’प्रका्रान्तर’ ,लघु कहानियों का संकलन है ,जिसका सम्पादन रूप सिंह चन्देल ने किया है.इसका प्रथम संस्करण १९९१ में प्रकाशित हुआ था.प्रकारान्तर में लघु कथाओं को पूर्व आयाम एवं उत्तर आयाम दो भागों में संकलित किया गया है.पूर्व आयाम में प्रेमचंद,रामधारी सिंह दिन्कर,जयशंकर प्रसाद से ले कर उपेन्द्र नाथ ’अश्क’ और विष्णु प्रभाकर जैसे ह्स्ताक्षर हैं तो उत्तर आयाम में बहुत से नवोदित हस्ताक्षरों का परिचय भी है.इन्हीं में एक नाम सुमति अय्यर का भी है.
सुमति जी की कयी लघु कथायें हम इससे पहले वाली पोस्ट में पढ चुके हैं इसलिये यहां केवल”प्रशस्ति पत्र’ को ही पढेगे हम.प्रशस्ति पत्र हमारे नियम कानून आदि के खोखले पन पर एक सशक्त प्रहार है.तो आइये चले कहानी की ओर.....................
वर्ण संकर विवाह था उसका.वर ब्राहम्ण ,वधु हरिजन.सरकार की ओर से सम्मान और प्रशस्ति पत्र दिया गया था.विवाह की तस्वीरें अखबारों में छपीं.कैमरे के फ़्लैश और अखबारों की सुर्खियों के बीच जीवन की शुरुआत हुई.समझदारी भरी शुरुआत थी इसलिये जीवन चल निकला.
सीमित परिवार था .एक बेटा और पति -पत्नि.लड़का अव्वल रहा पढने में.पढाई पूरी करता कि खुशियों को ग्रहण लग गया.वह एक दुर्घटना में चल बसा.लड़के ने पिता को मुखाग्नि दे घर की जिम्मेदारी उठा ली.
आवेदन......साक्षात्कार.......रिजेक्शन.............यही क्रम उलट फ़ेर कर चलता रहा.कहीं जाति आड़े आती तो कहीं अनुभव.
वह जगह आरक्षित थी पर उसने जाति के आगे हरिजन लिख दिया था.बुलावा आया.
" मेरी मां हरिजन थी-----" उनके प्रश्न पर उसका तर्क भरा विरोध था."सरकार का दिया प्रशस्ति पत्र है हमारे पास."
" होगा पर आपके पिता ब्राहम्ण हैं,आप ब्राह्म्ण ही माने जायेगे.सारी,यह वैकेन्सी आरक्षित है."
वह भरपूर गुस्से में घर लौटा.दीवार पर टंगे प्रशस्ति पत्र को जमीन पर दे मारा और फ़ूट फ़ूट कर रो पड़ा.
कहां से खोजेगा वह बिन्दु जो प्रशस्ति पत्र और आज की इस असफ़लता के बीच के अंतराल को सही समीकरण दे सके.?
लघु कथा में शिल्प का महत्व तो होता है पर हमारे विचार से कथ्य,कसाव और सोच का समानुपातिक समिश्रण ही पाठक को पकड़ भी सकता है और झकझोर भी.
सुमति जी की कयी लघु कथायें हम इससे पहले वाली पोस्ट में पढ चुके हैं इसलिये यहां केवल”प्रशस्ति पत्र’ को ही पढेगे हम.प्रशस्ति पत्र हमारे नियम कानून आदि के खोखले पन पर एक सशक्त प्रहार है.तो आइये चले कहानी की ओर.....................
वर्ण संकर विवाह था उसका.वर ब्राहम्ण ,वधु हरिजन.सरकार की ओर से सम्मान और प्रशस्ति पत्र दिया गया था.विवाह की तस्वीरें अखबारों में छपीं.कैमरे के फ़्लैश और अखबारों की सुर्खियों के बीच जीवन की शुरुआत हुई.समझदारी भरी शुरुआत थी इसलिये जीवन चल निकला.
सीमित परिवार था .एक बेटा और पति -पत्नि.लड़का अव्वल रहा पढने में.पढाई पूरी करता कि खुशियों को ग्रहण लग गया.वह एक दुर्घटना में चल बसा.लड़के ने पिता को मुखाग्नि दे घर की जिम्मेदारी उठा ली.
आवेदन......साक्षात्कार.......रिजेक्शन.............यही क्रम उलट फ़ेर कर चलता रहा.कहीं जाति आड़े आती तो कहीं अनुभव.
वह जगह आरक्षित थी पर उसने जाति के आगे हरिजन लिख दिया था.बुलावा आया.
" मेरी मां हरिजन थी-----" उनके प्रश्न पर उसका तर्क भरा विरोध था."सरकार का दिया प्रशस्ति पत्र है हमारे पास."
" होगा पर आपके पिता ब्राहम्ण हैं,आप ब्राह्म्ण ही माने जायेगे.सारी,यह वैकेन्सी आरक्षित है."
वह भरपूर गुस्से में घर लौटा.दीवार पर टंगे प्रशस्ति पत्र को जमीन पर दे मारा और फ़ूट फ़ूट कर रो पड़ा.
कहां से खोजेगा वह बिन्दु जो प्रशस्ति पत्र और आज की इस असफ़लता के बीच के अंतराल को सही समीकरण दे सके.?
लघु कथा में शिल्प का महत्व तो होता है पर हमारे विचार से कथ्य,कसाव और सोच का समानुपातिक समिश्रण ही पाठक को पकड़ भी सकता है और झकझोर भी.
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