मित्र परिषद, कलकत्ता की भारतीय में अक्का की कविता रंग
जिन हथेलियों को
अपने हाथ में तुमने लिया था --------
मेरी हथेलियां थीं।
तुमने कहा था
विश्वास नहीं उगता
नरम हथेलियों में
उगते हैं तो सिर्फ सपने,
मैंने खोजना चाहा था --विश्वास ।
बात जो खिलाफ गयी थी
वह मेंहदी के खिलाफ थी।
तुमने कहा था----
सिर्फ मेंहदी की आड़ी तिरछी
रेखाओं में ही रंग नहीं होता।
रंग देखना है तो
घास के गट्ठर ढोती
घसियारिन की हथेलियों को देखो ।
उतरती शाम
घर लौटती घसियारिन की हथेलियां
मैंने अपने हाथ में ली,
उनमें रंग नहीं
गट्ठे पड़े थे,
तुम ठीक कहते हो--
यहां सपने नहीं
विश्वास पलते हैं ।
अब जो यह लौट रही है अपने घर
खट कर दफ्तर में दिन भर,
यह ,मैं हूं ।
क्या मैं
सच में अलग कुछ और हूं
सच कहूं
मेरी हथेलियां बांझ नहीं
इनमें विश्वास का बीजारोपण
तुमसे ही नहीं बना।