इस कविता को पोस्ट तो करना चाह रहे थे ३१ दिसम्बर की शाम पर बस साल की वह आखिरी शाम वाकई कुछ चुप चाप सरक गयी और सुबह तब्दील हुई तो गीली गीली ठिठुरती सी और फिर इस कविता को पोस्ट करना टलता गया पर जैसे हर काम को अंजाम देने का एक समय होता है वैसे ही शायद हर काम के टालते जाने का भी एक निश्चित समय होता है .....तो आज शायद टलने का समय समाप्त और अंजाम देने का समय आ गया है इसीलिये कविता आज पोस्ट हो रही है .
कविता के विषय में हम कुछ नहीं कहेगे ,आप खुद ही पढ़ देखिये......
औरत होती लड़की
कितना गुपचुप बीत जाता है
साल का अंतिम दिन
औरत होती लड़की के लिए .
अल्लसुबह नल की आवाज पर
हथेलिया देख कर उठने से ले कर
रात आँखों से निकल कर
खिड़की से बाहर तैर जाते सपनों
तक
वह लड़की सिर्फ बीतती है
साल नहीं बीतता उसके लिए .
पर वह भ्रम पाल लेती है
औरो को देख कर
कि साल का यह अंतिम दिन
किसी नटखट बच्चे की तरह
उससे अच्छे और खुशहाल दिन
हथेलियों में लुका कर लाया है .
नहीं बीतेगा उसका यह साल
चावल दाल बीनते
गीली लकडिया सुलगाते
आँगन में कपडे सुखाते
सब्जी में नमक का अनुपात साधते
भाइयों के टिफिन सजाते
मा के घुटनों में मालिश करते
वह नटखट बच्चा
हथेलियों में लुका लाया है
भगौने से जली उँगलियों के लिए
ढेरो मेंहदी ,
वह बच्चा लाया है ,
रूखे बालो के लिए खुशबू वाला तेल ,
महकता साबुन ,सितारों वाला लाल लंहगा,
बिवाइयों वाले पैरो के लिए
महावर और चांदी की पायजेब
वह बेवजह चक्कर नहीं काटेगी
चौके से बैठक और बैठक से आँगन तक ,
वह बच्चा उसके लिए लाया है
घोड़े पर बैठा राजकुमार
जो उसे इस सीलन भरे मकान से
ले जायेगा ,एक गोल दुनिया दिखाने.
वह मुस्कुराती है सोच कर
आईने में अक्श देखती है
मुस्करा कर शुरू करती है
साल का पहला दिन
गोल रोटिया सेकती है
बापू की मनपसंद सब्जी बनाती है
कहानियां सुनाती है
भाइयों को
चाय के साथ पकौड़िया खिलाती है
मेहमानों को ,
वह प्रतीक्षा में है ,
वह नटखट बच्चा कुछ देर
सताने के बाद खुशहाल दिन
खोल देगा .
उसे उसके खुशहाल दिन दे देगा .
बीतते हैं दिन
बीतती है लड़की
मुट्ठियाँ नहीं खोलता
वह नटखट बच्चा
लम्बी प्रतीक्षा के बाद
बंद होता है गुनगुनाना
ख़त्म होता है मुस्कुराना
और
वह अल्हड लड़की .
सोचने लगती है
अगर सचमुच लाया है
मेंहदी ,महावर ,पायजेब ,
लाल लहंगा ,घोड़े पर बैठा राजकुमार
तो सचमुच नटखट है
वह बच्चा
गलत चीज लाया है
इस बार भी
उसे तो लाना चाहिए था
बापू की रुकी हुई वेतन वृद्धि
भाइयों के लिए कपडे लत्ते और खिलौने
माँ के लिए अच्छी दवाई ...
फिर एक बार
औरत होने लगती है लड़की
साल के अंतिम क्षण तक के लिए. सुमति जी ने यह कविता अस्सी के दशक की समाप्ती पर लिखी थी शायद ,तबसे उस लड़की की हांथो की लकीरों में ,सपनों के रंगों में कुछ फर्क आया है ? शायद ....शायद ,आँगन से चौके तक के चक्कर ,आँगन से चौके और चौके से दफ्तर और बाज़ार तक में तब्दील हो गये है .कुछ के हांथो में बस का हैंडल तो कुछ के हांथो में कार का स्टीयरिंग आ गया है पर इंतज़ार.............
{picture © sunder iyer}
.