’सचिन कोश माला’ के अन्तर्गत प्रकशित ’हिन्दी लघु कथा कोश’का सम्पादन बलराम ने किया था.इसमे तकरीबन पचास कहानीकारों की लघु कथायें संकलित हैं.प्रथम संस्करण १९८८ में प्रकाशित हुआ था.इसमें जय शकंर प्रसाद और नासिरा शर्मा आदि की भी लघु कथायें सम्मिलित हैं.सुमति अय्यर की भी कुछ लघु कथायें इसमें हैं.आज तो’माइक्रो फ़िक्शन ’ का जमाना है.५५ शब्द,२० शब्दों में कहानियां कही जा रही हैंऔर ठीक भी है ,मोटे मोटे उपन्यास और लम्बी लम्बी कहानियां पढने का समय ही किसके पास है और जिनके पास समय है उनकी नजर धुधंला रही है.लेकिन अभिव्यक्ति पर ऐसी राशनिंग क्या रचना के लालित्य को,रस को प्रभावित नहीं करती.कम शब्दों में बात पूरी कर देना एक ’आर्ट’ है ,यह तो हम मानते हैं पर यह जरूरत पूरी कर देने भर जैसा नहीं लगता.खैर छोड़िये यह एक बिल्कुल अलग मुद्दा है और जाहिर है अलग अलग विचार और तर्क भी होंगे इस पर.
किसी भी कला में अभिव्यक्ति के कई तरीके होते हैं और नये नये प्रयोग ,समय के अनुसार परिवर्तन उसे जिलाये रखने के लिये ,आगे बढाने के लिये जरूरी है.लघु कथा तो हिन्दी कहानी का काफ़ी पुराना अंग है शायद तब से जब दादी -नानी द्वारा कहानियां सुनाना रोज की जिन्दगी का एक जरूरी हिस्सा होता था.तब भी ’एक था राजा ,एक थी रानी ,दोनो मर गये खतम कहानी’जैसी लाइन खासी प्रचलित हुआ करती थी और यह शायद एक प्रमाण है कि लघु कथा की आवश्यकता हर समय अनुभव की जाती थी.
इस संकलन में सुमति जी की दस कहानियां हैं ,जो १९८४ से १९८७ के बीच लिखी गयीं थीं
सिर्फ़ एक बिंदु-१९८४, पोस्टर,अपमान,दिन्नान्त-१९८५,सलीब,दायित्वबोध-१९८६.दर्पन,हत्यारा,पुरस्कार,पेंशन-१९८७.
तो आइये चले उस दसक की ओर.....
सिर्फ़ एक बिन्दु
कोई शाम हो या रविवार पूरा घर टी.वी. के आगे होता.अम्मा,दादी,बुआ,बाउ,छुन्नु,बिन्नी और वह.सीरियल के शीर्षक गीत हों या विग्यापनों के जिंगल,सबकी जुबान पर तैरते.गोदरेज का स्टोरवेल,लिरिल,ताजमहल चाय,ललिता जी का सर्फ़,माया अलग का प्रामिस या जयंत
क्रिपलानी की ऊषा,झटपट बिछने वाला मोदी कार्पेट हो या झटपट तैयार होने वाला मैगी नूडल्स-सबकी आंखे खिलती,चमकती,हंसती सिकुड़ती रहती.देखना उनकी आदतों में शुमार हो गया था.पर स्कूल में उसने देखा कि कुछ सह्पाठियों के रोजमर्रा जीवन में ये चीजें शुमार होने
लगी थीं.कितना मन होता सबेरे उठ कर मां सवाल करे...
"आज मेरा बेटा क्या खायेगा और वह सांस खींच कर कहे आलू मटर....
और ढेर सारे मटर..."
शाम लौटे तो कहे
"ममी भूख लगी है"
"बस दो मिनट" और नूडल्स भरी प्लेट आंखों के सामने तैर जाय.
पर मां सुबह उठते ही कहती:"उठना नहीं है क्या?चलो उठो चाय रखी है,पी लो."
लिहाजा शाम लौट कर एक दिन विग्यापन की तर्ज पर भूख लगने की बात चिहुंक कर कही थी.
सिलाई मशीन पर झुकी अम्मा झल्ला उठी थी.
"नासपीटे को न जाने कितनी भूख लगती है.स्कूल से आया नहीं कि पेट का चूल्हा सुलगने लगता है.जाओ ,पराठे रखे हैं.भकोस लो."
वह चु्पचाप बैठ गया.कहां गलत था वह?क्या सिर्फ़ उसके ही घर ऐसा होता है कि सफ़ेद काली रोशनी के साथ पसरने वाले सपने टी.वी.के बंद होते ही-रौशनी के बिन्दु में सिमट कर लौट जाते हों.
नहीं सिर्फ़ उसके घर नहीं.टी.वी. के शुरुआती दौर में इसका तिलिस्म कुछ और ही था.रोजमर्रा की कतर र्ब्योंत में फ़ंसी जिन्दगियों को जैसे सपनों की दुनिया की ओर खुलती एक खिड़की नसीब हो गयी थी.ब्लैक एन्ड व्हाइट स्क्रीन भी न जाने कितनी जिन्दगियों में रंग घोलती थी.वह संसार जो अधिकांश लोगो की पंहुच से बहुत दूर हुआ करता था,टी.वी. खुलते ही जैसे उनके बीच आ बैठता था.केवल एक दूरदर्शन का एक चैनल और विग्यापन से ले कर डोक्युमेंट्री तक पूरे चाव से देखी जाती थी और अब वह दुनिया हमारे लिये इतनी परिचित हो गयी है कि उसने हमें उस तरह से लुभाना छोड़ दिया है.बड़ी और बड़ी टी.वी. स्क्रीन,ढेरों ढेर चैनल्स,रंगों का हुजूम पर हम उससे जैसे कहीं अलग थलग पड़े रहते हैं.हाथ में रिमोट का बटन दबता रहता है.चैनल्स की कतार दत कतार निकलती रहती है पर हमारा मन जैसे कहीं टिकता ही नहीं.क्यों भला?आवश्यकता से अधिक उपलब्धता ही कारण है या बीमारी की जड़ कहीं बहुत भीतर है या फ़िर दोनों ही.
पोस्टर
चौराहे पर लगा किसी नयी फ़िल्म का वह पोस्टर खासा आकर्षण का केंद्र था.अपनी रक्षा के लिये फ़िल्मी अन्दाज में कसमसाती नायिका के फ़टे ब्लाउज से झांकती नंगी पीठ और ब्रा के हुक पर झपटता खलनायक चौराहे पर लाल बत्ती के लिये रुकते वाहन चालकों की आंखों की झुंझलाहट अब चमक में तब्दील होने लगी थी.साइकिल और स्कूटर चालक आये दिन भिड़ने लगे थे.पास की मजदूर बस्ती के किशोर छोकरे खाली वक्त उस पोस्टर के नीचे आ जुटते और एक दूसरे को आंख मार,कोई फ़िकरा कसते.महापालिका के अनुसार शहर की नैतिकता को कोई खतरा नहीं था इसलिये कोई एतराज भी नहीं था.
पर एतराज महिला संगठनों को हुआ.विरोधी दल ने विग्यापन में नारी देह के प्रदर्शन के खिलाफ़ रैली आयोजित की थी.भरपूर आक्रोश में नारे लगाती समाजसेवी महिलायें पोस्टरों को फ़ाड़ती,उन पर तारकोल पोतती चौराहे तक आ पंहुची थी.आनन-फ़ानन में पोस्टर फ़ाड़ा गया.अगुआ महिला ने पतले गले से चीखते हुये शोषण के खिलाफ़ भाषण दे डाला.पास की बस्ती इकट्ठी होगयी थी.महिला का उत्साह दूना हो गया था.सात-आठ बरस की उस अधनंगी लड़की केसाथ फ़ोटो खिंचे.लगे हाथ मजदूरों
को बेहतर जिन्दगी देने के वादे पोस्टर की चिन्दियों की तरह बांटे गये.जुलूस आगे बढ गया.पोस्टर की चिन्दियां बटोरने लगी थी वह.
"काहे हल्ला मचाय रहीं थीं ये लोग?"सूखी छाती को चूसते बच्चे को खींच कर अलग करते हुये एक महिला ने मासूमियत से सवाल किया.
लड़की रुक गयी.आंखों में सयानापन उतर आया.
"ऊ तस्वीर वाली एक के अन्दर एक दुई जम्पर पहने रही न अम्मा और हमरे पास एको नहीं नाहीं हैं न.एही खातिर........."
लडकी ने अपनी नंगी छाती के इर्द गिर्द हाथ कस लिये और जुलूस की दिशा में मुग्ध द्रिष्टी से देखती रही.
लालीपाप दिखा कर आंखों में सपने भरना.अखबार में जिक्र,एक विशेष तबके में चर्चा बस इतने के लिये हम कैसे बलात्कार कर लेते हैं भोले मन की दुधही ख्वाहिशों से.
अपमान
स्वच्छता अभियान के अन्तर्गत उसे झोपड़्पट्टियों में जा कर स्वच्छता[पर्सनल हाईजिन]का महत्व
समझाना था.उसने झोले में साबुन की टिकियों के साथ साथ समाज सेवा के सपने भी भर लिये.
दोपहर का वक्त लगभग सभी झोपड़ियां खाली थीं.एकाध बच्चे जरूर धूल में खेल रहे थे.मां बाप की
अनुपस्थिति से बेखबर उसकी उपस्थिति भी वहां बेमतलब ही रही.निराश लौटने लगी थी कि इत्तफ़ाक
से एक झोपड़ी खुली मिल गयी.
मैली कुचैली साड़ी में लिपटी एक किशोरी.उसके छोटे दो अदद बच्चे.बीड़ी के बंडल बना रहे थे.फ़टाफ़ट
चलते हाथ उसे देख कर रुक गये.वह आने का मकसद समझाने लगी.स्वास्थ्य विभाग का वही रटा
रटाया भाषण.झोले से महकता साबुन निकाल लिया.बच्चों का कौतुहल जाग गया.किशोरी की ललचायी आंखें भी उसके हाथ के साबुन पर फ़िसल गयीं.एक बच्चे ने उसे हाथों में ले लिया सूंघा और रख दिया.
"पर हमारे पास पैसे नहीं हैं,"किशोरी ने कहा."नहीं ,यह तो हम मुफ़्त में दे रहे हैं."उसने साबुन की
टिकिया उसके आगे रख दी.
एक अधेड़ उम्र की औरत कमर और सिर पर घड़ा लिये भीतर आयी.लड़की ने सिर का घड़ा उतार लिया.
कमर के घड़े को जमीन पर रख कर सुस्ताने लगी."देखिये ,मैं स्वास्थ्य केंद्र से आयी हूं..."उसने अपना रटा रटाया भाषण फ़िर शुरू कर दिया.बच्चों के बंडल बनाते हाथ रुक गये.कभी उनकी आंखे साबुन की टिकिया को देखतीं ,कभी मां को.चेहरे को आंचल से पोंछते हुये उसने बच्चों को झिड़क दिया,"जल्दी हाथ चला .शाम तक तीन सौ बंडल बनाने हैं.फ़ालतू बातों का वक्त नहीं हैं यहां."
फ़िर उठ कर चूल्हे के पास चली गयी.उसने एक बार बच्चों की ओर देखा फ़िर साबुन की टिकिया वहीं छोड़ कर बाहर निकल गयी.
"आ जाती हैं झोला लटकाये.अरे तीन मील चल कर पानी लाने को परी तौ जानें.हिंया पीने का पानी
लाये मा ही कमर टूट जात है,नहाने की एय्यासी कौन करे.कोइ पूछे उनसे."साबुन की टिकिया
बाहर नाली में आ गिरी.उसका चेहरा लाल होगया.उसे लगा उस औरत की गालियों ने उसे इतना
अपमानित नहीं किया जितना झोले में भरे सपनों और साबुन ने.
और देखो ,अपमान भी हमेशा नेक इरादों के ही हिस्से आता है.या फ़िर कहें कि पोस्टर की बच्ची अभी उम्र के उस पड़ाव पर थी जब भरोसा करना मन की स्वाभाविक प्रक्रिया होती है पर जब यथार्थ कुनैन से कड़ुये घूंट पिलाता है,जिन्दगी के अनुभव,नंगी सच्चाइयां थप्पड़ मार मार भरोसे की दिशा से मुंह मोड़ देते हैं तब नेक इरादे भी मुंह चिढाते लगते हैं
दिनान्त
वर्षों से युद्ध चल रहा था.शहर खंडहर में तब्दील हो गया था.न खेत थे ,न जंगल बस; झाड़ थे झुलसे.भुमि के नीचे एक समानान्तर शहर उग आया था.वही जन्म,म्रित्यु,प्यार,नफ़रत,निराशा,आशा...
गो कि एक पूरी दुनिया थी.--पर फ़ूल पत्तियों,सूरज तारों वाली कतई नहीं.वहां सिर्फ़ हथियार बनते थे.
देर रात ,उस अंधेरी नगरी से लोग ऊपर निकल आते.भोर होने तक कुछ लौट आते कुछ के कपड़े
वापस आ जाते.जो छूट जाते उनकी लाशें चील कौओं के काम आ जातीं.
उस रात उसका भाई नहीं लौटा था.परेशान मां ने उसे भी अपने साथ बाहर निकाला था.जीवन के पूरे
पांच वर्षों में वह पहली बार बाहर निकला था.मिट्टी,तारे,चांद-------वह्कौतुहल से देखता चल रहा था.मिट्टी को छूने को झुका तो मां ने रोक दिया.कहा था,मिट्टी की सोंधी गंध को लाश और बारूद की गंध ने विषैला बना दिया है.वे लोग भाई की खोज करने लगे थे. भाई मिल गया वहीं,लाश की शक्ल में झाड़ियों के पीछे.भाई -जो युद्ध के खत्म होने की प्रतीक्षा में था,क्यों कि उसका यकीन पुख्ता था कि जब युद्ध के लिये केवल लाशें ही बचेगी तो युद्ध तो खत्म होगा ही.मां उसकी लाश को
चिपका कर रोती रही थी,फ़ूट फ़ूट कर.अब वह शेष था मां के लिये सिर्फ़ वह.
वे लोग तेजी से लौटने लगे थे.दिशायें लाल होने लगी थी."वह क्या है मां?"वह कौतुहल से देख रहा था.रौशनी की डोरियों से लटकते इस लाल गोले को पहली बार देख आंखे चौधियाने लगी थी.मां ने क्षण भर उसे देखा था फ़िर उसे गले लगा फ़ूट फ़ूट कर रो पड़ी.कैसे बताती वह इन्हीं रौशनी की डोरियों में उनका एक एक दिन गुंथता था,अब वह डोर टूट गयी है.उनके बीच कुछ नहीं रहा अब.उनके शब्द्कोष में जो कई शब्द अर्थहीन,अनावश्यक हो गये हैं,उनमे यह भी एक है.क्या करेगा जान कर इसे.
और युद्ध ही क्यों अब तो शांति या कहें ऊपरी युद्ध विराम की स्थिति में भी बहुत से शब्द बेमानी हो गये हैं.औरो की छोड़ो सूरज की ही लो---वह तो अभी वैसे ही बिना नागा आता जाता है ,उसके रास्ते पर दीवारें तो हम ही उठा रहे हैं.फ़ूल तो अब भी मुस्कुराने को तैयार हैं उनके पांव तले कंकड़ ,पत्थर हम ही बिछा रहे है,सीनों में प्यार तो अब भी उफ़नने को राजी है पर उस पर चट्टान दर चट्टान हम ही रखते चले जा रहे है.
सलीब
बस तेजी से कच्ची पक्की सड़क पर बढ रही थी.उस अनाम से गांव में बस रुकी.वह खाकी रंग के झोले को कस कर थामे,हांफ़ती हुई चढी थी.यात्रियों की द्रिष्टी उसके नमकीन चेहरे से फ़िसलती हुई उसके पेट की गोलाई पर जा टिकी.पूरे दिन थे शायद.बेहद थकी सहमी लग रही थी वह.बस के भीतर के यात्रियों की मानवता जग गयी.उसके लिये जगह बन गयी.धीमे से सामने सीट पर बैठी बुढिया मुस्कुराई और उसे अपने पास बैठा लिया.
सहमी द्रिष्टी से उसने चारों ओर देखा फ़िर झोले को गोद में रख कर धीमे से सकुचाती हुई बैठ गयी.बुढिया ने जाने क्या पूछा उसने धीमे से सिर हिला दिया.यात्रियों ने ड्राइवर से संभल कर बस चलाने को कहा.बस रेंगने लगी.अगले गांव की सर्हद पर खाकी वर्दी ने हाथ दे कर बस रुकवा ली.अगले गेट से वह भीतर आ गया.उसकी द्र्ष्टी सभी यात्रियों से होती हुई युवती के चेहरे पर जा टिकी.एक धूर्त मुस्कान उसके चेहरे पर उभर आयी.ठसक के साथ उसके सीट के ठीक सामने वाली सीट पर बैठ गया,"क्यों री छ्म्मकछ्ल्लो,कैसा चल रहा है धंधा?"
युवती ने घबरा कर आस पास देखा.फ़िर सिर झुका लिया.यात्रियों में फ़ुसफ़ुसाहट फ़ैलने लगी.
"मंदा होगा आजकल क्यों?"उसके पेट की ओर आंख से इशारा किया और हंस दिया.
युवती सिर झुकाये बैठी रही.
यात्रियों की नैतिकता अब मानवता पर हावी होने लगी.
"किसका है?कुछ पता है? इस बार का प्रश्न फ़ुसफ़ुसाहट के अंदाज में पूछा गया था.बुढिया ने हिकारत से युवती को देखा फ़िर खिसक कर खिड़की के बाहर थूंक दिया.युवती की आंखे लबालब भरी थी.मुट्ठियों में झोले को भींच लिया.
थानेदार और भी फ़िकरे कसता,पर इस बीच सरकारी अस्पताल आ गया था. युवती उठी और दरवाजे तक आ गयी.ड्राइवर ने बस झटके साथ रोकी.उसने हकबका कर हैंडल पकड़ लिया.
"उई मां "उसके मुंह से निकला .बस के यात्रियों में कोई हरकत नहीं हुई.
"मर जाती तो अच्छा था.पाप तो कटता न."सामने वाली बुढिया बडबड़ाई.
बस में अजीब सा मौन छा गया था.सबकी नैतिकता जैसे सलीब तलाशने लगी थी.--पिछले दो स्टाप पहले जगी मानवता को ठोकने के लिये.
किसी के फ़टे को सीने के लिये सुई ले कर सामने आना तो हमारी फ़ितरत है ही नहीं,हां उसमे टांग अड़ाने को हमेशा तैयार रहते हैं.कितनी उथली है हमारी नैतिकता.किसी के भीतर टीसते नासूर ,उसके अन्दर बिसूरती मजबूरी को समझने की चेष्टा तो करनी नहीं है बस सलीब पर टांगने के लिये ,फ़ैसला सुनाने के लिये हमारे भीतर का तमाशबीन जानवर मौका मिले नहीं दांत पैने करने लगता है.ऐसे में हम अपने भीतर झांकना तो कतई जरूरी नहीं समझते.
दायित्वबोध
वे दोनों ही उकताने लगे थे पार्क की बेंच पर के पनपते प्रेम से.दोनों के पास दफ़्तर की कलर्की थी,भरे घर का दायित्व था और चुने हुये सपने थे.उन सपनो का हिस्सा हर शाम पार्क की उस बेंच पर छू लिया जाता था.वे विवाह तब तक नहीं कर सकते थे जब तक दायित्व से मुक्त न हो जायें.
"इस तरह तो मैं पेन्शन गिनने लगूंगा."एक दिन पुरुष ने कहा.
"तो फ़िर?’ स्त्री के पास सिर्फ़ सवाल था ,समाधान नहीं
"इससे पहले कि तुम मेनोपाज की स्थिति तक पहुंचो ,क्या हम इस बेंच के प्रेम को किसी अकेले कमरे तक नहीं पहुंचा सकते?"पुरुष का आक्रोष भरा समाधान था.दोस्त के कमरे की चाभी ली गयी.शाम पार्क की बेंच पर नहीं दोस्त के कमरे में गुजरने लगी.तनाव मुक्त होने का तरीका आ गया.
दायितवबोध के एह्सास की चुभन अब उतनी तीखी नहीं थी.चार महीने बाद एक दिन पुरुष ने सहसा चाभी लौटा दी.और वे उसी शाम फ़िर पार्क की बेंच पर थे.
"कल तुम छुट्टी ले लेना.नीरू को मेरी स्टोप्स ले जाना है."स्त्री ने स्वीक्रिति में सर हिला दिया था.
पुरुष की हंसी में कड़ुवाहट घुलने लगी थी-"मैंने सिर्फ़ अपनेलिये सोचा था, यह भूल गया था कि घर की चारदीवारी में बंद मुझसे सिर्फ़ चार साल छोटी बहन भी-तेजी से उम्र की ढलान की ओर बढ रही है और चाभी की जरूरत तो उसे भी रही होगी."
उसका सिर अपमान से नहीं ग्लानि से झुक गया था.
इस कहानी को पढने के बाद खींच तान कर दाल रोटी चलाते कितने ही मध्यमवर्गीय लोगों की मटमैली आंखो में दफ़न धूसर होते सपने रीढ की हड्डी का दर्द बढा जाते हैं.यहां बात ख्वाहिशों और सपनों की नहीं वरन जरूरतों की है.जरूरतें केवल रोटी ,कपड़ा और मकान तक ही तो सीमित नहीं होतीं.ऐसे तीखे पन से चोट करती है यह कहानी जैसे किसी लाश को नंगा देख लिया हो.
दर्पण
पेड़ के नीचे फ़ुट्पाथ पर पूरा जीवन गुजारने वालों में वह भी थी.जन्म,म्रित्यु,विवाह से ले कर जचगी तक;इसी प्रकार फ़ुटपाथ पर पेड़ के तने से बंधी साड़ी के पालने में,अगली पीढी पलती.रूखे उलझे बाल,फ़टी हुई पैबंद लगी धोती,आंखो के कोरों में कीचड़.
सुबह नुक्कड़ की दुकान की चाय से मुंह जुठार वह काम में जुट जाती.स्टील के बर्तनों का युग था पर पीतल के बर्तन अब भी कई घरों में कलई के लिये निकाले जाते थे.उसका आदमी रात को ठर्रा चढा कर सोता तो दिन चढे पड़ा ही रहता.दिन दह्कने लगता तो नुक्कड़ की दुकान से चाय और पाव रोटी ले कर वह भी काम में लग जाता.दिन ढलते ही वह चुल्हा सुलगाती.वह पौवा ले आता.खा-पी कर दामपत्य निभाते और लुढक जाते.यह था उनका जीवन.
उस दिन बंगले से काफ़ी बर्तन मिल गये.वह फ़टाफ़ट हाथ चला रही थी.तीन-चार फ़ेरों में बर्तन पंहुचाने थे.दूसरे फ़ेरे में बर्तन भीतर रखवा कर जैसे ही उसने सिर उठाया,चौंक गयी.सामने के कमरे में लगे शीशे में उसका पूरा बिम्ब प्रितिबिम्बित हो रहा था.अपने को आदमकद शीशे में देखने का यह पहला अनुभव था.रूखे बालों को हथेलियों से संवार कर वह एक मिनट घूरती रही.देह गठी है पर चेहरा?इतना रूखा,मैला-कुचैला? वह घिना गयी.
अगले फ़ेरे के पहले उसने मुंह पर पानी के छीटे मार लिये;बालों को झटक कर संवारा और जूड़ा बना लिया.कमरा इस बार बंद था ,निराश लौट आयी.काश एक बार देख पाती.खासी कमाई हुई थी आज.आदमी पूरी बोतल ले आया था.रोटी के साथ सब्जी का जुगाड़ हो गया था.उसकी आंखो से नींद गायब हो गयी थी.बार बार वही प्रतिबिम्ब.कैसे प्यार कर लेता है उसे उसका मरद.?देह पर पसरते हाथ को खीझ कर झटक दिया.
"का हुआ री ,छिनाल?"
"पूरी बोतल ले आये.ओहमा से बचाय के साबुन की टिक्की ले आते...."
"तू तो यूं भी रानी लागत है"वह फ़ुसफ़ुसाया
उसने अपने आदमी की आंखो में झांका.खूब धुली चांदनी में,उसकी आंखो में कोई झूठ नहीं नजर आया.
बंद दरवाजे के भीतर के शीशे में वह अपना प्रतिबिम्ब जैसे बिल्कुल साफ़ देख रही थी.साबुन से महकती देह,माथे पर टिकुली.....
उसके आदमी की आंखे झूठी नहीं हो सकती .तो क्या दर्पण झूठा था?उसे लगा दर्पण की जरूरत बंगले वालों को होती होगी क्यों कि वहां साफ़ पारदर्शी आंखो के दर्पण नहीं होते.
इस कहानी का अन्त जैसे एक बून्द आशा की.तंगहाली की खराशों को जैसे चुपके से कोई पंख सहला जाय.
हत्यारा
यूं कहने को वह हत्यारा था पर था एकदम हंसमुख नेक दिल इन्सान. साइकेट्रिक ने उसे मानसिक रूप से बीमार करार दिया था.उसका शिकार देह विक्रय में रत वेश्यायें थीं.मानसिक चिकित्सक कीसलाह पर उसे आम कैदियों से अलग रखा गया.उसे प्रशिक्षण दिया गया.वह जेल में ही बेंत की सुंदर टोकरियां और फ़र्नीचर बनाने लगा.उसके आजीवन कारावास की अवधि कम कर दी गयी.अपने सदाचार के बल पर वह रिहा हो गया.एक स्वस्थ और सुंदर भविष्य उसकी आंखो में था.
नौकरी इतनी आसानी से नहीं मिली.उसका पिछला इतिहास कहीं आड़े आता ,कहीं जेल का प्रमाण पत्र.उसने निश्चय किया कि अब वह प्रमाण पत्र के बगैर नौकरी तलाशेगा.एक अदद नौकरी हाथ लगी.खूब मन लगा कर काम किया.उसके बनाये फ़र्नीचरों की मांग बढी.मालिक की दुकान का हुलिया भी बदलने लगा.जिन्दगी चल निकली थी.उसकी जिन्दगी में एक अदद पत्नी और बच्चा भी शुमार हो गये.
सहसा एक दिन एक ग्राहक ने उसे पह्चान लिया.वह रिटायर्ड जेलर थे.मालिक ने उसे उसी दिन बकाया थमा कर चलता किया.उसके रोने गिड़गिड़ाने क,यहां तक कि उसकी अब तक की लगन, निष्ठा,इमानदारी का भी कोई अर्थ शेष नहीं रहा था.वह टूट गया.फ़िर वही सिलसिला.....इस बार चिड़चिड़ाती पत्नी और बिलबिलाता बच्चा साथ थे.
उस रात लाल बत्ती वाले इलाके में फ़िर दो हत्यायें हुईं.आत्मसमर्पण करते हुये उसकी आंखो में कोई
पश्चाताप न था.पर इस बार कानून ने उसे फ़ांसी के तख्ते तक पंहुचा दिया.हत्यायें पूरे होशोहवास में की गयीं थी.निर्णय सुन कर वह हंसता दिया,हंसता रहा.....उसकी हंसी फ़िर नहीं थमी.
हत्यारा कौन वह व्यक्ति जो पूरी लगन से एक अदद ईमानदार जिन्दगी जीने की कोशिश कर रहा था या हम जो सोच के अपने निर्धारित ढांचे से बाहर नहीं आयेगे.एक गलती जिन्दगी भर की सजा ,वह भी तब जब आपको अपने गलत होने का एह्सास हो और आप अपनी गलती सुधारना चाहें.वरना डंके की चोट पर हत्यायें और अपराध करने वालो से सामना होने पर तो हम हाथ जोड़,खीसें निपोड़ खड़े हो जाते हैं.
पुरस्कार
वे अपने को प्रगतिशील लेखक मानते थे.उनकी मान्यता थी कि उनके लेखन से क्रान्ति एक दिन आकर रहेगी.इस उपन्यास को लिखने में उनकी बरसों की मेहनत थी.इसी उपन्यास के लिये उन्होंने
राजधानी के एक प्रतिष्ठित प्रकाशक से बात कर ली थी.उनका विश्वास था कि प्रकाशित होने पर उपन्यास दशक के चर्चित उपन्यासों में एक होगा.नोबल न सही ,अकादमी तो जुट ही जायेगा.प्रकाशक के माध्यम से अंग्रेजी अनुवाद और प्रकाशन का जुगाड़ भी होगा ही.
शाम सात बजे का समय मिलने के लिये तय हुआ था.निकलते निकलते साढे छः हो गये थे.तेज भागती टै़क्सी में वे व्यग्र हो रहे थे.सहसा गाड़ी झटके से रुकी.एक नन्हा बालक टकरा कर गिर गया था.वे हड़बड़ा कर उतरे.लड़का बेहोश था. अस्पताल ले जाते हैं तो पुलिस,एफ़.आइ.आर का झंझट .बच्चे के मां बाप का पता लगा कर प्राइवेट डाक्टर के पास ले जाते है तो वक्त नहीं.वे क्षणांश के लिये रुके.ड्राइवर उनकी हिचकिचाहट भांप गया.गाड़ी रिर्वस में ली.उसकी नज़र बचा कर एक दस का नोट बेहोश बच्चे की मुट्ठी में दबा दिया और टैक्सी में जा बैठे.
उनका मन जैसे हल्का हो गया था.उन्हें लगा अधिकांश लोग इसी तरह अपनी आत्मा के बोझ को हल्का कर लेते होंगे.तभी तो आत्मा हल्की होने लगी है.अब वे पुरस्कार के बारे में सोचने लगे थे.
पेंशन
उनकी पेंशन सहसा बंद हो गयी थी.घर की गाड़ी चरमराने लगी.डाक की गड़बड़ी के भ्रम में दो माह निकल गये.बेटे बहु की भुनभुनाहट से तंग आ वे पेंशन दफ़्तर पंहुचे.पता लगा सरकारी कागजों के अनुसार वे गोलोकवासी हो चुके हैं.लिहाजा पेंशन बंद.तर्क करते रहे,गिड़गिड़ाते रहे..कहा गया यदि वे अपने जीवित रहने का प्रमाण पत्र दे तो विचार हो सकता है.प्रमाण पत्र मिलना आसान नहीं था.वे जहां सम्भव था आंसुओं से,नोटों से काम निकालते रहे.घर में बेटे बहु की झल्लाहट अलग से.बंधी बंधाई रकम जो पाम्च माह से नही मिल रही थी.सो एक वक्त की रोटी बंद.
किसी तरह फ़ाइल ने त्रिप्त हो कर डकार ली.आश्वासन मिला कि अगले माह से पेंशन दरवाजे पर पहुंचेगी.उछाह में लौट रहे थे.गड्ढे में पैर पड़ा और हड्डी तुड़वा बैठे.दर्द से बिलबिलाते रहे पर बेटा घरेलू इलाज कराता रहा.पन्द्रहवें दिन वे सचमुच गोलोक सिधार गये.
मनीआर्डर आया अगले माह .लौटा दिया गया.बेटा खीझ गया.मरने की जल्दी पड़ी थी.पेंशन ले कर मरता बुड्ढा.
अगले माह डाकिये की घंटी फ़िर टनटनाई.कोई पुराना बकाया’बेटे ने लपक कर सरकारी लिफ़ाफ़ा खोला.फ़ाइल के मुंह ने बंद होने के पहले म्रित्यु प्रमाणपत्र की मांग की थी.
’पेंशन ’कहानी कहां अनगिनत घरों और दफ़्तरों का सच है.बेगाने होते रिश्ते जो अमानवता की हद तक पराये हो जाते है और फ़ाइलों का चक्रव्यूह ,जहां जो गलती से लिख गया सो सच.कितनी नग्णय है आदमी की हस्ती कि उसे सामने खड़े होने पर भी अपने जिन्दा होने का प्रमाण देना पड़े................सच है केवल सांसे लेने को ही तो जिन्दा होना नहीं कहा जा सकता.
सुमति जी की लम्बी कहानियां मन की अतल गहराइयों में जा न जाने कितने अबूझ,दुरुह रास्तो तक ले जाती हैं.वहां हमे अधिकतर भावनावों का संसार मिलता है पर लघु कथायें समाजिक विसंगतियों पर चोट करती हैं .आइना दिखाती हैं