Saturday, August 26, 2017

पुदुमैपित्तन की कहानियां

'पुदुमैपित्तन की कहानियां', इस पुस्तक का प्रकाशन, नेशनल बुक
ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित अंतरभारतीय पुस्तकमाला की श्रंखला के अंतर्गत सन् 1977 में हुआ था। पुस्तक का संपादन  श्री मी. प. सोमसुंदरम ने और मूल तमिल से अनुवाद कु. (डा.) आर, सुमति ने किया था। जी हां, ठीक समझे आप शादी से पूर्व डा. सुमति अय्यर अपना नाम ऐसे ही लिखा करती थीं,अपने पिता जी के नाम का प्रथम अक्षर अपने नाम के पहले लगा कर, जैसा कि दक्षिण भारत में प्रथा हुआ करती थी।
पुदुमैपित्तन, जिनका मूल नाम चों. वृद्धाचलम है ,का जन्म सन् 1906 एवं देहानवास सन् 1948 में हुआ था। जाहिर है उनका रचना काल भी इसी अवधि के मध्य का था और उनकी कहानियों में वर्णित सामाजिक परिवेश, पात्रों की समस्यायें, उनकी वैचारिक प्रक्रियायें सब उस समय के देश काल की परिस्थितियों से प्रभावित हैं किंतु अनूदित कहानियों से गुजरते समय हमें कहीं भी यह महसूस नहीं होता कि सुमति अय्यर की तो कलम पकड़ने की शुरुआत भी उसके कई दशकों बाद की है। पात्रों के बातचीत के लहजे हों या रोजमर्रा के काम सबको इतनी बारीकी से उकेरा गया है कि हम मूल रचना के बिल्कुल साथ चलते हुये सा महसूस करते हैं। एक अच्छे ,संवेदनशील रचनाकार होने के साथ साथ तमिल और हिंदी दोनों ही भाषाओं पर अनुवादक की बहुत मजबूत पकड़ होना और उस समय के सामाजिक परिवेश, गांव घर के वातावरण आदि में अच्छी पैठ बनाने के लिए तमिल भाषा की पुरानी पत्र- पत्रिकाओं का अध्ययन तथा लोगों से बातचीत कर स्वयं को सौंपे गये कार्य के लिए पूरी तरह तैयार कर लेना भी अनुवाद को मूल के साथ पूर्षतया न्याय करने में सहायक सिद्ध हुये हैं।

इस संकलन में सोलह कहानियां हैं.

        शापमुक्ति
        पालवण्णम पिल्लै
        रज्जु भ्रम
        बोध गुहा
        उपदेश
        उस रात
        सदाबहार फूल
        गर्भपात
        एक दिन और
1      स्वर्ण नगरी
1      स्मृति पथ
        न्याय
       शिल्पी का नरक
1     कांचना
       ईश्वर और कंदस्वामी पिल्लै
       साधु, बालिका और सीडै       


इन सोलह कहानियों में विषय वस्तु की विविधता इतनी जबरजस्त है कि हमने एक दिन में एक कहानी से ज्यादा नहीं पढ़ी।प्रत्येक कहानी की शैली भी अलग है। प्रधानता मूल चिंतन को दी गयी है।इन कहानियों से हो कर गुजरना हमारे लिए एक शिक्षाप्रद अनुभव रहा।






                                                                                      

Monday, August 14, 2017


इस ब्लॉग में इससे पहले की जो पोस्ट लिखी है उसके पीछे एक कारण था. एक फोन आया था किसी शोधकर्ता का. वे तमिल साहित्य का हिंदी में अनुवाद से सम्बंधित विषय पर पी.एच,डी कर रहे थे. स्वाभाविक ही था अक्का का जिक्र आना. इंटरनेट पर उनके विषय में जानकारी खोजते हुये वे इस ब्लॉग तक पहुंचे , फिर मेल और फोन के जरिये एक दो बार बातचीत हुई. उन्होंने इच्छा व्यक्त की कि हम अक्का के विषय में जानकारी संक्षेप में उन्हें प्रेषित कर दें, जिसके आधार पर वे अपने शोध ग्रंथ में आवश्यकतानुसार तथ्यें को शामिल कर सकें. हमने भी उनसे अनुरोध किया था कि ग्रंथ प्रकाशित हो जाने पर वे हमें उस पृष्ठ को जिसमें अक्का का जिक्र हो स्कैन कर मेल कर दें. उद्देश्य कुछ नहीं बस अच्छा लगता कि ताजा तारीखों  तक उनकी लेखनी का जिक्र हो रहा है. किंतु या तो उनका ग्रंथ अभी तक प्रकाशित नहीं हुआ है या फिर किन्हीं अपरिहार्य कारणों से, व्यस्तताओं के चलते वे हमें वह पृष्ठ अभी तक प्रेषित नहीं कर पायें हैं. चलिये, इस नयी पोस्ट का उससे कोई सम्बंध नहीं है, वह तो बस पिछली पोस्ट पर नजर पड़ी तो वह संदर्भ ध्यान आ गया.






आज  अक्का की एक कविता शेयर करने जा रहे हैं,---


देश सुलगता है

धीरे धीरे

और किसी दिन

सहसा धमाके के साथ
कोई ज्वालामुखी फूटता है
लावे की चपेट में
आ जाता है पूरा देश
तपता है देश
तपते हैं लोग
और धधकता है लोकतंत्र
फिर भी वे कहते हैं
और वे ही नहीं
सब कहते हैं
लोकतंत्र जीवित है
और इसे दोहराने को  
वे भी विवश हैं
जिन्होने मौत को
अपने पास टहलते हुए देखा है
देखें हैं धू धू कर जलते रिश्ते
चीख पुकारों और नारों के बीच
लोकतंत्र को बचाए रखने की चिंता
समूचा देश चिता बन गया हो जैसे
चिता की लपटों की तरह
सरसराती अफवाहें
अफवाहें समूह में
बदल जाती हैं
समूह भीड़ में
और भीड़ आक्रोश में
और आक्रोश
सच नहीं जानता
वह जानता है सिर्फ हत्या
हत्या व्यक्ति, सिद्धांत की नहीं
देश की, आस्था की होती है
शासन चुपचाप देखता है
क्यों कि वह परे है
इन सारे प्रहारों से
उसे तो शब्द भी नहीं छूते
नारे और व्यथा कथाएं
भला कहां छू पाएंगे
वह तंत्र फिर फिर
पनपता है
बुलेटप्रूफ कारों, केबिनों में
कहीं कुछ मिटती है तो
सिर्फ आस्था
आस्था जीने की
आस्था आदमी की
आस्था देश या धर्म की
फिर कहीं कुछ नहीं उगता
बस धुंआ सा उठता है
एक धुंध में लिपटा देश
और इस धुंए का
कोई संबंध नहीं होता
किसी खंडित आस्था से
पर वह धुंआ फैलता है
धीरे बहुत धीरे
फसल मुरझाने लगती है  
अगली पीढ़ी की
धुंआ खत्म नहीं होता
धरती बांझ होने लगती है
ढेरों दरारें छिटकने लगती हैं
मरघट से वीराने में
मुट्ठी भर लोग भी
नहीं रह जाते
कि राख हो चुकी
फसल से
फूल बीन सकें आस्था के.


हर काल - खंड में देश सुलगता है, कभी किन्हीं कारणों से, कभी किन्हीं कारणों से और सच है हर बार घायल होती है हमारी आस्था, लड़खड़ा जाता है हमारा विश्वास.इस समय हम अपने 71वें स्वतंत्रता दिवस की दहलीज पर हैं. कितना विषाक्त वातावरण है. अपने अपने संकुचित लाभ के लिए नेतागण देश का अस्तित्व ही खतरे में डालने पर आमदा हैं. निहित स्वार्थों के चलते देश का इतिहास, भूगोल बदलने में भी उन्हें कोई गुरेज नहीं है. इस सबके बीच पिस रहे हैं आम आदमी के सपने, घुट रही हैं उसकी सांसें, धुंधला रही है भविष्य की ओर तकती उसकी दृष्टि. पर हमारा यानि आम आदमी का तो सारा दारोमदार ही अपने भीतर के विश्वास और आस्था पर है. खिसक तो रहा है वह भी मुट्ठी में से रेत सा, पर सब कुछ राख हो जाने पर भी फिर फिर फूटेंगे ही नव अंकुर उसी ढेर से. नव सृजन के लिए विनाश, बनने के लिए बिगड़ना भी शायद आवश्यक सा ही प्रक्रिया है.