हमे लगता है कि किताबे इकठ्ठा करने वाले कमोबेशी हर व्यक्ति की जिन्दगी में या उसकी जिन्दगी के बाद एक ऐसा समय आता है कि वह खजाना दूसरे हाथो मे सौपना पड़ता है.बहुत तकलीफ़देह होता है यह समय.वैसे देखा जाय तो किताबों की सर्थकता इसी मे है कि उन्हें अधिक से अधिक लोग पढ सके लेकिन किताबों से सही ढंग से प्यार ,उनको सही ढंग से सहेजने वालो की संख्या कम होती है.इस विरासत के लिये वारिस ढूढना आसान नही होता.


हमारे पास भी किताबों का एक बड़ा संग्रह है और इसमे काफ़ी किताबें सुमति जी की विरासत हैं जो उनके बाद हम तक पंहुचाई गयी थीं .हमने भी उन किताबों को सहेजा.किताबों के साथ साथ उनके होने का एक एह्सास भी जुड़ा है.इनमे से कुछ किताबे उन्हें किसी अवसर पर किसी ने भेंट की थी तो बहुत सी स्वंम लेखक /कवि द्वारा उन्हे अपने हस्ताक्षर सहित दी गयी थी.कितनी स्म्रितियां ,कैसी यादें.पर यह कागज कलम के जरिये ही सम्भव हुआ.e-books के जरिये ऐसी यादों को कैसे जिन्दा रखा जा सकेगा.अब परिवर्तन तो अवश्सम्भावी है तो यह तो होना ही है---विलुप्त होते सार्वजनिक पुस्तकालय और वाचनालय ,नज़र न आती पत्रिकायें ,किताबे.




आइये देखें सुमति जी के संग्रह की कुछ किताबें---


















ये कुछ यादें हैं लोगो की,तारीखों की----पता नहीं इनमे से कौन ,कहां है पर कुछ भावनाओं ,थोड़ी बहुत जान -पहचान और जीने के सबब की धरोहरें हैं .ऐसी न जितनी कितनी पुस्तकों का खजाना है.नाट्य शास्त्र,संगीत,भाषा विग्यान,उपन्यास,कहानी,कवितायें,लेख,समीक्षा......................








Saturday, June 11, 2011

’प्रका्रान्तर’ ,लघु कहानियों का संकलन है ,जिसका सम्पादन रूप सिंह चन्देल ने किया है.इसका प्रथम संस्करण १९९१ में प्रकाशित हुआ था.प्रकारान्तर में लघु कथाओं को पूर्व आयाम एवं उत्तर आयाम दो भागों में संकलित किया गया है.पूर्व आयाम में प्रेमचंद,रामधारी सिंह दिन्कर,जयशंकर प्रसाद से ले कर उपेन्द्र नाथ ’अश्क’ और विष्णु प्रभाकर जैसे ह्स्ताक्षर हैं तो उत्तर आयाम में बहुत से नवोदित हस्ताक्षरों का परिचय भी है.इन्हीं में एक नाम सुमति अय्यर का भी है.


सुमति जी की कयी लघु कथायें हम इससे पहले वाली पोस्ट में पढ चुके हैं इसलिये यहां केवल”प्रशस्ति पत्र’ को ही पढेगे हम.प्रशस्ति पत्र हमारे नियम कानून आदि के खोखले पन पर एक सशक्त प्रहार है.तो आइये चले कहानी की ओर.....................




वर्ण संकर विवाह था उसका.वर ब्राहम्ण ,वधु हरिजन.सरकार की ओर से सम्मान और प्रशस्ति पत्र दिया गया था.विवाह की तस्वीरें अखबारों में छपीं.कैमरे के फ़्लैश और अखबारों की सुर्खियों के बीच जीवन की शुरुआत हुई.समझदारी भरी शुरुआत थी इसलिये जीवन चल निकला.
सीमित परिवार था .एक बेटा और पति -पत्नि.लड़का अव्वल रहा पढने में.पढाई पूरी करता कि खुशियों को ग्रहण लग गया.वह एक दुर्घटना में चल बसा.लड़के ने पिता को मुखाग्नि दे घर की जिम्मेदारी उठा ली.
आवेदन......साक्षात्कार.......रिजेक्शन.............यही क्रम उलट फ़ेर कर चलता रहा.कहीं जाति आड़े आती तो कहीं अनुभव.
वह जगह आरक्षित थी पर उसने जाति के आगे हरिजन लिख दिया था.बुलावा आया.
" मेरी मां हरिजन थी-----" उनके प्रश्न पर उसका तर्क भरा विरोध था."सरकार का दिया प्रशस्ति पत्र है हमारे पास."
" होगा पर आपके पिता ब्राहम्ण हैं,आप ब्राह्म्ण ही माने जायेगे.सारी,यह वैकेन्सी आरक्षित है."
वह भरपूर गुस्से में घर लौटा.दीवार पर टंगे प्रशस्ति पत्र को जमीन पर दे मारा और फ़ूट फ़ूट कर रो पड़ा.
कहां से खोजेगा वह बिन्दु जो प्रशस्ति पत्र और आज की इस असफ़लता के बीच के अंतराल को सही समीकरण दे सके.?




लघु कथा में शिल्प का महत्व तो होता है पर हमारे विचार से कथ्य,कसाव और सोच का समानुपातिक समिश्रण ही पाठक को पकड़ भी सकता है और झकझोर भी.


Thursday, June 2, 2011

’सचिन कोश माला’ के अन्तर्गत प्रकशित ’हिन्दी लघु कथा कोश’का सम्पादन बलराम ने किया था.इसमे तकरीबन पचास कहानीकारों की लघु कथायें संकलित हैं.प्रथम संस्करण १९८८ में प्रकाशित हुआ था.इसमें जय शकंर प्रसाद और नासिरा शर्मा आदि की भी लघु कथायें सम्मिलित हैं.सुमति अय्यर की भी कुछ लघु कथायें इसमें हैं.आज तो’माइक्रो फ़िक्शन ’ का जमाना है.५५ शब्द,२० शब्दों में कहानियां कही जा रही हैंऔर ठीक भी है ,मोटे मोटे उपन्यास और लम्बी लम्बी कहानियां पढने का समय ही किसके पास है और जिनके पास समय है उनकी नजर धुधंला रही है.लेकिन अभिव्यक्ति पर ऐसी राशनिंग क्या रचना के लालित्य को,रस को प्रभावित नहीं करती.कम शब्दों में बात पूरी कर देना एक ’आर्ट’ है ,यह तो हम मानते हैं पर यह जरूरत पूरी कर देने भर जैसा नहीं लगता.खैर छोड़िये यह एक बिल्कुल अलग मुद्दा है और जाहिर है अलग अलग विचार और तर्क भी होंगे इस पर.
किसी भी कला में अभिव्यक्ति के कई तरीके होते हैं और नये नये प्रयोग ,समय के अनुसार परिवर्तन उसे जिलाये रखने के लिये ,आगे बढाने के लिये जरूरी है.लघु कथा तो हिन्दी कहानी का काफ़ी पुराना अंग है शायद तब से जब दादी -नानी द्वारा कहानियां सुनाना रोज की जिन्दगी का एक जरूरी हिस्सा होता था.तब भी ’एक था राजा ,एक थी रानी ,दोनो मर गये खतम कहानी’जैसी लाइन खासी प्रचलित हुआ करती थी और यह शायद एक प्रमाण है कि लघु कथा की आवश्यकता  हर समय अनुभव की जाती थी.
इस संकलन में सुमति जी की दस कहानियां हैं ,जो १९८४ से १९८७ के बीच लिखी गयीं थीं
सिर्फ़ एक बिंदु-१९८४, पोस्टर,अपमान,दिन्नान्त-१९८५,सलीब,दायित्वबोध-१९८६.दर्पन,हत्यारा,पुरस्कार,पेंशन-१९८७.
तो आइये चले उस दसक की ओर.....

                                                       सिर्फ़ एक बिन्दु                                                      
कोई शाम हो या रविवार पूरा घर टी.वी. के आगे होता.अम्मा,दादी,बुआ,बाउ,छुन्नु,बिन्नी और वह.सीरियल के शीर्षक गीत हों या विग्यापनों के जिंगल,सबकी जुबान पर तैरते.गोदरेज का स्टोरवेल,लिरिल,ताजमहल चाय,ललिता जी का सर्फ़,माया अलग का प्रामिस या जयंत
क्रिपलानी की ऊषा,झटपट बिछने वाला मोदी कार्पेट हो या झटपट तैयार होने वाला मैगी नूडल्स-सबकी आंखे खिलती,चमकती,हंसती सिकुड़ती रहती.देखना उनकी आदतों में शुमार हो गया था.पर स्कूल में उसने देखा कि कुछ सह्पाठियों के रोजमर्रा जीवन में ये चीजें शुमार होने
लगी थीं.कितना मन होता सबेरे उठ कर  मां सवाल करे...
"आज मेरा बेटा क्या खायेगा और वह सांस खींच कर कहे आलू मटर....
और ढेर सारे मटर..."
शाम लौटे तो कहे
"ममी भूख लगी है"
"बस दो मिनट" और नूडल्स भरी प्लेट आंखों के सामने तैर जाय.
पर मां सुबह उठते ही कहती:"उठना नहीं है क्या?चलो उठो चाय रखी है,पी लो."
लिहाजा शाम लौट कर एक दिन विग्यापन की तर्ज पर भूख लगने की बात चिहुंक कर कही थी.
सिलाई मशीन पर झुकी अम्मा झल्ला उठी थी.
"नासपीटे को न जाने कितनी भूख लगती है.स्कूल से आया नहीं कि पेट का चूल्हा सुलगने लगता है.जाओ ,पराठे रखे हैं.भकोस लो."
वह चु्पचाप बैठ गया.कहां गलत था वह?क्या सिर्फ़ उसके ही घर ऐसा होता है कि सफ़ेद काली रोशनी के साथ पसरने वाले सपने टी.वी.के बंद होते ही-रौशनी के बिन्दु में सिमट कर लौट जाते हों.


नहीं सिर्फ़ उसके घर नहीं.टी.वी. के शुरुआती दौर में इसका तिलिस्म कुछ और ही था.रोजमर्रा की कतर र्ब्योंत में फ़ंसी जिन्दगियों को जैसे सपनों की दुनिया की ओर खुलती एक खिड़की नसीब हो गयी थी.ब्लैक एन्ड व्हाइट स्क्रीन भी न जाने कितनी जिन्दगियों में रंग घोलती थी.वह संसार जो अधिकांश लोगो की पंहुच से बहुत दूर हुआ करता था,टी.वी. खुलते ही जैसे उनके बीच आ बैठता था.केवल एक दूरदर्शन का एक चैनल और विग्यापन से ले कर डोक्युमेंट्री तक पूरे चाव से देखी जाती थी और अब वह दुनिया हमारे लिये इतनी परिचित हो गयी है कि उसने हमें उस तरह से लुभाना छोड़ दिया है.बड़ी और बड़ी टी.वी. स्क्रीन,ढेरों ढेर चैनल्स,रंगों का हुजूम पर हम उससे जैसे कहीं अलग थलग पड़े रहते हैं.हाथ में रिमोट का बटन दबता रहता है.चैनल्स की कतार दत कतार निकलती रहती है पर हमारा मन जैसे कहीं टिकता ही नहीं.क्यों भला?आवश्यकता से अधिक उपलब्धता ही कारण है या बीमारी की जड़ कहीं बहुत भीतर है या फ़िर दोनों ही. 
                        
                                पोस्टर
चौराहे पर लगा किसी नयी फ़िल्म का वह पोस्टर खासा आकर्षण का केंद्र था.अपनी रक्षा के लिये फ़िल्मी अन्दाज में कसमसाती नायिका के फ़टे ब्लाउज से झांकती नंगी पीठ और ब्रा के हुक पर झपटता खलनायक चौराहे पर लाल बत्ती के लिये रुकते वाहन चालकों की आंखों की झुंझलाहट अब चमक में तब्दील होने लगी थी.साइकिल और स्कूटर चालक आये दिन भिड़ने लगे थे.पास की मजदूर बस्ती के किशोर छोकरे खाली वक्त उस पोस्टर के नीचे आ जुटते और एक दूसरे को आंख मार,कोई फ़िकरा कसते.महापालिका के अनुसार शहर की नैतिकता को कोई खतरा नहीं था इसलिये कोई एतराज भी नहीं था.
पर एतराज महिला संगठनों को हुआ.विरोधी दल ने विग्यापन में नारी देह के प्रदर्शन के खिलाफ़ रैली    आयोजित की थी.भरपूर आक्रोश में नारे लगाती समाजसेवी महिलायें पोस्टरों को फ़ाड़ती,उन पर तारकोल पोतती चौराहे तक आ पंहुची थी.आनन-फ़ानन में पोस्टर फ़ाड़ा गया.अगुआ महिला ने पतले गले से चीखते हुये शोषण के खिलाफ़ भाषण दे डाला.पास की बस्ती इकट्ठी होगयी थी.महिला का उत्साह दूना हो गया  था.सात-आठ बरस की उस अधनंगी लड़की केसाथ फ़ोटो खिंचे.लगे हाथ मजदूरों
को बेहतर जिन्दगी देने के वादे पोस्टर की चिन्दियों की तरह बांटे गये.जुलूस आगे बढ गया.पोस्टर की चिन्दियां बटोरने लगी थी वह.
"काहे हल्ला मचाय रहीं थीं ये लोग?"सूखी छाती को चूसते बच्चे को खींच कर अलग करते हुये एक महिला ने मासूमियत से सवाल किया.
लड़की रुक गयी.आंखों में सयानापन उतर आया.
"ऊ तस्वीर वाली एक के अन्दर एक दुई जम्पर पहने रही न अम्मा और हमरे पास एको नहीं नाहीं हैं न.एही खातिर........."
लडकी ने अपनी नंगी छाती के इर्द गिर्द हाथ कस लिये और जुलूस की दिशा में मुग्ध द्रिष्टी से देखती रही.


लालीपाप  दिखा कर आंखों में सपने भरना.अखबार में जिक्र,एक विशेष तबके में चर्चा बस इतने के लिये हम कैसे बलात्कार कर लेते हैं भोले मन की दुधही ख्वाहिशों से.

                                                                                                                      अपमान

                    
स्वच्छता अभियान के अन्तर्गत उसे झोपड़्पट्टियों में जा कर स्वच्छता[पर्सनल हाईजिन]का महत्व
समझाना था.उसने झोले  में साबुन की टिकियों के साथ साथ समाज सेवा के सपने भी भर लिये.
दोपहर का वक्त लगभग सभी झोपड़ियां खाली थीं.एकाध बच्चे जरूर धूल में खेल रहे थे.मां बाप की
अनुपस्थिति से बेखबर उसकी उपस्थिति भी वहां बेमतलब ही रही.निराश लौटने लगी थी कि इत्तफ़ाक
से   एक झोपड़ी खुली मिल गयी.
मैली कुचैली साड़ी में लिपटी एक किशोरी.उसके छोटे दो अदद बच्चे.बीड़ी के बंडल बना रहे थे.फ़टाफ़ट
चलते हाथ उसे देख कर रुक गये.वह आने का मकसद समझाने लगी.स्वास्थ्य विभाग का वही रटा
रटाया भाषण.झोले से महकता साबुन निकाल लिया.बच्चों का कौतुहल जाग गया.किशोरी की ललचायी आंखें भी उसके हाथ के साबुन पर फ़िसल गयीं.एक बच्चे ने उसे हाथों में ले लिया सूंघा और रख दिया.
"पर हमारे पास पैसे नहीं हैं,"किशोरी ने कहा."नहीं ,यह तो हम मुफ़्त में दे रहे हैं."उसने साबुन की
टिकिया उसके आगे रख दी.
एक अधेड़  उम्र की औरत कमर और सिर पर घड़ा लिये भीतर आयी.लड़की ने सिर का घड़ा उतार लिया.
कमर के घड़े को जमीन पर रख कर सुस्ताने लगी."देखिये ,मैं स्वास्थ्य केंद्र से आयी हूं..."उसने अपना रटा रटाया भाषण फ़िर शुरू कर दिया.बच्चों के बंडल बनाते हाथ रुक गये.कभी उनकी आंखे साबुन की टिकिया को देखतीं ,कभी मां को.चेहरे को आंचल से पोंछते हुये उसने बच्चों को झिड़क दिया,"जल्दी हाथ चला .शाम तक तीन सौ बंडल बनाने हैं.फ़ालतू बातों का वक्त नहीं हैं यहां."
फ़िर उठ कर चूल्हे के पास चली गयी.उसने एक बार बच्चों की ओर देखा फ़िर साबुन की टिकिया वहीं छोड़ कर बाहर निकल गयी.
"आ जाती हैं झोला लटकाये.अरे तीन मील चल कर पानी लाने को परी तौ जानें.हिंया पीने का पानी
लाये मा ही कमर टूट जात है,नहाने की एय्यासी कौन करे.कोइ पूछे उनसे."साबुन की टिकिया
बाहर नाली में आ गिरी.उसका चेहरा लाल होगया.उसे लगा उस औरत की गालियों ने उसे इतना
अपमानित नहीं किया जितना झोले में भरे सपनों और साबुन ने.


और देखो ,अपमान भी हमेशा नेक इरादों के ही हिस्से आता है.या फ़िर कहें कि पोस्टर की बच्ची अभी उम्र के उस पड़ाव पर थी जब भरोसा करना मन की स्वाभाविक प्रक्रिया होती है पर जब यथार्थ  कुनैन से कड़ुये घूंट पिलाता है,जिन्दगी के अनुभव,नंगी सच्चाइयां थप्पड़ मार मार भरोसे की दिशा से मुंह मोड़ देते हैं तब नेक इरादे भी मुंह चिढाते लगते हैं
               
                                  दिनान्त

वर्षों से युद्ध चल रहा था.शहर खंडहर में तब्दील हो गया था.न खेत थे ,न जंगल बस; झाड़ थे झुलसे.भुमि के नीचे एक समानान्तर शहर उग आया था.वही जन्म,म्रित्यु,प्यार,नफ़रत,निराशा,आशा...
गो कि एक पूरी दुनिया थी.--पर फ़ूल पत्तियों,सूरज तारों वाली कतई नहीं.वहां सिर्फ़ हथियार बनते थे.
देर रात ,उस अंधेरी नगरी से लोग ऊपर  निकल आते.भोर होने तक कुछ लौट आते कुछ के कपड़े 
वापस आ जाते.जो छूट जाते उनकी लाशें चील कौओं के काम आ जातीं.
उस रात उसका भाई नहीं लौटा था.परेशान मां ने उसे भी अपने साथ बाहर निकाला था.जीवन के पूरे
पांच वर्षों में वह पहली बार बाहर निकला था.मिट्टी,तारे,चांद-------वह्कौतुहल से देखता चल रहा था.मिट्टी को छूने को झुका तो मां ने रोक दिया.कहा था,मिट्टी की सोंधी गंध को लाश और बारूद की गंध ने विषैला बना दिया है.वे लोग भाई की खोज करने लगे थे. भाई मिल गया वहीं,लाश की शक्ल में झाड़ियों के पीछे.भाई -जो युद्ध के खत्म होने की प्रतीक्षा में था,क्यों कि उसका यकीन पुख्ता था कि जब युद्ध के लिये केवल लाशें ही बचेगी तो युद्ध तो खत्म होगा ही.मां उसकी लाश को  
चिपका कर रोती रही  थी,फ़ूट फ़ूट कर.अब वह शेष था मां के लिये सिर्फ़ वह.
वे लोग तेजी से लौटने लगे थे.दिशायें लाल होने लगी थी."वह क्या है मां?"वह कौतुहल से देख रहा था.रौशनी की डोरियों से लटकते इस लाल गोले को पहली बार देख आंखे चौधियाने लगी थी.मां ने क्षण भर उसे देखा था फ़िर उसे गले लगा फ़ूट फ़ूट कर रो पड़ी.कैसे बताती वह इन्हीं रौशनी की डोरियों में उनका एक एक दिन गुंथता था,अब वह डोर टूट गयी है.उनके बीच कुछ नहीं रहा अब.उनके शब्द्कोष में जो कई शब्द अर्थहीन,अनावश्यक हो गये हैं,उनमे यह भी एक है.क्या करेगा जान कर इसे.


और युद्ध ही क्यों अब तो शांति या कहें ऊपरी युद्ध विराम की स्थिति में भी बहुत से शब्द बेमानी हो गये हैं.औरो की छोड़ो सूरज की ही लो---वह तो अभी वैसे ही बिना नागा आता जाता है ,उसके रास्ते पर दीवारें तो हम ही उठा रहे हैं.फ़ूल तो अब भी मुस्कुराने को तैयार हैं उनके पांव तले कंकड़ ,पत्थर हम ही बिछा रहे है,सीनों में प्यार तो अब भी उफ़नने को राजी है पर उस पर चट्टान दर चट्टान हम ही रखते चले जा रहे है.

                             सलीब
बस तेजी से कच्ची पक्की सड़क पर बढ रही थी.उस अनाम से गांव में बस रुकी.वह खाकी रंग के झोले को कस कर थामे,हांफ़ती हुई चढी थी.यात्रियों की द्रिष्टी उसके नमकीन चेहरे से फ़िसलती हुई उसके पेट की गोलाई पर जा टिकी.पूरे  दिन थे शायद.बेहद थकी सहमी लग रही थी वह.बस के भीतर के यात्रियों की मानवता जग गयी.उसके लिये जगह बन गयी.धीमे से सामने सीट पर बैठी बुढिया मुस्कुराई और उसे अपने पास बैठा लिया.
सहमी द्रिष्टी से उसने चारों ओर देखा फ़िर झोले को गोद में रख कर धीमे से सकुचाती हुई बैठ गयी.बुढिया ने जाने क्या पूछा उसने धीमे से सिर हिला दिया.यात्रियों ने ड्राइवर से संभल कर बस चलाने  को कहा.बस रेंगने लगी.अगले गांव की सर्हद पर खाकी वर्दी ने हाथ दे कर बस रुकवा ली.अगले गेट से वह भीतर आ गया.उसकी द्र्ष्टी सभी यात्रियों से होती हुई युवती के चेहरे पर जा टिकी.एक धूर्त मुस्कान उसके चेहरे पर उभर आयी.ठसक के साथ उसके सीट के ठीक सामने वाली सीट पर बैठ गया,"क्यों री छ्म्मकछ्ल्लो,कैसा चल रहा है धंधा?"
युवती ने घबरा कर आस पास देखा.फ़िर सिर झुका लिया.यात्रियों में फ़ुसफ़ुसाहट फ़ैलने लगी.
"मंदा होगा आजकल क्यों?"उसके पेट की ओर आंख से इशारा किया और हंस दिया.
युवती सिर झुकाये बैठी रही.
यात्रियों की नैतिकता अब मानवता पर हावी होने लगी.
"किसका है?कुछ पता है? इस बार का प्रश्न फ़ुसफ़ुसाहट के अंदाज में पूछा गया था.बुढिया ने हिकारत से युवती को देखा फ़िर खिसक कर खिड़की के बाहर थूंक दिया.युवती की आंखे लबालब भरी थी.मुट्ठियों में झोले को भींच लिया.
थानेदार और भी फ़िकरे कसता,पर इस बीच सरकारी अस्पताल आ गया था. युवती उठी और दरवाजे तक आ गयी.ड्राइवर ने बस झटके साथ रोकी.उसने हकबका कर हैंडल पकड़ लिया.
"उई मां "उसके मुंह से निकला .बस के यात्रियों में कोई हरकत नहीं हुई.
"मर जाती तो अच्छा था.पाप तो कटता न."सामने वाली बुढिया बडबड़ाई.
बस में अजीब सा मौन छा गया था.सबकी नैतिकता जैसे सलीब तलाशने लगी थी.--पिछले दो स्टाप पहले जगी मानवता को ठोकने के लिये.


किसी के फ़टे को सीने के लिये सुई ले कर सामने आना तो हमारी फ़ितरत है ही नहीं,हां उसमे टांग अड़ाने को हमेशा तैयार रहते हैं.कितनी उथली है हमारी नैतिकता.किसी के भीतर टीसते नासूर ,उसके अन्दर बिसूरती मजबूरी को समझने की चेष्टा तो करनी नहीं है बस सलीब पर टांगने के लिये ,फ़ैसला सुनाने के लिये हमारे भीतर का तमाशबीन जानवर मौका मिले नहीं दांत पैने करने लगता है.ऐसे में हम अपने भीतर झांकना तो कतई जरूरी नहीं समझते. 


                                       दायित्वबोध
वे दोनों ही उकताने लगे थे पार्क की बेंच पर के पनपते प्रेम से.दोनों के पास दफ़्तर की कलर्की थी,भरे घर का दायित्व था और चुने हुये सपने थे.उन सपनो का हिस्सा हर शाम पार्क की उस बेंच पर छू लिया जाता था.वे विवाह तब तक नहीं कर सकते थे जब तक दायित्व से मुक्त न हो जायें.
"इस तरह तो मैं पेन्शन गिनने लगूंगा."एक दिन पुरुष ने कहा.
"तो फ़िर?’ स्त्री के पास सिर्फ़ सवाल था ,समाधान नहीं
"इससे पहले कि तुम मेनोपाज की स्थिति तक पहुंचो ,क्या हम इस बेंच के प्रेम को किसी अकेले कमरे तक नहीं पहुंचा सकते?"पुरुष का आक्रोष भरा समाधान था.दोस्त के कमरे की चाभी ली गयी.शाम पार्क की बेंच पर नहीं दोस्त के कमरे में गुजरने लगी.तनाव मुक्त होने का तरीका आ गया.
दायितवबोध के एह्सास की चुभन अब उतनी तीखी नहीं थी.चार महीने बाद एक दिन पुरुष ने सहसा चाभी लौटा दी.और वे उसी शाम फ़िर पार्क की बेंच पर थे.
"कल तुम छुट्टी ले लेना.नीरू को मेरी स्टोप्स ले जाना है."स्त्री ने स्वीक्रिति में सर हिला दिया था.
पुरुष की हंसी में कड़ुवाहट घुलने लगी थी-"मैंने सिर्फ़ अपनेलिये सोचा था, यह भूल गया था कि घर की चारदीवारी में बंद मुझसे सिर्फ़ चार साल छोटी बहन भी-तेजी से उम्र की ढलान की ओर बढ रही है और चाभी की जरूरत तो उसे भी रही होगी."
उसका सिर अपमान से नहीं ग्लानि से झुक गया था.


इस कहानी को पढने के बाद खींच तान कर दाल रोटी चलाते कितने ही मध्यमवर्गीय लोगों की मटमैली आंखो में दफ़न धूसर होते सपने रीढ की हड्डी का दर्द बढा जाते हैं.यहां बात ख्वाहिशों और सपनों की नहीं वरन जरूरतों की है.जरूरतें केवल रोटी ,कपड़ा और मकान तक ही तो सीमित नहीं होतीं.ऐसे तीखे पन से चोट करती है यह कहानी जैसे किसी लाश को नंगा देख लिया हो.


                                   दर्पण
पेड़ के नीचे फ़ुट्पाथ पर पूरा जीवन गुजारने वालों में वह भी थी.जन्म,म्रित्यु,विवाह से ले कर जचगी तक;इसी प्रकार फ़ुटपाथ पर पेड़ के तने से बंधी साड़ी के पालने में,अगली पीढी पलती.रूखे उलझे बाल,फ़टी हुई पैबंद लगी धोती,आंखो के कोरों में कीचड़.
सुबह नुक्कड़ की दुकान की चाय से मुंह जुठार वह काम में जुट जाती.स्टील के बर्तनों का युग था पर पीतल के बर्तन अब भी कई घरों में कलई के लिये निकाले जाते थे.उसका आदमी रात को ठर्रा चढा कर सोता तो दिन चढे पड़ा ही रहता.दिन दह्कने लगता तो नुक्कड़ की दुकान से चाय और पाव रोटी ले कर वह भी काम में लग जाता.दिन ढलते ही वह चुल्हा सुलगाती.वह पौवा ले आता.खा-पी कर दामपत्य निभाते और लुढक जाते.यह था उनका जीवन.
उस दिन बंगले से काफ़ी बर्तन मिल गये.वह फ़टाफ़ट हाथ चला रही थी.तीन-चार फ़ेरों में बर्तन पंहुचाने थे.दूसरे फ़ेरे में बर्तन भीतर रखवा कर जैसे ही उसने सिर उठाया,चौंक गयी.सामने के कमरे में लगे शीशे में उसका पूरा बिम्ब प्रितिबिम्बित हो रहा था.अपने को आदमकद शीशे में देखने का यह पहला अनुभव था.रूखे बालों को हथेलियों से संवार कर वह एक मिनट घूरती रही.देह गठी है पर चेहरा?इतना रूखा,मैला-कुचैला? वह घिना गयी.
अगले फ़ेरे के पहले उसने मुंह पर पानी के छीटे मार लिये;बालों को झटक कर संवारा और जूड़ा बना लिया.कमरा इस बार बंद था ,निराश लौट आयी.काश एक बार देख पाती.खासी कमाई हुई थी आज.आदमी पूरी बोतल ले आया था.रोटी के साथ सब्जी का जुगाड़ हो गया था.उसकी आंखो से नींद गायब हो गयी थी.बार बार वही प्रतिबिम्ब.कैसे प्यार कर लेता है उसे उसका मरद.?देह पर पसरते हाथ को खीझ कर झटक दिया.
"का हुआ री ,छिनाल?"
"पूरी बोतल ले आये.ओहमा से बचाय के साबुन की टिक्की ले आते...."
"तू तो यूं भी रानी लागत है"वह फ़ुसफ़ुसाया
उसने अपने आदमी की आंखो में झांका.खूब धुली चांदनी में,उसकी आंखो में कोई झूठ नहीं नजर  आया.
बंद दरवाजे के भीतर के शीशे में वह अपना प्रतिबिम्ब जैसे बिल्कुल साफ़ देख रही थी.साबुन से महकती देह,माथे पर टिकुली.....
उसके आदमी की आंखे झूठी नहीं हो सकती .तो क्या दर्पण झूठा था?उसे लगा दर्पण की जरूरत बंगले वालों को होती होगी क्यों कि वहां साफ़ पारदर्शी आंखो के दर्पण नहीं होते.


इस कहानी का अन्त जैसे एक बून्द आशा की.तंगहाली की खराशों को जैसे चुपके से कोई पंख सहला जाय.


                               हत्यारा


यूं कहने को वह हत्यारा था पर था एकदम हंसमुख नेक दिल इन्सान. साइकेट्रिक ने उसे मानसिक रूप से बीमार करार दिया था.उसका शिकार देह विक्रय में रत वेश्यायें थीं.मानसिक चिकित्सक कीसलाह पर उसे आम कैदियों से अलग रखा गया.उसे प्रशिक्षण दिया गया.वह जेल में ही बेंत की सुंदर टोकरियां और फ़र्नीचर बनाने लगा.उसके आजीवन कारावास की अवधि कम कर दी गयी.अपने सदाचार के बल पर वह रिहा हो गया.एक स्वस्थ और सुंदर भविष्य उसकी आंखो में था.
नौकरी इतनी आसानी से नहीं मिली.उसका पिछला इतिहास कहीं आड़े आता ,कहीं जेल का प्रमाण पत्र.उसने निश्चय किया कि अब वह प्रमाण पत्र के बगैर नौकरी तलाशेगा.एक अदद नौकरी हाथ लगी.खूब मन लगा कर काम किया.उसके बनाये फ़र्नीचरों की मांग बढी.मालिक की दुकान का हुलिया भी बदलने लगा.जिन्दगी चल निकली थी.उसकी जिन्दगी में एक अदद पत्नी और बच्चा भी शुमार हो गये.
सहसा एक दिन एक ग्राहक ने उसे पह्चान लिया.वह रिटायर्ड जेलर थे.मालिक ने उसे उसी दिन बकाया थमा कर चलता किया.उसके रोने गिड़गिड़ाने क,यहां तक कि उसकी अब तक की लगन, निष्ठा,इमानदारी का भी कोई अर्थ शेष नहीं रहा था.वह टूट गया.फ़िर वही सिलसिला.....इस बार चिड़चिड़ाती पत्नी  और बिलबिलाता बच्चा साथ थे.
उस रात लाल बत्ती वाले इलाके में फ़िर दो हत्यायें हुईं.आत्मसमर्पण करते हुये उसकी आंखो में कोई 
पश्चाताप न था.पर इस बार कानून ने उसे फ़ांसी के तख्ते तक पंहुचा दिया.हत्यायें पूरे होशोहवास में की गयीं थी.निर्णय सुन कर वह हंसता दिया,हंसता रहा.....उसकी हंसी फ़िर नहीं थमी.


हत्यारा कौन वह व्यक्ति जो पूरी लगन से एक अदद ईमानदार जिन्दगी जीने की कोशिश कर रहा था या हम जो सोच के अपने निर्धारित ढांचे से बाहर नहीं आयेगे.एक गलती जिन्दगी भर की सजा ,वह भी तब जब आपको अपने गलत होने का एह्सास हो और आप अपनी गलती सुधारना चाहें.वरना डंके की चोट पर हत्यायें और अपराध करने वालो से सामना होने पर तो हम हाथ जोड़,खीसें निपोड़ खड़े हो जाते हैं.




                            पुरस्कार


वे अपने को प्रगतिशील लेखक मानते थे.उनकी मान्यता थी कि उनके लेखन से क्रान्ति एक दिन आकर रहेगी.इस उपन्यास को लिखने में उनकी बरसों की मेहनत थी.इसी उपन्यास के  लिये उन्होंने 
राजधानी के एक प्रतिष्ठित प्रकाशक से बात कर ली थी.उनका विश्वास था कि प्रकाशित होने पर उपन्यास दशक के चर्चित उपन्यासों में एक होगा.नोबल न सही ,अकादमी तो जुट ही जायेगा.प्रकाशक के माध्यम से अंग्रेजी अनुवाद और प्रकाशन का जुगाड़ भी होगा ही.
शाम सात बजे का समय मिलने के लिये तय हुआ था.निकलते निकलते साढे छः हो गये थे.तेज भागती टै़क्सी में वे व्यग्र हो रहे थे.सहसा गाड़ी झटके से रुकी.एक नन्हा बालक टकरा कर गिर गया था.वे हड़बड़ा कर उतरे.लड़का बेहोश था. अस्पताल ले जाते हैं तो पुलिस,एफ़.आइ.आर का झंझट .बच्चे के मां बाप का पता लगा कर प्राइवेट डाक्टर के पास ले जाते है तो वक्त नहीं.वे क्षणांश के लिये रुके.ड्राइवर उनकी हिचकिचाहट भांप गया.गाड़ी रिर्वस में ली.उसकी नज़र बचा कर एक दस का नोट बेहोश बच्चे की मुट्ठी में दबा दिया और टैक्सी में जा बैठे.
उनका मन जैसे हल्का हो गया था.उन्हें लगा अधिकांश लोग इसी तरह अपनी आत्मा के बोझ को हल्का कर लेते होंगे.तभी तो आत्मा हल्की होने लगी है.अब वे पुरस्कार के बारे में सोचने लगे थे.




                              पेंशन
उनकी पेंशन सहसा बंद हो गयी थी.घर की गाड़ी चरमराने लगी.डाक की गड़बड़ी के भ्रम  में दो माह निकल गये.बेटे बहु की भुनभुनाहट से तंग आ वे पेंशन दफ़्तर पंहुचे.पता लगा सरकारी कागजों के अनुसार वे गोलोकवासी हो चुके हैं.लिहाजा पेंशन बंद.तर्क करते रहे,गिड़गिड़ाते रहे..कहा गया यदि वे अपने जीवित रहने का प्रमाण पत्र दे तो विचार हो सकता है.प्रमाण पत्र मिलना आसान नहीं था.वे जहां सम्भव था आंसुओं से,नोटों से काम निकालते रहे.घर में बेटे बहु की झल्लाहट अलग से.बंधी बंधाई रकम जो पाम्च माह से नही मिल रही थी.सो एक वक्त की रोटी बंद.
किसी तरह फ़ाइल ने त्रिप्त हो कर डकार ली.आश्वासन मिला कि अगले माह से पेंशन दरवाजे पर पहुंचेगी.उछाह में लौट रहे थे.गड्ढे में पैर पड़ा और हड्डी तुड़वा बैठे.दर्द से बिलबिलाते रहे पर बेटा घरेलू इलाज कराता रहा.पन्द्रहवें दिन वे सचमुच गोलोक सिधार गये.
मनीआर्डर आया अगले माह .लौटा दिया गया.बेटा खीझ गया.मरने की जल्दी पड़ी थी.पेंशन ले कर मरता बुड्ढा.
अगले माह डाकिये की घंटी फ़िर टनटनाई.कोई पुराना बकाया’बेटे ने लपक कर सरकारी लिफ़ाफ़ा खोला.फ़ाइल के मुंह ने बंद होने के पहले म्रित्यु प्रमाणपत्र की मांग की थी.


’पेंशन ’कहानी कहां अनगिनत घरों और दफ़्तरों का सच है.बेगाने होते रिश्ते जो अमानवता की हद तक पराये हो जाते है और फ़ाइलों का चक्रव्यूह ,जहां जो गलती से लिख गया सो सच.कितनी नग्णय है आदमी की हस्ती कि उसे सामने खड़े होने पर भी अपने जिन्दा होने का प्रमाण देना पड़े................सच है केवल सांसे लेने को ही तो जिन्दा होना नहीं कहा जा सकता.


सुमति जी की लम्बी कहानियां मन की अतल गहराइयों में जा न जाने कितने अबूझ,दुरुह रास्तो तक ले जाती हैं.वहां हमे अधिकतर भावनावों का संसार मिलता है पर लघु कथायें समाजिक विसंगतियों पर चोट करती हैं .आइना दिखाती हैं



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Friday, May 20, 2011

आज अरसे बाद कितबों को एक बार फ़िर से व्यवस्थित करते हुये एक किताब हाथ लगी ’धूप की स्याही’.पुस्तक की सम्पादिका हैं उर्मिला शिरीष.कुछ महिला कथाकारों की कहानियों का संकलन है.इसमे एक कहानी सुमति जी की भी है,’मुट्ठी भर पहचान’.कहानी है मन से जुड़े अपरिभाषित सम्बन्ध की मिठास,अलग होने के दर्द और छूटी डोर के परले सिरे पर अपने आप को खोजने की चाह की.
कहानी के विषय मे बतियाने से ज्यादा मन कर रहा है उनके लिखे को जस का तस यहां संजो ले.आखिरकार यह प्रयास उनके लिखे को समेटना ही तो है.पूरी पूरी उनकी पुस्तक से अधिक सुखद लगता है यूं अचानक उनका किसी किताब या पत्रिका के पन्ने से अनायास ही बाहर आ मिल जाना.फ़िर फ़िर पढी गयी लाइने भी हर बार कुछ नया थमा जाती हैं
चलिये चले कहानी की तरफ़........

वह देर तक सीढीयों पर पसीने को झेलती खड़ी रही.उसका सारा उत्साह जैसे कपूर बन कर उड़ गया.सड़क के मोड़ से वह लगातार बालकनी को देखती आ रही थी.शायद सुवीर प्रतीक्षा मे एक बार झांक जाय.उसे लगा जैसे सुवीर को उसकी प्रतीक्षा ही नहीं हैं.अपना गैर प्रतीक्षीत होना और बालकनी का खालीपन जैसे उसे भीतर तक हिला गया.पर उसने अपने को आश्वस्त करने की पूरी कोशिश की.कितनी अजीब बात है,मन कभी कभी सम्बंधो के प्रति इतना भावुक हो उठता है कि आत्मीय की उपेक्षा को भी नजर अन्दाज करने को मचल उठता है.कलात्मक ढंग से लिखे गये हस्ताक्षर को वह देखती रही.वही चिर परिचित हस्ताक्षार’सुवीर दत्ता’.वह क्षण भर को ठिठकी और उसके हाथ अनायास ही घंटी की ओर उठ गये.एक बार बजाने के बाद जैसे उसके हाथो को ब्रेक लग गया हो.वह दोबारा बजाना चाह कर भी जैसे भूल रही थी.यह उन लोगो का कोड वर्ड था.दो बार बजाने पर तुरंत दरवाजे की बाहर खड़े व्यक्ति की पहचान उभर जाती थी और वे अपने को एक दूसरे के लिये तैयार कर लेते थे.
अन्चीन्हा भय जैसे उभर कर सामने आ गया है.
उसे लगा कहीं सुवीर दरवाजा न खोले तो?उसने दोबारा हाथ उठाया.खटाक से दरवाजा खुला.”
हाय,मोना दी.’उसका सिर उठ गया.यह आभा थी.सुवीर को देखने की उत्सुक आंखो मे हल्की निराशा तैर गयी.पर वह संभल गयी.
’हाय,आभा” उसने जबरन मुस्कुराहट को बाहर ठेलते हुये कहा.
"भीतर आओ दी,सुवीर दा नहा रहे हैं" और वह भीतर भाग गयी.
उसने धीमे से कदम रखा.दरवाजे की चौखट पर पिछली होली पर बनायी गयी अल्पना का सारा भराव धुल चुका था.खाली हल्की लकीरे बच रही थी.बड़े चाव से वह रात दो बजे तक रंग घोलती रही थी.उसे भीतर के खालीपन का एह्सास होने लगा था.
इस शहर को वह खूब पहचानती थी.वही शहर थी जहां पिछली नौकरी की चार साल गुजारे थे.हर शाम गलियों मे भटक कर चलना सुवीर की आदत थी ,जो बाद मे उसकी भी आदत बन गयी थी.पता नहीं क्यों उसे यह शहर अजनबी लगने लगा है.कल शाम जब ट्रेन धीमे से रेंगते हुये प्लेट्फ़ार्म पर रुकी थी ,तो वह सह्सा अपने को शहर की चिरपरिचित गन्ध तथा आत्मीय लोगों की गन्ध से जुड़ती मह्सूस करने लगी थी.यूं लौटना कितना आश्वासन देता है.आज सुबह से ही वह हर दुकान ,व्यक्ति और सड़क को घूर कर पहचानने की कोशिश कर रही है.पर पह्चान है कि जैसे उभरती ही नहीं.सब उसे देख कर रास्ते भर मुस्कुराते रहे पर वह चाह कर भी ऐसा नही कर पायी.उसने अल्पना को ध्यान से देखा और पह्चानने की कोशिश की.नहीं.जैसे वह अब इसे पूरा नहीं कर सकती.मनीप्लांट खूब फ़ैल रहा था.
उसे याद है हर बार नयी पत्तियों को देख कर सुवीर जेब टटोलता था.
’पैसे नहीं आये .क्या पता कहीं से कोई चेक आ जाये.’
औए वह हंस देती थी.फ़िर तो सारा दिन पोस्ट्मैन के इन्तजार मे कट जाता था.पर अक्सर सूखा दिन गुजर जाता था,तो सुवीर रात को सौ गालियां सुनाता और कहता -’कौन कहता है यह मनीप्लांट है.साला फ़ूसफ़ास है बिल्कुल.’
बाहर बिछे दीवान पर अब एक नयी चादर पड़ी हुयी थी.और उसमे एक शिकन तक नहीं.उसने धीमे से उस पर हाथ फ़ेर कर सिलवटें ठीक करने का अभिनय किया.जैसे अपने को बहलाना चाहा.धीमे से बैठक में घुस कर बैठ  गयी.कहां चला गया वह उत्साह,आते ही बैग उधर फ़ेका,चप्पल उधर और तुरन्त रसोई मे चाय बनाने चली जाती थी.जाते जाते सुवीर की लापरवाही पर सौ कमेन्ट्स करती और वह मुस्कुराता हुआ कहता,’आखिर आप किस मर्ज की दवा हैं?कीजिये ना."
वह नीचे बिछे कालीन पर बैठ गयी सोफ़े की टेक लेती हुयी.कमरा उतना ही साफ़ सुथरा था जितना उसके समेय रहा करता था.साफ़ सुथरेपन से उसे ही नहीं अक्सर सुवीर को भी एलर्जी हो जाया करती थी.कभी कभी जमी हुयी धूल,अस्त व्यस्त पड़ी पुस्तकें जैसे सुकून देती हैं.पूरे व्यव्स्थित कमरे में जैसे हम भी सोफ़ा सेट हो जाते हैं.’मोनू मैं नहीं रह सकता ऐसे’ और दोनों बेतहाशा ठहाके लगाते.कितनी बार व्यस्थित फ़िक्स्ड डिपाजिट वाली  जिन्दगी जी रहे दोस्तों के घर से वे लोग उठ जाया करते थे की वहां उनका दम घुटने लगता था. 
पर अब ?एक कण धुल नहीं ,न ही  फैली हुयी किताबें .उसने सर सोफेपर टिका लिया.और सारी पेंटिंग्स  गौर से देखने  लगी  थी. सारी पेंटिंग्स से जुड़े सन्दर्भ उसे परेशान करने लगते हैं .अक्सर सुवीर ने उससे झगड़ने के बाद ये पंटिंग्स बनायी हैं.वह सारी  नाराजगी और कहीं नहीं कैनवास पर उतारता था.पुरजोर गुस्से में लाल और काले रंगों को घोलता था.और वह चप्पल पहन कर पूरी कोलोनी में बेमतलब चक्कर लगा कर लौटती तो दोनों नोर्मल मूड में  होते थे.
वह अतीत से फिर जुड़ने लगी .अतीत का छोटा सा भी हिस्सा पकड़ में  आये तो उसे छूने को मन ललकने लगता है.अतीत जैसे कही नहीं गया है ,उसके भीतर ही घुल कर अशेष बन गया है और न तो वह ख़त्म ही होता है ना ही  लौट कर आता है.
आभा पास आ कर बैठ गयी.इतने में सुवीर तौलिया लपेटे आ गया. अगले कमरे में झाँक कर उसे देख कर मुस्कुराया .
'कब आयी मोनिका ?बस, एक मिनट .अभी आया .'
वह सिर्फ मुसुकुरा पायी थी की उसने दरवाजा भेड़ लिया.उसे पहली बार लगा क़ि उसका नाम मोनिका है.और उसका  भी एहसास सुवीर से ही होना था .उसके भीतर की तकलीफ बदने  लगी.
वह हलके नीले रंग का कुर्ता पायजामा पहन कर कमरे में आ कर बैठ गया. 
  'दीदी को कुछ खिलाया पिलाया '
उसका सवाल आभा के लिए था .
आभा हंस दी बेमतलब और उसकी और मुखातिब हो कर बोली -
'कैसी हो दी ?'
'ठीक हूँ .'
वह उसके सवाल का इन्तजार करती रही .वह सिर्फ किताबें उलटता पलटता रहा.शायद उसे कुछ पूंछना ही न हो .
'तुम नहीं पूछोगे कैसी हूँ  ?भीतर की तकलीफ जैसे पहली बार फट पडी थी.
'इस सवाल का कोइ औचित्य है ?तुम जैसी लग रही हो सोचता हूँ ,खुश हो.'
सुवीर इतना शांत और तटस्थ कब से हो गया है?वह उसे अवाक देखती रही .क्या वह इतना ही शांत और तटस्थ               था  जब वह जा रही थी .उसका जाना उसकी जिन्दगी का एक बड़ा अभाव था और वह एकबारगी हिल गया था.आज तक उसके स्टेशन पर विदा होता वह चेहरा भूलता नहीं .चश्मे के भीतर छिपी आँखों की वेदना उसे रास्ते भर सालती रही थी .कई बार जी चाहा था लौट जाय पर लौट नहीं सकी. अपने जाने के एक पल उस एक पल को वह झेल नहीं पायी थी. उसे पहली बार लगा था क़ि निर्णय के वक्त का अहम भाव पल बीतते ही घुल जाता है और शेष रह जाती है न सह पाने की तकलीफ .
पर वह लौट न सकी.ना लौटने का ढंग उसी का सिखाया हुआ था.
उसके लिये अतीत कभी मोहक नहीं रहा था.’जो कुछ गुजर जाता है वह चाट के पत्ते की तरह होता है,खाओ और फ़ेंक दो’.वह उसकी दलील चुपचाप सुनती पर स्वंय खुद को अतीत से कभी नहीं काट पाती.जबकि वह पलक झपकते ही उसे काट कर अलग कर लेता है और हथेली पर रख कर उछाल देता है.
" चाय पियोगी न दी?"आभा ने आग्रह से पूछा.
"पी लूंगी."
"और तुम?"
"नहीं"
वह प्रिसाइज हो रहा था.आभा उठ गयी.वह उसके खुशनुमा चेहरे को देखती रही.आभा की वही अल्हड़,अनगढ चाल.वही खुशनुमा चेहरा.
"तुम दुबले लगते हो."उसने कमरे के मौन को दुबारा तोड़ना चाहा.
"बहुत दिनों बाद देखा है ना,तो लगता होउगा.वरना...."वह रुक गया.
"वरना क्या?"
"वरना अब मैं पहले से अधिक सलीकेदार जिन्दगी जी रहा हूं.खुश हूं."
"खाना पीना?" फ़ालतू सा सवाल था उसका.
"आभा है,वह सारी देख भाल कर लेती है.मैं निश्चिन्त हूं.इस बीच जितनी मदद उसने की है,मैं भूल नहीं सकता."उसका स्वर जैसे दूर से आया.
वह चुप उसे देखती रही ,शायद अगले सवाल की तलाश में.वह अधलेटा सा हो गया और उसने अपनी टांगो को धीमे से सहलाना शुरु किया.चुप्पी के क्षण गुजरने लगे.अक्सर अधिक पढ लिख लेने से भी संस्कार बन जाते हैं.खुल कर हंसना,टांगे पसार कर बैठना,सब छूट जाता है.और बची रहती है ओढी हुई सभ्यता .
वह बार बार चाहती थी उससे पूछे,"क्या वह उसकी कमी कभी मह्सूस नहीं करता.?"
पर उसे देख कर कम अज कम ऐसा नहीं लगता.
उसके लिये प्रश्न सुविधाओं का रहा है व्यक्ति का नहीं.उसकी सारी सुविधाओं का उत्तरदायित्व जो संभाल ले ,वह मोनिका हो, आभा हो या कोई भी दीपा,सीमा.जैसे कोई आफ़िशियल पोस्ट हो.
सवाल उसने किया था ." तुम्हे कैसा लगता है वहां ?"
वह चुप रही.क्या कहे वह ?उसे ही देखती रही.
" अच्छा तो लगता होगा ना.आई.ए.एस पति जो है."
यह इतना निर्दय हो सकता है? वह भीतर तक कांप गयी.
" ना कहूं तो क्या अविश्वास करोगे?"
" बात विश्वसनीय तो नहीं लगेगी."
" मेरी मांग का सिन्दूर हो या गले का मंगलसूत्र हो अगर यही खुशी के प्रतिमान हो तो यही सही.फ़िर सुख भी निहायात विरोधाभाषी और आन्तरिक होता है.कभी दे देने का या फ़िर कुछ पा लेने का."
"  तो तुम्हारे सुख के प्रमाण गलत हैं,क्यों?" वह सिगरेट जला चुका था," तो फ़िर दुःख के भी प्रमाण होंगे."
" हां, वे दिन जो मैने अकेले में रो कर कांटे हैं."
"च च..." वह जैसे व्यंग कर रहा था.वह तिलमिला गयी.
" कैसे हैं तुम्हारे आ.ए.स. पति ,आइ मीन ,अरविन्द साहेब .खूब प्यार करता होगा."
वह चुप ही रही.उसने तो नहीं पूछा सुवीर से कि मेरी जगह आभा को देख कर तुम खुश हो या तुम सुखी हो.वही क्यों उसे खींचने के मूड में है.
" तुम्हे कभी एह्सास होता है............."
वह बीच में ही टोक कर बोली," एह्सास क्षणिक होते हैं ,सुवीर.बहुत क्षणिक.एक क्षण होता है जब तुम्हारी कमी बिलकुल मह्सूस नहीं करती.कभी इस कदर कि........खैर छोड़ो,आइ एम वेरी पुअर इन मैथेमैटिक्स.अगर छूटे हुये क्षणों को मल्टीप्लाइ कर के जीने का सौदा करती तो आज कुछ और होती."
वह उसे सीधा देखने लगा था.वह नाखून के मैल को साफ़ करती हुई बोली,"कुछ क्षणों का सुख केवल तुम दे सकते हो और......"वह वाक्य पूरा करती कि उसने टोक दिया
" बाकी केवल वह दे सकता है,क्यों?"
"मैंने ऐसा तो नहीं कहा."
"पर यू मीन इट"
"हां आइ कान्ट डिनाई इट."
वह दूसरी सिगरेट सुलगा चुका था.
आभा चाय ले कर आ गयी.
" अरे तुम दोनों अभी तक तने बैठे हो.देखो ,सुवीर दा,मोनिका दी कितनी दूर से तुमसे मिलने आयी हैं और तुम हो कि तने बैठे हो.यह हमें अच्छा नहीं लगता."
वह उसे देख कर मुस्कुरा दिया.वह उठ कर रसोई की ओर चल दी.आभा भी उसके पीछे पीछे आ गयी.रसोई के दरवाजे पर उसने पारम्परिक भित्ति चित्र बनाये थे-कई जगह उनका रंग मद्धम पड़ चुका था.लगातार बारिश हुई पिछले दिनों.उसे लगा लगाव भी इसी तरह किसी भी दिन मिटने लगते हैंतो फ़िर मन जैसे चटक कर टूटने लगता है.अब उसे लगा उसका दुःख सिर्फ़ जाने का नहीं आने का भी है.उसकी भूल भी क्याथी?कुछ नहीं ,पर इसके लिए कितना बड़ा क्रोस ढोने को मजबूर है वह.
उसे याद है अपना निर्णय जब उसने सारे विरोधों और समाजिक मान्यताओं को ताक पर रख कर सुवीर के आगे दोस्ती का हाथ बढाया था.सुवीर कभी परम्पराओं और मान्यतायों को पचा नहीं पाया था.उसकी शुरुआत ही विरोध में हुई थी.परम्परागत वैवाहिक संस्था हो या प्यार जैसा रुमानी ख्वाब उसने सबको काट कर जिन्दगी शुरु की थी.पता नहीं कौन सा कोण था,जहां आ कर सारा शुरु किया हुआ जीवन रेत के महल की तरह भरभरा कर गिर गया था और रेत की चुभन लिये हुये कातर हो गया था.
उसके प्रति लगाव रख कर वह्खुश नहीं रह्सकेगी इसे उसने बखूबी पहचान लिया था,सिर्फ़ दो माह के परिचय में.पर सारी हिदायतों को अंगूठे पर रख कर उछाल दिया था.
सुवीर के सम्मोहन के आगे सारी बाते बेमानी लगने लगी थी.उसकी गलती जैसे वहीं शुरु हो गयी थी.
फ़िर वही गणित .एक बार अंक इधर उधर हो जाय तो सारा गणित गलत हो जाता है.उसने भूलों को बार बार जान कर दोहराया था.धीरे धीरे लगाव गहराने लगा था.उसने मह्सूस किया था कि जिन्दगी सुवीर के बिना चल नहीं सकती.जिन्दगी को इतना सापेक्षिक बना लेना उसे कतई बुरा नहीं लगा था.सुवीर क्या तब ऐसा था? नहीं.सुवीर की तमाम खामियों के बावजूद उसने उसे स्वीकार किया था.स्वीकार के तहत सारी अपेक्षाओं को उसके लिये अर्पित कर दिया था.पर क्या सब वैसा ही था.
" दी, आमलेट खाओगी?" आभा उसे वर्तमान में खींच लायी थी.
" अगर बना सको तो."
" हां हां बना देती हूं.क्यों नहीं." वह उत्साह के साथ प्याज काटने लगी.
" बस सुवीर दा हैं ही ऐसे दी.बुरा मत मानना.खुद इतना रोये,जिस दिन तुम्हारी शादी हो रही थी. समझा समझा कर थक गयी.अब तुम्हे देख तन रहे हैं.आखिर पुरुष हैं न."आभा हंस दी.
कितना सोचती है यह लड़की.मोना उसे देखती रही.
" अरे हां दी,सुवीर दा की मां और बहन आयीं थी.यहां रह्कर गयीं हैं काफ़ी दिन.सुवीर दा उन दिनों बहुत खुश नजर आये.याद है पहले  हांका करते थे कि वे लोग आयेंगी तो यह करूंगा,वह करूंगा.कुछ भी नहीं किया बस उन्हें देख कर उछल पड़े.
वह पूरे उत्साह के साथ सुना रही थी. सुवीर ने कभी नहीं लिखा.उसे आश्चर्य हुआ.अगर आदमी किसी के वर्तमान से अनुपस्थित रहे तो लगाव भी खत्म हो जाता है क्या?व्यक्ति तो कहीं नहीं खत्म होता फ़िर यह लगाव ही क्यों खत्म हो जाता है.
वह कमरे में आ गयी.
सुवीर लेटा लेटा कोई पुस्तक पढ रहा था.
" सुना है,अम्मा और माला दी आयीं थी.तुमने लिखा क्यों नहीं?"
" जरूरत नहीं समझी."
"क्यों"
" इसका जवाब मैं नहीं दे सकता."
"पर.."
" क्या फ़र्क पड़ता तुम पर?  तुम इतनी दूर कलकत्ते में बैठी कर भी क्या सकतीं थी.दो चार पत्र घसीट देती यही ना."
वह आक्रामक था.
उसे लगा वह उसकी जिन्दगी की तमाम घटनाओ से छिटक कर दूर छूट गयी है.और यही एह्सास विश्व् रूप लेता जा रहा है.वह इस एह्सास के भार से तिलमिला रही थी.यह क्या वही सुवीर है जिसकी सुबह की चाय भी उसके बिना नहीं पचती थी-अखबार के बगैर एक बार भले ही पच जाय,पर उसके बगैर नहीं.कभी वह आउट आफ़ स्टेशन भी रहती तोवह दो कप बना कर रखता था."पर सुवीर से पहले जैसे
 व्यवहार की अपेक्षा रखना अरविन्द के अधिकारों का हनन तो नहीं होगा?"वह सोच कर ही पागल हो जायेगी.
"पर सुवीर,शादी के लिये तो तुमने ही कहा था."
"हां, कहा था ,तो?"
"फ़िर मुझे इतना टीज क्यों कर रहे हो?तुम ना कह कर देखते क्या मैं कर लेती.?"
"पर मैंने कहा ही था तो तुम्हे क्या कर लेना था?"उसने सीधा सवाल उछाला.
वह कातर हो गयी.हां, क्या उसे कर लेना था.उसकी आंखों में आंसू आ गये.
"प्लीज ,डोन्ट क्राई नाउ.आई हैड इनफ़ आफ़ इट.इतने दिनों केअकेलेपन को मैंने अकेले सहा है.
तुम जानती हो सुबह की चाय से ले कर रात के कम्पोज तक ये खाली दीवारें कैसे काटने को दौड़ती हैं?
तुम जानती हो तेज बुखार में अकेले पड़े सिर्हाने में थर्मामीटर और आइस बाक्स रख कर बेहोश पड़े
रहने की तकलीफ़ क्या होती है?तुम जानती हो शाम भूखे घर लौटने पर गैस खत्म हो जाने का दुःख
क्या होता है?नहीं,तुम क्यों समझोगी ?समझी ही होती तो भागती क्यों?ऐसे में मुझे औरत की
जरूरत होती है."वह हांफ़ गया था.

"सुवीर ,यूं तो मैं भी तुम्हारे लिये जरूरत थी ना?तो क्या जरूरत भी व्यैक्तिक और तत्कालिक होती है.
"हां,मैं कब इन्कार कर रहा हूं"
"तुम किसी और से...."
" आइ नो व्हाट यू वांट टु से.तुम जानती हो मैं इससे ऊब गया हूं.हर बार वही कोर्ट शिप,नाम धाम ,पता देना,फ़िर रुचियां,
फ़िर काफ़ी हाउस की शाम,आई कांट पुल आन.मुझे एक बात समझ में आती है,दैट इज माई नीड.जो
मेरी जरूरत समझे,वह शर्तहीन व्यक्ति मुझे स्वीकार है.भले ही वह कोई हो.आई नीड अ वूमेन टू टेक केयर आफ़ मी."
उसने चादर फ़ेंक दी थी और हाथ पांव सीधे करने लगा था.संवाद को और खींच कर वह कड़ुवाहट को
बढाना नहीं चाहती थी.वह धीमे से उठ गयी.भीतर की हवा जैसे तन गयी थी.तनाव में जीने की
आदत अब नहीं रही.बाहर शाम उतरने लगी थी.और  पीछे खुले जंगल का हरापन उसे उसे सहला गया.
भीतर की तनी हुई हवा में जैसे उसका दम घुटने लगा था.उसने सांस को खींचा और पूरी तरह फ़ेफ़ड़ों
में भर लिया.वह जैसे ताजी हो गयी.
गमले में लगे कैकटस के पास खड़ी रही.कितना इन्तजार रहता था दोनों को इसमें फ़ूल खिलने का.
खिलता भी तो चार छः महीने में एक बार.दोंनो उसे देखते रहते.उस नन्हीं खुशी को एक दूसरे से
शेयर करने का सुख उसे आज भी याद है.
विवेक अक्सर कहता," भाई सुवीर ,इतनी सुशील लड़की है मोनिका.अगर सचमुच तुम्हें उससे इतना
प्यार है तो शादी क्यों नहीं कर लेते?"वह ठठा कर हंस पड़ता.
"विवेक,बाहर भोंपू के बजते ही भाग जाने वाली उम्र नहीं है,न ही बादल के टुकड़े को देख कर तुरंत
मेघदूत उठा लेने वाली उम्र.मैं बहुत आगे आ चुका हूं"
वह उसके जीवन में जरूरतसे फ़िलरहो चुकी थी.और इसका एह्सास उसे काफ़ी देर बाद हुआ.
उसे पहली बार लगा था सुवीर की जरूरत के लिये एक शब्द काफ़ी नहीं उसे कई पर्याय चाहिये.जब
जिसे चाहो फ़िट कर लो.वह भी फ़िलर बनी थी.पर उसे कोई दुःख नहीं था.उस बात को उसने जब
स्वीकार करने की ताकत बटोरी थी,सह्सा ही उसने उठा कर कालम ब्लैक कर दिया था.उसने एक दिन
निर्णय सुनाते हुये कहा,"मोनू सोचता हूं साफ़ कह दूं.मैं दीपा को चाहता हूं.आई नीड हर.और तुम्हारे
रहते यह्सम्भव नहीं.हम दोनों के बीच जो कुछ रह गया है ,वह एक समझौते से अधिक कुछ नहीं
व्हाई डोन्ट यू चूज अ मैन एन्ड स्ट्राट योर लाइफ़? शादी वादी मैण नहीं कर सकता.आई मे लाइक
यू,बट इट डजन्ट मीन मैरिज."
फ़िर सहसा ही उसके साथ बिताये गये चार वर्षों का अर्थ घुलने लगा था.उसे अपनी उपस्थिति गैरजरूरी
लगने लगी थी और अपना उसकी जिन्दगी में होना अनाधिकार चेष्टा.वह चुपचाप अपने बेड पर आ
गयी थी.अपने इस निर्वासन को यहीं रह कर झेलने की ताकत जैसे चुक गयी थी.फ़िर सब जैसे तय था.
उसने निर्णय लिया पूरे सप्ताह भर बाद.
अरविन्द के साथ उसका विवाह और आज दीदी से मिलने का बहाना कर पहली बार सुवीर से मिलने अकेले
दिल्ली आना.उसने सोचा आठ महीने के अलगाव ने सुवीर को व्यग्र कर रखा होगा.सब कुछ अस्त-व्यस्त होगा.
पर यहां उसकी जिन्दगी को शांत और मधुर देख कर भीतर जैसे कांच की कोई किरच चुभ गयी.
सब कुछ सहने का दावा करने के बाद भी यह एह्सास उसे भारी पड़ रहा है.सुवीर एक बार,काश एक बार
उससे कह देता,"मोनू मैं तेरे बिना नहीं रह पाता." काश एक बार उससे उसी अन्दाज में खुश खुश
बातें कर लेता.वही आत्मीयता उसे एक बार फ़िर अभीभूत कर लेती.
पर नहीं.आभा ने उसके कंधों को छू लिया.वह मुड़ी.
"अरे दी,रोरही हो?"
वह स्वंय चौक गयी.क्या होगा अपनी कमजोरी को जाहिर कर के.उसने कस कर आंसू पोंछ लिये
और कमरे में आ गयी.सुवीर के आगे नाश्ता लग चुका था और वह तन्मयता से खा रहा था.वह उसे
देर तक देखती रही.नहीं ,सुवीर पर कोई असर पड़ता नहीं दिखा.
उसने प्लेट में ही हाथ धो लिये और मुंह पोंछता हुआ बोला,"तुम रुक रही हो या जा रही हो?"
"आयी तो थी सप्ताह भर के लिये पर सोचती हूं जितनी जल्दी टिकट मिल जाय लौट जांऊ."वह
तकलीफ़ छिपा कर बोली.
"हां, अब तो ठहरने का प्रश्न ही नहीं उठता.पूरी ग्रिहिस्थिन हो गयी हो.सच है शादी के बाद
औरतें बदल जाती हैं."उसने अपना ब्रह्म वाक्य उछाला.
"तुमने खाया ,आभा.खा लो और किचन बंद कर यहां आ जाओ."उसकी सारी टोन जैसे बदल गयी थी.
कहां चली जाती है यही टोन ,जब उससे बातें करता है?क्यों इतना कांइया और रुक्ष हो जाता है उसके साथ.
क्या पाप किया है उसने.कोशिश के बाद भी उसे जवाब नहीं मिल सका.
उसने बैग संभाला.
"चल रही हो? छोड़ दू तुम्हें?"
"नहीं खुद चली जाउंगी."
"जब तक हो मिल लिया करना"
यह सपाट स्वर था. न कोई आग्रह ,न ही स्नेह का अंश.
"हूं"उसने जवाब जैसे भीतर दफ़ना लिया और आगे बढ कर पैर छू लिये.वह एक मिनट को हड़बड़ा
गया.उसका हाथ उसकी पीठ पर पंहुच गया.
"खुश रहना,मोनू."उसका स्वर भीग गया.वह जैसे भीतर तक हिल उठी.
सारी मुलाकात की कड़ुवाहट जैसे एक वाक्य ने धो दी हो और अब वह अलगाव के कई महीने गुजार
सकेगी.इस नन्हें सेसुख को वह कस कर मुट्ठी में भर लेगी.दर्वाजे के पास आ कर बोली,"कल आ
कर अल्पना ताजी कर जाउंगी ,सुवीर."
वह मुस्कुरा दिया और वह सीढीयां उतर गयी.

कितना कुछ कहती है यह कहानी आदमी के मन की सुलझी ,अनसुलझी गांठो पर.क्या है मन के खिचाव का रहस्य.हमें क्या वही चाहिये होता है जो मिल नहीं पाता.कैसा दुराग्रह है स्वीकारे जाने के प्रति.या फ़िर क्यों आड़े आता है हमारा अहम सामने वाले से स्वीकार लेने में कि उसका एक स्थान है हमारी जिन्दगी में.
एक समय था सत्तर अस्सी के दशक तक जब कला,साहित्य,नाटक आम जिन्दगी के या कहें कि समाज के एक बड़े हिस्से की जिन्दगी का अंग हुआ करते थे.खास कर हिन्दी लेखन से जुड़ा तबका व्यव्स्थित जिन्दगी को जैसे अंगूठा दिखा कर जीता था.फ़क्कड़्पना ,भले वह ओढा ही हुआ हो बौद्धिकता का एक मापदंड जैसा था.खद्दर का कुर्ता और खादी का झोला उस सोच को व्यक्त करने के तरीके थे जैसे.उस जीवन शैली को एक फ़्रेम में फ़्रीज़ कर दिया है सुमति जी ने.