”हिंदी कहानी का मध्यान्तर’ सम्पादक रमेश बक्षी,इस संग्रह में ३६ कहानियां हैं--समय के क्रमानुसार,पहली कहानी क्रिष्ण बलदेव वैद की और आखिरी सुमति अय्यर की.इस संग्रह का प्रथम संस्करण १९८५ में प्रकाशित हुआ था.
सुमति अय्यर की कहानी”घटनाचक्र’ में जीवन की विसंगतिया,आदमी का खुद से संघर्ष,आदमी को मजबूर करता उसका स्वार्थ सब बहुत सहज रूप से बहता मिलता है पर हमे जो बात सबसे अच्छी लगी ,वह है नायिका का जीवन को लेने का तरीका.इतनी सारी विभत्स सच्चाईयों के बीच जूझती हुई भी वह दूब के कुछ तिनके उगा ही लेती है ,सांस लेने के लिये.
खुद ही पढ देखिये यह कहानी............
घटनाचक्र
सुबह खिले काफ़ी देर हो चुकी थी.पर वह लिहाफ़ को गले तक खींच कर पड़ी थी.रामी ने दो बार दर्वाजे को हल्के से खोल कर भीतर झांक लिया था.वह कनखियों से उसे देख कर करवट बदल कर लेट गयी थी.ऊपर पंखा घर्र घर्र करता हुआ चल रहा था.कई बार उसकी ओर ताकते -ताकते उसकी इच्छा होती है,पंखा चलते-चलते अचानक छत से छूट कर नीचे आ गिरे,ठीक उसके ऊपर.उसकी कुचली लाश कैसी लगेगी फ़िर? अपनी क्रूर इच्छा पर खुद सिहर उठती है.पर ऐसा सोचने से खुद को रोक नहीं पाती.
इस कमरे के साथ जुड़े हुये एयर कन्डीशन्ड कमरे मे सोना उसे कभी अच्छा नहीं लगा.कई बार वे इसकीइस हरकत पर झुंझला उठते हैं.पर वह है कि सुधरना ही नहीं चाहती.पंखे की घरघराहट उसे पसंद है .वे उसे बदल कर दूसरा पंखा लगवाने को कई बार कह चुके हैं,पर वह टाल जाती है.
" इसके नीचे सोते हुये कई बार लगता है जैसे अपने कमरे में होंऊ."
" दूसरे कमरे मे क्या आफ़त है?" वे पूछते
" वह कमरा घर का नहीं,किसी फ़ाइव स्टार होटेल का सूट लगता है."
उसकी इस दलील के सामने वे हार कर चुप हो जाते.
अक्सर उसे लेटे लेटे याद आता है अपने छोटे से घर का कमरा,जिसमे पंखे के नीचे सोने के लिये भाई बहनो मे गुथम्गुत्थी होती.अब वह अकेले पंखे के नीचे लेट कर अशांत रहती है.पता नहीं क्यों पंखे की हवा बेमानी लगती है.
उसका सारा शरीर पसीने से तरबतर रहता हैऔर वह निष्चेष्ट पड़ी रहती है.कोई हरकत नहीं होती.शायद दो साल पहले इस बात पर खीझ कर सारा घर सर पर उठा लेती,पर अब खीझना जैसे भूल गयी है.
रामी चाय का प्याला लिये कमरे में आ गयी है,’कल रात फ़ोन आया था.शाम पांच बजे की फ़्लाइट से .आप सो रही थी.’ पर वह चुपचाप पड़ी सुनती रही.रामी ने उसकी ओर आश्चर्य से देखा.उसने शायद सोचा हो,खबर सुनते ही,वह हुलस कर उठेगी और सवाल पर सवालों की झड़ी लगा देगी.पर उसने पास ही मेज पर रखे प्याले को चुपचाप उठा लिया और सारी व्यग्रता चुस्कियों में पीने लगी.
’क्या हुआ मेम साहब तबियत तो ठीक है न!’रामी के स्वर में आत्मीयता से अधिक यान्त्रिकता थी.उसे खीझ हो आयी.सब उसके उसके व्यवहार की असमान्यता का कारण उसकी शारीरिक अवस्था में क्यों खोजने लगे हैं? उसका मन मानो कुछ भी नहीं है.उसने जवाब नहीं दिया और चुपचाप लेट गयी.रामी ने पास आ कर प्याला उठा लिया और धीरे से पूछा,’जी मितला रहा हो तो कुछ ला दूं?’
’नहीं’ उसने अनमने मन से जवाब दिया और आंखें मूंद ली.
कितना अजीब लगता है,वह इन दिनों को अकेले पड़े पड़े काट रही है .जो उसके क्या किसी भी लड़्की के जीवन में बहुत मायने रखते हैं. अपने शरीर पर होने वाली मामूली से मामूली हरकत जैसे शरीर को झुरझुरी से सहलाती हुई गुजर जाती है.मानस-पटल पर उभरते धुंधले बिम्बों को आकार देने वाले वे क्षण !उसे कितनी यादें आती हैं मां की.वह पास होती तो वह उनकी गोद में सिर छिपा कर लेटती और अपने इन अंतरंग क्षणों की हर धड़कन को उनसे बांटती.
उसने मां को अग्रिम सूचना के तौर पर पत्र लिखना चाहा था,पर लिखते लिखते जैसे हाथ रुक गये.और उसने कागज़ के टुकड़े टुकड़े कर दिये.सूचना पाने के बाद मां की प्रतिक्रिया का अन्दाजा वह लगा सकती है.और उसे उसी पिटी पिटाई भंगिमा से नफ़रत होने लगी है.कई बार उसने फ़ैसला किया है कि अब वह घर की बात नहीं सोचेगी.दो चार वाक्य अपने में बुदबुदा कर,हर बार उसने यह भ्रम पाल लिया है कि उसने फ़ैसला कर लिया है.पर कुछ होता नहीं.कब तक अपने को झुठलाती रहे? बस एक हद होती है फ़िर अपने भ्रम को सहलाना भी अपमानजनक लगने लगता है.
" मां को मैं चौंकाना चाहती हूं." उनके पूछने पर उसने सफ़ाई पेश करना चाहा था.उसे अपनी ही विपन्नता पर खीझ हो आयी थी.
" हां हां वे जरूर चौंकेगीं," वे तब हंस दिये थे और उनकी हंसी का साथ देते हुये उसने भीतरी आशंका को चुप करा देना चाहा था.
रामी ने दोबारा दरवाजा खोल दिया था," पानी गरम कर दूं मेम साहब?"
वह चुपचाप उसे देखती रही.वह जैसे सहम गयी थी,और अपने वाक्यों को वापस लेने की हड़बड़ी में बोली,’ देर हो गयी थी ,सो पूछ लिया" और उसने सिर झुका लिया.मानो उसकी स्थिति के लिये खुद को जिम्मेदार ठहराना चाह रही हो.उसने सिर हिला दिया.
"अभी इच्छा नहीं है.मुझे डिस्टर्ब न करना.तुम लोग खा लेना. मैं तीन बजे तक नहाउंगी."
"अच्छा, मेम साहब!" वह चली गयी.उसका जी हुआ उसे रोक कर पूछे,रामी जैसे तुम औरों को बहु जी कहती हो मुझे नहीं कह सकती.?" पर उसने पूछा नहीं और चुपचाप उढके हुये दरवाजे पर आंख गड़ा दी.
पता नहीं कैसा अधूरपन छाता जा रहा है दिलो दिमाग पर? हर काम को वह झल्लाहट के साथ करने लगी है.उसे लगता है इस झल्लाहट ने उसके दांतो और नाखूनो को तीखा कर दिया है..और वह सभी को बात बात पर जख्मी कर देने पर तुल गयी है.सच तो यह है कि वह अकेले जीते जीते थक जाती है,दीवारों के साथ,पेंटिग्स के साथ और इन सारी सुख सुविधाओं के साथ.अब वे सारे ऐशो आराम जो कभी उसे एड्वेन्चर लगते थे,डराने लगे हैं और वह भाग कर दूर जाना चाहती है,पर कहां जाय ? यहां तो बाज़ार जाने,पास पड़ोसियों से मेल जोल रखने की भी मनाही है.
उसे अक्सर अपना अतीत याद आता है.वे इस पर रोक नहीं लगा पाय.उसे याद है अपना वह छोटा सा घर,भाई बहन के झगड़ों-उधमों से परेशान मां का झुर्रियोंदार चेहरा कमरे के कोने में पड़ी आराम कुर्सी पर लेट कर अखबार के प्रथम प्रिष्ठ्से ले कर आखिरी प्रिष्ठ तक चाट जाने वाले पिता जी!हालत यह कि आटे का कनस्तर अक्सर खाली पड़ा रहता.जिस दिन पिता जी वहां नहीं मिलते वह समझ जाती,आज या तो कनस्तर खाली है या फ़िर दाल नहीं है.मां की नाक इन दिनो विषेश चढी रहती.हलां कि उस पर तो वे यूं भी बरसती.सारी गरीबी के बावजूद उसके अपार सौन्दर्य और गठित देहयष्टि पर मां की आंख पड़ी नहीं कि उनके आशीर्वचन हांला कि बाद मे अकेली जब बाहर देहरी पर बैठती ,तब सांझ का दिया जला कर ,वह उनके समीप बैठ जाती-तो सह्सा उनकी आंखे नम हो जातीं और कहतीं,"मैं भी पापी हूं रे! कितना कुछ कह जाती हूं.पर सब तेरे भले के लिये ही तो!" और उसका हाथ दबा देती.
उसे याद है ,मां की संदेह द्रिष्टी स्कूल से लौटने तक उसका पीछा करती ही है.वह स्कूल में होती तब भी हर क्षणुन दो आंखों की चुभन मह्सूस करतीऔर अब लगता है,वह यही अनुभुति है,जिसकी वजह से वह अपने जिन्दा होने के एह्सास को नकारती रही है.
उस स्कूल के पूरे मौहाल में एक चेहरा याद आता है---अतुल का.
अतुल उसका पड़ोसी था,स्कूल का साथी.उसके आने से मां को एक बिन मांगा नौकर मिल गया.और उसे एक प्यारा साथी,जिसके आने के बाद उसे अपना जीवन अर्थपूर्ण लगने लगा था.कब वह घर का अतुल होता हुआ उसका अतुल हो गया ,वह जान ही नहीं पाई.मां को उसका आना-जाना अच्छा लगता था.एक काम काजी बेटा जो मिल गया था.दीपू और मंगू तो इतने छोटे थे कि उनका काम भी मां को ही करना पड़ता था.पापा को राजनीति की गर्म चर्चा करने वाला एक साथी मिल गया था.उन्हें तो अतुल की एक दिन की भी गैरमौजुदगी अखरती.मतलब यह कि अतुल के आने जाने से घर भर को सुविधा थी.बस एतराज था तो उन सपनों से जो उन दोनो ने रौशनी में बुने थे.
" ही इज ए बास्टर्ड ." पापा चिल्लाये थे ,जिस दिन उसने अपना प्रस्ताव रखा था.
" न अपना कुल,न अपना गोत्र ! कहीं ऐसे में रिश्ते टिकते हैं ? फ़िर कमाना तक भी शुरु नहीं किया और मंजनू पहले बन गये!"पापा का गुस्सा काफ़ी देर तक उफ़नता रहा था..मां भी रसोई में उसे बिठा कर सुनाती रही.
किसी ने उससे पूछने की आवश्यकता नहीं समझी थी शायद!वे तो मानो मान बैठे थेकि बेटी उनकी इज्जत सरे आम उतार फ़ेंक रही है.मां ने आंखो को छोटा कर के यह भी पूछा था," कहीं कुछ गलत सलत तो नहीं कर बैठी री लड़की?"उसने हर हिलाया था,पर बर्बस उसकी आंखों में आंसू आ गये थे.क्या सोचते हैं ये लोग? पहचान होने या प्यार होने का मतलब सिर्फ़ साथ लेटना ही तो नहीं होता.
पापा ने उसे पास बिठा कर दुलराते हुये कहा था," बेटी ,तुम्हारे भले के लिये जो कह रहा हूं उसे अन्यथा मत लेना.आज तुम्हें सब अनुचित भले ही लगे,कल जब तुम सोचोगी,सब सही ,सहज और आवश्यक लगेगा.मैंने तुम्हारा नाम प्यार से नहीं सार्थकता के साथ अलकनन्दा रखा था..."आगे कुछ नहीं बोले थे वे.उनकी गोद में सर रख कर रोती रही थी वह.
अतुल चला गया था ,उससे विदा लिये बिना.उसकी बहन ने बताया था,उसका सेलेक्शन कानपुर आई.आई.टी .में हो गया है और वह वहीं चला गया है.उस दिन वह घर लौट कर बिना खाये पिये ही सो गयी थी.किसी ने पूछा तक नहीं,फ़िर घर की अवस्था भी कुछ ऐसी थी कि एक वक्त का खाना बच जाना उनके लिये गैर मामूली बात नहीं थी.लड़की का भूखा सो जाना उन्हें सहज जरूर लगा था.अतुल का उससे बिना मिले चले जाना ,उसे असह्य हो उठा था.
कुल गोत्र को आड़े रख कर उसके और अतुल के सम्बन्धो की धज्जियां उड़ा दी गयीं.अब यहां कौन से रिश्ते कायम रह गये.?वहां कम से कम प्यार तो रौशनी में बुना गया था,यहां तो रिश्ते ही अंधेरे में जी रहे हैं.कुल गोत्र का पता तो दूर ,वह तो उनका पूरा नाम भी नहीं जानती.
’बस सुहाग ही तो नहीं रहेगा न?" उसे आश्चर्य हुआ था,यह वही मां बोल रही है,जो हर सोमवार कैलाश-मन्दिर में अपने सुहाग की रक्षा के लिये माथा टेकने जाती है.यह वही मां है जिसने अतुल को ले कर काण्ड खड़ा किया था? या ये वही पापा हैं जिन्होंने नाम की दुहाई दे कर उसकी अर्थवत्ता बनाये रखने का आग्रह किया था.पर हकीकत से बड़ा कुछ नहीं होता.यह वही मां थी.वही पापा.वे जब पारिवारिक मित्र त्रिपाठी जी के हाथ प्रस्ताव ले कर आये थे,तो मां और पापा किंकर्त्तव्यविमूढ हो गये थे.उसका पूरा विश्वास था ,पापा उसी तरह चिल्लायेगे," यू आर अ बासटार्ड." इतनी बड़ी बात कहने की हिम्मत कैसे हुई पर उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब वे दोनों मौन रहे थे.एक दिन की मोहलत तो त्रिपाठी जी ने नाजुक स्थिति का अन्दाजा लगा कर दिला दी थी और वह ब्यूक गाड़ी उनके दरवाजे से धूल उड़ाती चली गयी थी.
कैसा प्रस्ताव था यह?न विवाह का ,न मन्त्रोच्चार का झंझट! वह शादी शुदा ,बाल बच्चेदार ,अति सम्पन्न व्यपारी थे,जिन्हें अपने भरे पूरे परिवार को कलकत्ते में छोड़ कर बम्बई में रहना पड़ता था.कलकत्ते का कारोबार उनके भाई संभालते.बम्बई में सारे दिन व्यस्त रहते पर सांझ घिरते ही उनका अकेलापन उन्हें शून्यता से भर देता.उन्हें एक केयर-टेकर चाहिये और वह भी लड़की,जो वहां उनके साथ रह सके.उनकी उस व्यस्तम जिन्दगी में से हासिल बचे क्षणों में साथ निभा सके- बिल्कुल पत्नी की तरह पर समाजिक तौर पर नहीं,निजी जिन्दगी में ,बंद दीवारों के बीच,सामाजिक भद्दे शब्दों में ’रखैल.
छायाचित्र---सुंदर अय्यर
सुमति अय्यर की कहानी”घटनाचक्र’ में जीवन की विसंगतिया,आदमी का खुद से संघर्ष,आदमी को मजबूर करता उसका स्वार्थ सब बहुत सहज रूप से बहता मिलता है पर हमे जो बात सबसे अच्छी लगी ,वह है नायिका का जीवन को लेने का तरीका.इतनी सारी विभत्स सच्चाईयों के बीच जूझती हुई भी वह दूब के कुछ तिनके उगा ही लेती है ,सांस लेने के लिये.
खुद ही पढ देखिये यह कहानी............
घटनाचक्र
सुबह खिले काफ़ी देर हो चुकी थी.पर वह लिहाफ़ को गले तक खींच कर पड़ी थी.रामी ने दो बार दर्वाजे को हल्के से खोल कर भीतर झांक लिया था.वह कनखियों से उसे देख कर करवट बदल कर लेट गयी थी.ऊपर पंखा घर्र घर्र करता हुआ चल रहा था.कई बार उसकी ओर ताकते -ताकते उसकी इच्छा होती है,पंखा चलते-चलते अचानक छत से छूट कर नीचे आ गिरे,ठीक उसके ऊपर.उसकी कुचली लाश कैसी लगेगी फ़िर? अपनी क्रूर इच्छा पर खुद सिहर उठती है.पर ऐसा सोचने से खुद को रोक नहीं पाती.
इस कमरे के साथ जुड़े हुये एयर कन्डीशन्ड कमरे मे सोना उसे कभी अच्छा नहीं लगा.कई बार वे इसकीइस हरकत पर झुंझला उठते हैं.पर वह है कि सुधरना ही नहीं चाहती.पंखे की घरघराहट उसे पसंद है .वे उसे बदल कर दूसरा पंखा लगवाने को कई बार कह चुके हैं,पर वह टाल जाती है.
" इसके नीचे सोते हुये कई बार लगता है जैसे अपने कमरे में होंऊ."
" दूसरे कमरे मे क्या आफ़त है?" वे पूछते
" वह कमरा घर का नहीं,किसी फ़ाइव स्टार होटेल का सूट लगता है."
उसकी इस दलील के सामने वे हार कर चुप हो जाते.
अक्सर उसे लेटे लेटे याद आता है अपने छोटे से घर का कमरा,जिसमे पंखे के नीचे सोने के लिये भाई बहनो मे गुथम्गुत्थी होती.अब वह अकेले पंखे के नीचे लेट कर अशांत रहती है.पता नहीं क्यों पंखे की हवा बेमानी लगती है.
उसका सारा शरीर पसीने से तरबतर रहता हैऔर वह निष्चेष्ट पड़ी रहती है.कोई हरकत नहीं होती.शायद दो साल पहले इस बात पर खीझ कर सारा घर सर पर उठा लेती,पर अब खीझना जैसे भूल गयी है.
रामी चाय का प्याला लिये कमरे में आ गयी है,’कल रात फ़ोन आया था.शाम पांच बजे की फ़्लाइट से .आप सो रही थी.’ पर वह चुपचाप पड़ी सुनती रही.रामी ने उसकी ओर आश्चर्य से देखा.उसने शायद सोचा हो,खबर सुनते ही,वह हुलस कर उठेगी और सवाल पर सवालों की झड़ी लगा देगी.पर उसने पास ही मेज पर रखे प्याले को चुपचाप उठा लिया और सारी व्यग्रता चुस्कियों में पीने लगी.
’क्या हुआ मेम साहब तबियत तो ठीक है न!’रामी के स्वर में आत्मीयता से अधिक यान्त्रिकता थी.उसे खीझ हो आयी.सब उसके उसके व्यवहार की असमान्यता का कारण उसकी शारीरिक अवस्था में क्यों खोजने लगे हैं? उसका मन मानो कुछ भी नहीं है.उसने जवाब नहीं दिया और चुपचाप लेट गयी.रामी ने पास आ कर प्याला उठा लिया और धीरे से पूछा,’जी मितला रहा हो तो कुछ ला दूं?’
’नहीं’ उसने अनमने मन से जवाब दिया और आंखें मूंद ली.
कितना अजीब लगता है,वह इन दिनों को अकेले पड़े पड़े काट रही है .जो उसके क्या किसी भी लड़्की के जीवन में बहुत मायने रखते हैं. अपने शरीर पर होने वाली मामूली से मामूली हरकत जैसे शरीर को झुरझुरी से सहलाती हुई गुजर जाती है.मानस-पटल पर उभरते धुंधले बिम्बों को आकार देने वाले वे क्षण !उसे कितनी यादें आती हैं मां की.वह पास होती तो वह उनकी गोद में सिर छिपा कर लेटती और अपने इन अंतरंग क्षणों की हर धड़कन को उनसे बांटती.
उसने मां को अग्रिम सूचना के तौर पर पत्र लिखना चाहा था,पर लिखते लिखते जैसे हाथ रुक गये.और उसने कागज़ के टुकड़े टुकड़े कर दिये.सूचना पाने के बाद मां की प्रतिक्रिया का अन्दाजा वह लगा सकती है.और उसे उसी पिटी पिटाई भंगिमा से नफ़रत होने लगी है.कई बार उसने फ़ैसला किया है कि अब वह घर की बात नहीं सोचेगी.दो चार वाक्य अपने में बुदबुदा कर,हर बार उसने यह भ्रम पाल लिया है कि उसने फ़ैसला कर लिया है.पर कुछ होता नहीं.कब तक अपने को झुठलाती रहे? बस एक हद होती है फ़िर अपने भ्रम को सहलाना भी अपमानजनक लगने लगता है.
" मां को मैं चौंकाना चाहती हूं." उनके पूछने पर उसने सफ़ाई पेश करना चाहा था.उसे अपनी ही विपन्नता पर खीझ हो आयी थी.
" हां हां वे जरूर चौंकेगीं," वे तब हंस दिये थे और उनकी हंसी का साथ देते हुये उसने भीतरी आशंका को चुप करा देना चाहा था.
रामी ने दोबारा दरवाजा खोल दिया था," पानी गरम कर दूं मेम साहब?"
वह चुपचाप उसे देखती रही.वह जैसे सहम गयी थी,और अपने वाक्यों को वापस लेने की हड़बड़ी में बोली,’ देर हो गयी थी ,सो पूछ लिया" और उसने सिर झुका लिया.मानो उसकी स्थिति के लिये खुद को जिम्मेदार ठहराना चाह रही हो.उसने सिर हिला दिया.
"अभी इच्छा नहीं है.मुझे डिस्टर्ब न करना.तुम लोग खा लेना. मैं तीन बजे तक नहाउंगी."
"अच्छा, मेम साहब!" वह चली गयी.उसका जी हुआ उसे रोक कर पूछे,रामी जैसे तुम औरों को बहु जी कहती हो मुझे नहीं कह सकती.?" पर उसने पूछा नहीं और चुपचाप उढके हुये दरवाजे पर आंख गड़ा दी.
पता नहीं कैसा अधूरपन छाता जा रहा है दिलो दिमाग पर? हर काम को वह झल्लाहट के साथ करने लगी है.उसे लगता है इस झल्लाहट ने उसके दांतो और नाखूनो को तीखा कर दिया है..और वह सभी को बात बात पर जख्मी कर देने पर तुल गयी है.सच तो यह है कि वह अकेले जीते जीते थक जाती है,दीवारों के साथ,पेंटिग्स के साथ और इन सारी सुख सुविधाओं के साथ.अब वे सारे ऐशो आराम जो कभी उसे एड्वेन्चर लगते थे,डराने लगे हैं और वह भाग कर दूर जाना चाहती है,पर कहां जाय ? यहां तो बाज़ार जाने,पास पड़ोसियों से मेल जोल रखने की भी मनाही है.
उसे अक्सर अपना अतीत याद आता है.वे इस पर रोक नहीं लगा पाय.उसे याद है अपना वह छोटा सा घर,भाई बहन के झगड़ों-उधमों से परेशान मां का झुर्रियोंदार चेहरा कमरे के कोने में पड़ी आराम कुर्सी पर लेट कर अखबार के प्रथम प्रिष्ठ्से ले कर आखिरी प्रिष्ठ तक चाट जाने वाले पिता जी!हालत यह कि आटे का कनस्तर अक्सर खाली पड़ा रहता.जिस दिन पिता जी वहां नहीं मिलते वह समझ जाती,आज या तो कनस्तर खाली है या फ़िर दाल नहीं है.मां की नाक इन दिनो विषेश चढी रहती.हलां कि उस पर तो वे यूं भी बरसती.सारी गरीबी के बावजूद उसके अपार सौन्दर्य और गठित देहयष्टि पर मां की आंख पड़ी नहीं कि उनके आशीर्वचन हांला कि बाद मे अकेली जब बाहर देहरी पर बैठती ,तब सांझ का दिया जला कर ,वह उनके समीप बैठ जाती-तो सह्सा उनकी आंखे नम हो जातीं और कहतीं,"मैं भी पापी हूं रे! कितना कुछ कह जाती हूं.पर सब तेरे भले के लिये ही तो!" और उसका हाथ दबा देती.
उसे याद है ,मां की संदेह द्रिष्टी स्कूल से लौटने तक उसका पीछा करती ही है.वह स्कूल में होती तब भी हर क्षणुन दो आंखों की चुभन मह्सूस करतीऔर अब लगता है,वह यही अनुभुति है,जिसकी वजह से वह अपने जिन्दा होने के एह्सास को नकारती रही है.
उस स्कूल के पूरे मौहाल में एक चेहरा याद आता है---अतुल का.
अतुल उसका पड़ोसी था,स्कूल का साथी.उसके आने से मां को एक बिन मांगा नौकर मिल गया.और उसे एक प्यारा साथी,जिसके आने के बाद उसे अपना जीवन अर्थपूर्ण लगने लगा था.कब वह घर का अतुल होता हुआ उसका अतुल हो गया ,वह जान ही नहीं पाई.मां को उसका आना-जाना अच्छा लगता था.एक काम काजी बेटा जो मिल गया था.दीपू और मंगू तो इतने छोटे थे कि उनका काम भी मां को ही करना पड़ता था.पापा को राजनीति की गर्म चर्चा करने वाला एक साथी मिल गया था.उन्हें तो अतुल की एक दिन की भी गैरमौजुदगी अखरती.मतलब यह कि अतुल के आने जाने से घर भर को सुविधा थी.बस एतराज था तो उन सपनों से जो उन दोनो ने रौशनी में बुने थे.
" ही इज ए बास्टर्ड ." पापा चिल्लाये थे ,जिस दिन उसने अपना प्रस्ताव रखा था.
" न अपना कुल,न अपना गोत्र ! कहीं ऐसे में रिश्ते टिकते हैं ? फ़िर कमाना तक भी शुरु नहीं किया और मंजनू पहले बन गये!"पापा का गुस्सा काफ़ी देर तक उफ़नता रहा था..मां भी रसोई में उसे बिठा कर सुनाती रही.
किसी ने उससे पूछने की आवश्यकता नहीं समझी थी शायद!वे तो मानो मान बैठे थेकि बेटी उनकी इज्जत सरे आम उतार फ़ेंक रही है.मां ने आंखो को छोटा कर के यह भी पूछा था," कहीं कुछ गलत सलत तो नहीं कर बैठी री लड़की?"उसने हर हिलाया था,पर बर्बस उसकी आंखों में आंसू आ गये थे.क्या सोचते हैं ये लोग? पहचान होने या प्यार होने का मतलब सिर्फ़ साथ लेटना ही तो नहीं होता.
पापा ने उसे पास बिठा कर दुलराते हुये कहा था," बेटी ,तुम्हारे भले के लिये जो कह रहा हूं उसे अन्यथा मत लेना.आज तुम्हें सब अनुचित भले ही लगे,कल जब तुम सोचोगी,सब सही ,सहज और आवश्यक लगेगा.मैंने तुम्हारा नाम प्यार से नहीं सार्थकता के साथ अलकनन्दा रखा था..."आगे कुछ नहीं बोले थे वे.उनकी गोद में सर रख कर रोती रही थी वह.
अतुल चला गया था ,उससे विदा लिये बिना.उसकी बहन ने बताया था,उसका सेलेक्शन कानपुर आई.आई.टी .में हो गया है और वह वहीं चला गया है.उस दिन वह घर लौट कर बिना खाये पिये ही सो गयी थी.किसी ने पूछा तक नहीं,फ़िर घर की अवस्था भी कुछ ऐसी थी कि एक वक्त का खाना बच जाना उनके लिये गैर मामूली बात नहीं थी.लड़की का भूखा सो जाना उन्हें सहज जरूर लगा था.अतुल का उससे बिना मिले चले जाना ,उसे असह्य हो उठा था.
कुल गोत्र को आड़े रख कर उसके और अतुल के सम्बन्धो की धज्जियां उड़ा दी गयीं.अब यहां कौन से रिश्ते कायम रह गये.?वहां कम से कम प्यार तो रौशनी में बुना गया था,यहां तो रिश्ते ही अंधेरे में जी रहे हैं.कुल गोत्र का पता तो दूर ,वह तो उनका पूरा नाम भी नहीं जानती.
’बस सुहाग ही तो नहीं रहेगा न?" उसे आश्चर्य हुआ था,यह वही मां बोल रही है,जो हर सोमवार कैलाश-मन्दिर में अपने सुहाग की रक्षा के लिये माथा टेकने जाती है.यह वही मां है जिसने अतुल को ले कर काण्ड खड़ा किया था? या ये वही पापा हैं जिन्होंने नाम की दुहाई दे कर उसकी अर्थवत्ता बनाये रखने का आग्रह किया था.पर हकीकत से बड़ा कुछ नहीं होता.यह वही मां थी.वही पापा.वे जब पारिवारिक मित्र त्रिपाठी जी के हाथ प्रस्ताव ले कर आये थे,तो मां और पापा किंकर्त्तव्यविमूढ हो गये थे.उसका पूरा विश्वास था ,पापा उसी तरह चिल्लायेगे," यू आर अ बासटार्ड." इतनी बड़ी बात कहने की हिम्मत कैसे हुई पर उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब वे दोनों मौन रहे थे.एक दिन की मोहलत तो त्रिपाठी जी ने नाजुक स्थिति का अन्दाजा लगा कर दिला दी थी और वह ब्यूक गाड़ी उनके दरवाजे से धूल उड़ाती चली गयी थी.
कैसा प्रस्ताव था यह?न विवाह का ,न मन्त्रोच्चार का झंझट! वह शादी शुदा ,बाल बच्चेदार ,अति सम्पन्न व्यपारी थे,जिन्हें अपने भरे पूरे परिवार को कलकत्ते में छोड़ कर बम्बई में रहना पड़ता था.कलकत्ते का कारोबार उनके भाई संभालते.बम्बई में सारे दिन व्यस्त रहते पर सांझ घिरते ही उनका अकेलापन उन्हें शून्यता से भर देता.उन्हें एक केयर-टेकर चाहिये और वह भी लड़की,जो वहां उनके साथ रह सके.उनकी उस व्यस्तम जिन्दगी में से हासिल बचे क्षणों में साथ निभा सके- बिल्कुल पत्नी की तरह पर समाजिक तौर पर नहीं,निजी जिन्दगी में ,बंद दीवारों के बीच,सामाजिक भद्दे शब्दों में ’रखैल.
उसे इस प्रस्ताव पर आश्चर्य हुआ था,त्रिपाठी जी ने पापा को विश्वास दिलाया था की वे अलका को देख चुके हैं और कई दिनों से प्रस्ताव रखने में हिचकिचा रहे थे.यह तो त्रिपाठी जी ने उन्हें आश्वासन दिया है .काफी देखे ,भले सुने आदमी है .तकलीफ नहीं होगी.बिलकुल सुविधाओं से लाड देगे .बस,अलका राज करेगी .बम्बई में उसका परिचय किसे मालूम होगा ? आस पड़ोस वाले खुद ब खुद पति पत्नी समझाने लगेगे - कौन मांगता है शादी का सर्टिफिकेट. वे अपनी बात पापा तक पहुचाते पंहुचाते माँ की ओर देख लेते .
" अगर आपको एतराज हो तो यही घर में माला बदलवा लेते है ,ठाकुर जी के सामने !"
उन्होंने एक जोरदार तीर मारा था और वही तीर था जो निशाने पर लग गया .मां और पापा उस रात देर तक बाहर नीम तले बैठे रहे थे .वह उनकी बातें सुनने की आशा में तीन बार दरवाजे तक आयी,पर कुछ भी नहीं सुन पाई.
अगली सुबह मां ने उसे चाय देते हुये पूछा था," तुम्हारा क्या ख्याल है अलका?" कुछ क्षण मौन घहराया ही रहा.दोनों खामोश थे,अपने अपने अर्थों में.और उस खामोशी को वह किसी भी मूल्य पर तोड़ कर कोई भी कसैला घूट अपने भीतर नहीं उतारना चाहती थी.चुप रही वह.मां ने उसकी ओर देखा था,मानो वह दोबारा वह सवाल उठाते हुये डर रही हों.
" तुम लोगो ने क्या सोचा?" उसने सवाल को धुयें के छल्ले की तरह उनकी ओर लौटा दिया.मां चुप रही,मानो किसी तकलीफ़ को आंधी की तरह भीतर ही भीतर झेल रही हो.उनके चेहरे का तनाव क्षण भर में गायब हो गया. फ़िर पुचकारती सी बोली थी,"हम तो चाहते ही हैं,तुम सुखी और सम्पन्न रहो.तुम्हें एक भले घर में ब्याह दें - यह हमारा सपना था.हमारी इच्छा भी यही है.पर इच्छा से क्या होता है?"
उसे लगा था,वे झूठ बोल रहीं हैं.रहा होगा कभी वह सपना,पर बारी बारी से चार बच्चों के जन्म के बाद कहां खो गया वह,जो अब ढूढे नहीं मिल रहा.पापा केवल गली से गुजरती बारात को तमाशबीन की तरह देख सकते हैं बस! उसे आश्चर्य हुआ सोच कर कि आर्थिक विपन्नताओं में नैतिकता की सीमा को सुविधानुसार विस्तरित एंव संकुचित करने की अपार क्षमता होती है.उसका जी चाहा था,किसी अर्थशास्त्री और नैतिकशास्त्री से पूछे कि इनका मिलाजुला समाजशास्त्र कैसे बनेगा? उसने तो कभी सुविधाओं की शिकायत नहीं की थी ! फ़िर सत्रह वर्षों से वह इसकी आदी हो गयी है.सहसा मां को इसका ख्याल क्यों आया? नैतिकता का अनकहा बोध सिर्फ़ उसके भीतर ही बच रहा था.
अब जब वह घर गयी थी ,तो नये बदले घर की सुविधाओं को देख कर उसे विश्वास हो गया था कि सुविधा की जरूरत उसे नहीं ,घर वालों को थी.उसे याद है,पिछली बार पापा अपराधी की तरह सिर झुकाये बैथे रहे थे.उसका जी हुआ था ,वह कह दे कि जिस समपन्नता के लिये मुझे बच कर आज अपने को अपराधी महसूस कर रहे हैं,वह मुझे भी सुरक्षा नहीम दे पायी है.संपन्नता सुख सुविधाओं से नहीं ,खुद को गहराई से समझने और समझ कर उसे जीने से पनपती है.वह अकेले में बैठ कर जब भी सुख दुःख के गणित को परखना चाहती है,उसे हमेशा दुःख का पलड़ा ही भारी लगता रहा है.अपनी सारी सुख संपन्नता उसे एकदम अवैध लगने लगती है.उसे अक्सर लगता है,जैसे पूर्वाग्रहों की काली परछाई अक्सर उसके चेहरे पर छा जाती है.
वह घर गयी थी सिर्फ़ अपने स्म्रिति शेष अतीत को भरने ,भोगने और फ़िर से ताजा करने के लिये.पर उसे वहां जा कर मह्सूस हुआ,अतीत बस पोस्टर कलर की तरह है.एक जमाना था,जब,वे चटख थेव,सजीव थे,पर बहुत जल्द फ़ीके पड़ जाते हैं.रंग दोबारा घोला नहीं जाता,उसी सानुपातिक मिश्रण में .और उसे अपना जामा ऊपर से फ़ेर दिये गये ब्रश सा लगने लगा था.
मां ,मां न हो कर सुविधाओं की पूर्ति करने वाली नौकरानी हो कर रह गयी थी .उसकी हर सुविधा का ख्याल वह जब भी रखती उसे सबकी याद आ जाती.पुरानी मां की तो छाया तक शेष नहीं रह गयी थी.शायद उन्हें अपनी नयी अर्जित सुविधाओं में जीते जीते उसके प्रति क्रितग्यता का भाव व्यक्त करने के अलावा और कोई लगाव नहीं रह गया था.
वह कितना चाहती रही थी कि दीपू,मंगू और नन्हीं पंखे के लिये उससे झगड़े,मां उसे इस उस बात के लिये टोकें ,पर वह तो जैसे अजनबी हो गयी थी.वह बुरी तरह ऊब उठी थी.
इत्त्फ़ाक से उन्हीं दिनों त्रिपाठी जी की भतीजी का ब्याह था.पापा और मां दोनों नहीं गये थे.पापा कमरे की बत्ती बुझा कर लेट गये थे और मां ठाकुर जी के सामने बैठ कर रामचरित मानस पढने लगी थी.उसके भीतर कई कई सवाल उफ़नने लगे थे,जो भीतर ही घुल गये.शब्दों की कड़ुआहट को होठों तक ला कर मुंह का जायका भक्भका करना उसे फ़ालतू लगा था.लगा था जैसे मां और पापा ने छोटे छोटे चौखटे बना लिये थे,जिनमें वे अपने चेहरे फ़िट नहीं कर पा रहे थे.इसी बोध ने उसे असहज बना दिया था.
वह समझ नहीं पा रही थी कि यह सब उसके सामने स्वांग रचा जा रहा है या फ़िर वे सचमुच अपने भीतर की सच्चाई के सामने घुटने टेक चुके हैं.कुछ भी हो उसे क्या फ़र्क पड़ता .वह गयी थी दो महीने के लिये ,दस दिन मे ही.फ़िर कभी नहीं गयी. लौट आयी थी.लौटते समय मां ने व्यवहारी तौर पर साड़ी और सिंदूर की डिबिया दी थी.उसे याद है लौट कर साड़ी तो उसने सहेज ली थी और सिंदूर की डिबिया रामी को दे दी थी.
बचपन में पश्चिम में फ़ैलती उस सिंदूरी आभा को देख हमेशा उसके मन में एक ख्याल पलता.वह भी मांग में खूब सिंदूर भर कर वहां खड़ी हो जाय. मानो होड़ लेना चाहती हो.उसने एक बार स्वेच्छा से थोड़ी मांग भर भी लाथी तो वह बोलेथे,’तुम मांग भर कर मत चला करो.लगता है,किसी पराई औरत को लिये जा रहा हूं."
घर जा कर उसने मांग रगड़ रगड़ कर पोंछ ली थी.मांग की जलन तो बुझ गयी,पर मन में एक दरार सी पड़ गयी थी,जो आज तक नहीं निकल पाई.
संस्कारों के प्रति अंधभक्ति कभी नहीं रही,पर बाज वक्त उनकी विरक्ति और इस तरह के वाक्यों को देख-सुन कर उसे लगता जैसे वह खुद उधार की चीज है,जिसे किसी को लौटाने को वह व्यग्र हैं.कहां छोड़ आते है अपना पौरुष? प्रेयसी के लिये कुछ कर गुजरने का आवेग कहां चला जाता है?
पिछले दो साल उनके साथ जीते जीते,वह उन्हें बहुत कुछ जानने लगी है. हालांकि उसके साथ उनका कम समय ही गुजर पाता है.अब वे बम्बई से बाहर भी जाने लगे हैं.दोनों के बीच के उम्र के फ़ासले को वह पचा जाती है पर जब वे खुशामदी तरीके से उसका शरीर सहलाते हैं तो उसे उनके पौरुष में पति या प्रेमी के बजाय पापा नज़र आने लगते हैं.उसे अक्सर मह्सूस होता .अगर वह उसके साथ सब जोर जबर्जस्ती करें तो उसे शायद नार्मल लगे.
शुरु शुरु में उसके प्रति उनके प्यार और स्नेह ने उसे इतनी अद्भुत स्फ़ूर्ति दी थी कि जीवन की सारी विसंगतियों को पूरे माद्दे के साथ जीने का अहम उसके भीतर घर कर गया था.उनके प्यार सम्मान को पा कर उसके भीतर का घाव कहीं भरने लगा था और वह स्वस्ति का अनुभव करने लगी थी.उसने एकाध बार मह्सूस भी किया कि इतनी मोहक स्थिति और उन्मुक्त भविष्य को चुनने में उसने इतना वक्त क्यों खराब किया.ऐसा कौन सा कोण था कि उसे इस सारे सुखों को स्वीकारने में भी हिचकिचाहट हो रही थी.वह घटना नहीं घटतीतो वह शायद आज बेहद आश्वस्त और सुरक्षित महसूस करती.
घटना बेहद छोटी थी.उन्होने ही एक पत्र के साथ अपने मित्र सक्सेना को भेजा था.वह आया.उसने उसे कमरे में ठहरा दिया थी.सारा प्रबन्ध उसने और रामी ने मिल कर किया था.उसे पहली बार लगा ,वह ग्रिहणी के सम्मान सहित अतिथि सत्कार कर रही है.
शाम ढलते ही रामी आयी थी," साहब आपको बुला रहे हैं."
" क्या कर रहे हैं ?"उसने उत्सुकता जाहिर की थी.
रामी ने हाथ के अंगूठे से होंठो को छुआ था.वह भारी मन से उठ गयी थी.आरम्भ की औपचारिकता के बाद वह सहजता पर उतर आया था.वह सहजता उसे भली नहीं लगी थी.और सहसा जब उसने कंधे पर हाथ रख उसे भींच लेना चाहा ,तो वह छिटक कर अलग हो गयी थी."रखैल को भी सतीत्व की चिंता है?" और उसका ठहाका गूंज गया था.
जब वह आये थे,तब उसने सारी बातें निहायत अंतरंग क्षणो में रुक रुक कर बताई थी.उसका ख्याल था ,सुनते ही वे भड़केगे.सक्सेना को मार डालने की धमकी देंगे,उसे पुचकार कर चूम लेंगे.पर ऐसा कुछ नहीं हुआ.वे मौन सुनते रहे और वह उनके सीने से लग कर रोती रही.कुछ क्षण बाद एक एक शब्द मानो तौल-तौल कर उन्होंने कहा," यह तो बहुत बुरा हुआ." आगे की प्रतिक्रिया जानने के लिये वह उनकी ओर देखती रही थी.फ़िर वह उसे देखते हुये बोले थे" पिछली बार उसने जो कान्ट्रेक्ट साइन किये थे,पिछले हफ़्ते तोड़ दिये.हमारा नुकसान ढाई लाख का हुआ.मैं तब कारण नहीं समझ पाया था."
" अब समझ में आ गया न?" उसने तीखा हो जाना चाहा.वे मुस्कुरा दिये थे और उसे चिपका लिया था.वह चुपचाप उनके नाइट सूट के बटनों से खेलती रही थी.कुछ देर दोनों के बीच मैन पसर गया था.
" एक बात कहूं ,अलका?"
" हां ," उसने सर उनकी ओर घुमाया
" क्या होता अगर उसे चूम ही लेने देती ?"
वह छिटक कर उठ बैठी थी.वे जैसे स्थिति संभालने की कोशिश करते हुये बोले थे,’ मेरा मतलब है ,तुम इतनी माड पढी लिखी लड़की हो,अब भी उन फ़िजोल्ल के संस्कारों से बंधी हो ? शारीरिक पवित्रता जैसी नैतिकता क्या फ़ालतू नहीं लगती.?"
वह उन्हें घूर रही थी.सहसा उसने कह दिया,"अगर संस्कारों से इतनी ही बंधी होती तो मां बाप के बेच देने पर यहां चली नहीं आती."
’तो फ़िर क्या झगड़ा है?"वे हंस पड़े थे.
वह शांत्नहीं हो पाई थी.
"तुम सोचते होगे,सुख सुविधाओं के लिये तुम्हारे पास आयीं हूं,क्यों? नहीं," उसने जोर दे कर यकीन दिलाना चाहा था," यह सब तो तब भी कुछ अंशों में मिल ही जाता ,यदि मैं किसी और के साथ ब्याही जाती."’ब्याही’ शब्द पर जोर दे कर उसे संतोष मिला था.
रात कड़ुआहट में बदल रही थी.
"अच्छा ,अब दो दिनों के लिये आया हूं इसी तरह लड़ोगी?" उनका वाक्य था या चुम्बक?वह सारा आक्रोश भूल कर उनसे चिपक गयी थी.वह जो पूछना चाहती थी कि क्या वे अपनी पत्नी के साथ हुई किसी तत्सम घटना पर भी ऐसी ही प्रतिक्रिया व्यक्त करते,नहीं पूछ सकी.उसे लगा था ,वह पहली बार समझदार हो गयी है.सब कुछ कह देने के बजाय कभी कभी चुप रह जाना आपसी तनाव को ढीला कर जाता है.टकराने की तुलना में टाल जाना उसे बेहतर निर्णय लगा था और उसने निर्णय ले लिया था.उस रात की मिय़्हास सुबह तक नहीं भूल पायी.उनके बीच की मानसिक दूरी शारीरिक सामीप्य्के कारण पिघल गयी थी.और वही सामिप्य सच लगने लगा था,जिसे उसने कुछ दिनों पूर्व उम्र के फ़ासले के साथ जोड़ कर असहज और असंगत मान लिया था.
आज वे पहली बार उस घटना के बाद आ रहे हैं.उनको सुनाने के लिये उसके पास कुछ भी नहीं है सिवा अपने भीतर होने वाले शारीरिक परिवर्तन के.उन क्षणों को उनके साथ बांटना चाहती है पर कहीं से उसे एक अधूरापन घेर रहा है.वे इस घटना को सहज लेगें वह जानती है पर कहीं कुछ है जो उसे सहज नहीं होने दे रहा.उसे अपने ’मैं’ के साथ जीने की पूरी आज़ादी थे पर उस जिंदगी में वह खुद कहां रह पाई है.
उसकी आंखे दुखने लगी थीं उसने धीरे से करवट बदली.दरवाजा हल्की आवाज के साथ खुला और रामी भीतर
थी.
"मेमसाहब,चार बज गये हैं .पानी तैयार है." उसके वाक्य ने उसे उठा दिया.
तैयार होते वह प्रसन्न होने का प्रयास करने लगी.सारी जिन्दगी उनकी अनुपस्थिति में एकरस हो कर ऊब का करण बन गयी थी और उसी ऊब की परिणिति थी यह उदासीनता.उनका यूं आ जाना एक सुखद व्यतिक्रम जरूर था पर दिनूं तक जीते चले आ रहे उस खोल से बाहर आने में भी तो समय लगता है न!
वह तैयार हो गयी थी,अन्तिम टच देते देते उसके हाथ रुक गये थे.दरवाजे पर वे दोनों बाहें फ़ैलाये मुस्कुराते हुये खड़े थे.वह मुड़ कर उनकी ओर लपकी.काफ़ी देर तक वे उसे चूमते रहे.वह भी बेहोश सी आलिंगनबद्ध राही.होश तब आया जब उनके हाथ रुके और उनकी हांफ़ती आवाज और बढे पेट से नफ़रत सी हो आयी.
चाय पीते सहसा वे बोले,"मराठा मन्दिर चलें?" वह खुश थी इस प्रस्ताव से.अरसे बाद बाहर जाने का अवसर मिला था.उनकी अनुपस्थिति में अकेले बाहर जाते उसे अपना आपा अरक्षित लगता.हांलाकि अब यह अनुभुति उनके साथ जीने के बावजूद जुड़ चुकी है.
शो शुरु हो चुका था.अंधेरे में अपनी सीट टटोलते दोनों बैठ गये.हड़बड़ी में उसका हाथ पास की सीट पर बैठे व्यक्ति से छू गया थाऔर उसने हाथ खींच लिया था.सारे समय वे अपने हाथ से उसकी कमर घेरे ही रहे.वह चुपचाप पर्दे की ओर आंखे गड़ाये बैठी रही .मध्यान्तर र्में वे उठे.वह साल ओढे बैठी रही.सहसा किसी के स्पर्श से चौंक गयी.
’अतुल!’वह चौंक उठी.एक हर्षमिश्रित आश्चर्य से उसकी आंखें फ़ैल गयीं."तुम"
उसके स्वर के आश्चर्य पर वह हंसता हुआ बोला."हां अलका,इधर टी. आई .एफ़. आर.में पिछले महीने ही एप्वाइंट्मेंट हुआ है.फ़िल्हाल लाज में हूं."
"तुम कैसी हो.बहुत दुबला गयी हो." उसने सारी बातें व्यग्रता से कह सुन लीं.वह अपने शब्द तलाश रही थी.उसके स्वर में वही स्नेह,वही आत्मीयता बरकरार है ,जिसने उसे पागल कर रखा था.उन दिनों कितनी बार उसका जी चाहा था कि इस आत्मीयता के सैलाब से अभिभूत हो कर वही घिसा पिटा पुराना वाक्य दोहरा दे जो सदियों से चला आ रहा है,पर कभी बूढा नहीं हुआ.’नायंभूत्वा.....’ उसे गीता याद आने लगी. पता नहीं क्यों अतुल के पास होते ही उसे अच्छी अच्छी बातें याद आने लगती हैं?वरना उनके पास जाते ही डबल बेड के सिवा कुछ नहीं सोच पाती.
वे कब आये पता ही नहीं चला.वह उनसे बेखबर उससे बातें पूछती रही थी.उसका अतीत लौट आया था.फ़िल्म शुरु हो गयी थी और अतुल उससे विदा ले कर अपनी सीट पर लौट गया था.जल्दी में उसका पता भी नहीं पूछ पायी थी.खैर फ़िल्म खत्म होते ही ,मिल कर पूछ लेगी.उसने अपने को आश्वस्त करते हुये सोचा.चुप थे वे.
" पहचान का था क्या?"उसकी ओर मुड़ कर उन्होंने सवाल किया.वह पर्दे की ओर देख रही थी .उसे समझने में देर लगी कि सवाल उससे किया गया है.वरना वह उसे भी फ़िल्म का एक डायलाग समझ बैठी थी.
"हां,हमारे ही शहर का है" अंधेरे में उसकी आंखें चमक गयीं.
वे चुप रहे.थोड़ी देर बाद उन्होंने धीरे से कहा," सिर में दर्द होने लगा है,चलें"
उनके इस अचानक सिर दर्द का कारण वह नहीं समझ पायी.पिक्चर खत्म होने के घंटे भर पहले वे उठ आये.सीढीयां उतरते वक्त उन्होंने उसके कंधे का सहारा लिया.वह चुचाप चलती रही.वे कार चलाते वक्त मौन थे.उनके मुंह में रखी सिगरेट को उसने आदतन जला दिया.
"यहां रहता है क्या?"वे कड़ी दोबारा जोड़ना चाहते थे शायद.पूछ क्यों नहीं लेते एक बार में सब कुछ? पर उसने थूक निगलते हुये कहा ,"हां"
चुप्पी फ़िर पसर गयी.रात वे चुचाप लेट गये.वह इस चुप्पी से आश्वस्त थी.उनके सवालों के पैनेपन को झेलने में अब स्वयं को अक्षम पाने लगी है वह.उसने उनका सूट्केस तैयार किया.कल ही सबेरे उन्हें हफ़्ते भर के लिये फ़िर जाना था.
वे छत की ओर एकटक देख रहे थे.और दिन होता तो वे इतनी देर बर्दाश्त नहीं कर पाते.
" बहुत अच्छा लगता है न वह?"
उनके स्वर में एक खास किस्म की उत्तेजना थी पर उसका यकीं था कि वे उत्तेजित होने वाली उम्र से कई मील के पत्थर आगे आ चुके हैं.उसका मन हुआ कि चीख कर पूछे कि ,’हां तो क्या कोई नियम है क्या कि मुझे आपके बिजनेस पार्टनर ही अच्छे लगें?" पर चीख नहीं सकी.वे जवाब पाने के लिये निरुद्विग्न से लगे.वह जानती है,यह कोशिश उनके तमाम उम्र के अनुभव की उपज है.पर उनकी परेशानी वह साफ़ अनुभव कर रही थी.वे मानो उस उम्र में लौट जाना चाहते हों,जहां अपने और प्रियजन के बीच में के किसी तीसरे के एह्सास मात्र से मन ढेरों काल्पनिक दुखों,घटनाक्रमों से बोझिल होने लगता है.और अपने विकल्प हो जाने के एहसास मात्र से तीखा हो जाता है.शायद वह उसी उम्र को उधार ले कर जीना चाहती है.उसे भीतर कहीं हल्की खुशी हुई. परिणाम चाहे जो हो ,पर उनके भीतर उफ़नते हुये उस एहसास से वह भीतर ही भीतर अभिभूत हो उठी.उनके चेहरे की झुर्रियां ,सफ़ेद चमकते बाल,बढती तोंद ,सब उसे नार्मल लगे.
वह मुस्कुरा दी.उसने उनके पास जा कर उनका चेहरा अपने हाथों में ले लिया.
"आपसे ज्यादा नहीं".यह वह बोल रही थी.वह हंस दिये-धीमे से किसी आश्वस्त बालक की तरह.उसके सामने वे थे,एक नये चुनौतीपूर्ण ढंग में.इसे झेलना उसे सुखद लगने लगा था.
अगली सुबह मां ने उसे चाय देते हुये पूछा था," तुम्हारा क्या ख्याल है अलका?" कुछ क्षण मौन घहराया ही रहा.दोनों खामोश थे,अपने अपने अर्थों में.और उस खामोशी को वह किसी भी मूल्य पर तोड़ कर कोई भी कसैला घूट अपने भीतर नहीं उतारना चाहती थी.चुप रही वह.मां ने उसकी ओर देखा था,मानो वह दोबारा वह सवाल उठाते हुये डर रही हों.
" तुम लोगो ने क्या सोचा?" उसने सवाल को धुयें के छल्ले की तरह उनकी ओर लौटा दिया.मां चुप रही,मानो किसी तकलीफ़ को आंधी की तरह भीतर ही भीतर झेल रही हो.उनके चेहरे का तनाव क्षण भर में गायब हो गया. फ़िर पुचकारती सी बोली थी,"हम तो चाहते ही हैं,तुम सुखी और सम्पन्न रहो.तुम्हें एक भले घर में ब्याह दें - यह हमारा सपना था.हमारी इच्छा भी यही है.पर इच्छा से क्या होता है?"
उसे लगा था,वे झूठ बोल रहीं हैं.रहा होगा कभी वह सपना,पर बारी बारी से चार बच्चों के जन्म के बाद कहां खो गया वह,जो अब ढूढे नहीं मिल रहा.पापा केवल गली से गुजरती बारात को तमाशबीन की तरह देख सकते हैं बस! उसे आश्चर्य हुआ सोच कर कि आर्थिक विपन्नताओं में नैतिकता की सीमा को सुविधानुसार विस्तरित एंव संकुचित करने की अपार क्षमता होती है.उसका जी चाहा था,किसी अर्थशास्त्री और नैतिकशास्त्री से पूछे कि इनका मिलाजुला समाजशास्त्र कैसे बनेगा? उसने तो कभी सुविधाओं की शिकायत नहीं की थी ! फ़िर सत्रह वर्षों से वह इसकी आदी हो गयी है.सहसा मां को इसका ख्याल क्यों आया? नैतिकता का अनकहा बोध सिर्फ़ उसके भीतर ही बच रहा था.
अब जब वह घर गयी थी ,तो नये बदले घर की सुविधाओं को देख कर उसे विश्वास हो गया था कि सुविधा की जरूरत उसे नहीं ,घर वालों को थी.उसे याद है,पिछली बार पापा अपराधी की तरह सिर झुकाये बैथे रहे थे.उसका जी हुआ था ,वह कह दे कि जिस समपन्नता के लिये मुझे बच कर आज अपने को अपराधी महसूस कर रहे हैं,वह मुझे भी सुरक्षा नहीम दे पायी है.संपन्नता सुख सुविधाओं से नहीं ,खुद को गहराई से समझने और समझ कर उसे जीने से पनपती है.वह अकेले में बैठ कर जब भी सुख दुःख के गणित को परखना चाहती है,उसे हमेशा दुःख का पलड़ा ही भारी लगता रहा है.अपनी सारी सुख संपन्नता उसे एकदम अवैध लगने लगती है.उसे अक्सर लगता है,जैसे पूर्वाग्रहों की काली परछाई अक्सर उसके चेहरे पर छा जाती है.
वह घर गयी थी सिर्फ़ अपने स्म्रिति शेष अतीत को भरने ,भोगने और फ़िर से ताजा करने के लिये.पर उसे वहां जा कर मह्सूस हुआ,अतीत बस पोस्टर कलर की तरह है.एक जमाना था,जब,वे चटख थेव,सजीव थे,पर बहुत जल्द फ़ीके पड़ जाते हैं.रंग दोबारा घोला नहीं जाता,उसी सानुपातिक मिश्रण में .और उसे अपना जामा ऊपर से फ़ेर दिये गये ब्रश सा लगने लगा था.
मां ,मां न हो कर सुविधाओं की पूर्ति करने वाली नौकरानी हो कर रह गयी थी .उसकी हर सुविधा का ख्याल वह जब भी रखती उसे सबकी याद आ जाती.पुरानी मां की तो छाया तक शेष नहीं रह गयी थी.शायद उन्हें अपनी नयी अर्जित सुविधाओं में जीते जीते उसके प्रति क्रितग्यता का भाव व्यक्त करने के अलावा और कोई लगाव नहीं रह गया था.
वह कितना चाहती रही थी कि दीपू,मंगू और नन्हीं पंखे के लिये उससे झगड़े,मां उसे इस उस बात के लिये टोकें ,पर वह तो जैसे अजनबी हो गयी थी.वह बुरी तरह ऊब उठी थी.
इत्त्फ़ाक से उन्हीं दिनों त्रिपाठी जी की भतीजी का ब्याह था.पापा और मां दोनों नहीं गये थे.पापा कमरे की बत्ती बुझा कर लेट गये थे और मां ठाकुर जी के सामने बैठ कर रामचरित मानस पढने लगी थी.उसके भीतर कई कई सवाल उफ़नने लगे थे,जो भीतर ही घुल गये.शब्दों की कड़ुआहट को होठों तक ला कर मुंह का जायका भक्भका करना उसे फ़ालतू लगा था.लगा था जैसे मां और पापा ने छोटे छोटे चौखटे बना लिये थे,जिनमें वे अपने चेहरे फ़िट नहीं कर पा रहे थे.इसी बोध ने उसे असहज बना दिया था.
वह समझ नहीं पा रही थी कि यह सब उसके सामने स्वांग रचा जा रहा है या फ़िर वे सचमुच अपने भीतर की सच्चाई के सामने घुटने टेक चुके हैं.कुछ भी हो उसे क्या फ़र्क पड़ता .वह गयी थी दो महीने के लिये ,दस दिन मे ही.फ़िर कभी नहीं गयी. लौट आयी थी.लौटते समय मां ने व्यवहारी तौर पर साड़ी और सिंदूर की डिबिया दी थी.उसे याद है लौट कर साड़ी तो उसने सहेज ली थी और सिंदूर की डिबिया रामी को दे दी थी.
बचपन में पश्चिम में फ़ैलती उस सिंदूरी आभा को देख हमेशा उसके मन में एक ख्याल पलता.वह भी मांग में खूब सिंदूर भर कर वहां खड़ी हो जाय. मानो होड़ लेना चाहती हो.उसने एक बार स्वेच्छा से थोड़ी मांग भर भी लाथी तो वह बोलेथे,’तुम मांग भर कर मत चला करो.लगता है,किसी पराई औरत को लिये जा रहा हूं."
घर जा कर उसने मांग रगड़ रगड़ कर पोंछ ली थी.मांग की जलन तो बुझ गयी,पर मन में एक दरार सी पड़ गयी थी,जो आज तक नहीं निकल पाई.
संस्कारों के प्रति अंधभक्ति कभी नहीं रही,पर बाज वक्त उनकी विरक्ति और इस तरह के वाक्यों को देख-सुन कर उसे लगता जैसे वह खुद उधार की चीज है,जिसे किसी को लौटाने को वह व्यग्र हैं.कहां छोड़ आते है अपना पौरुष? प्रेयसी के लिये कुछ कर गुजरने का आवेग कहां चला जाता है?
पिछले दो साल उनके साथ जीते जीते,वह उन्हें बहुत कुछ जानने लगी है. हालांकि उसके साथ उनका कम समय ही गुजर पाता है.अब वे बम्बई से बाहर भी जाने लगे हैं.दोनों के बीच के उम्र के फ़ासले को वह पचा जाती है पर जब वे खुशामदी तरीके से उसका शरीर सहलाते हैं तो उसे उनके पौरुष में पति या प्रेमी के बजाय पापा नज़र आने लगते हैं.उसे अक्सर मह्सूस होता .अगर वह उसके साथ सब जोर जबर्जस्ती करें तो उसे शायद नार्मल लगे.
शुरु शुरु में उसके प्रति उनके प्यार और स्नेह ने उसे इतनी अद्भुत स्फ़ूर्ति दी थी कि जीवन की सारी विसंगतियों को पूरे माद्दे के साथ जीने का अहम उसके भीतर घर कर गया था.उनके प्यार सम्मान को पा कर उसके भीतर का घाव कहीं भरने लगा था और वह स्वस्ति का अनुभव करने लगी थी.उसने एकाध बार मह्सूस भी किया कि इतनी मोहक स्थिति और उन्मुक्त भविष्य को चुनने में उसने इतना वक्त क्यों खराब किया.ऐसा कौन सा कोण था कि उसे इस सारे सुखों को स्वीकारने में भी हिचकिचाहट हो रही थी.वह घटना नहीं घटतीतो वह शायद आज बेहद आश्वस्त और सुरक्षित महसूस करती.
घटना बेहद छोटी थी.उन्होने ही एक पत्र के साथ अपने मित्र सक्सेना को भेजा था.वह आया.उसने उसे कमरे में ठहरा दिया थी.सारा प्रबन्ध उसने और रामी ने मिल कर किया था.उसे पहली बार लगा ,वह ग्रिहणी के सम्मान सहित अतिथि सत्कार कर रही है.
शाम ढलते ही रामी आयी थी," साहब आपको बुला रहे हैं."
" क्या कर रहे हैं ?"उसने उत्सुकता जाहिर की थी.
रामी ने हाथ के अंगूठे से होंठो को छुआ था.वह भारी मन से उठ गयी थी.आरम्भ की औपचारिकता के बाद वह सहजता पर उतर आया था.वह सहजता उसे भली नहीं लगी थी.और सहसा जब उसने कंधे पर हाथ रख उसे भींच लेना चाहा ,तो वह छिटक कर अलग हो गयी थी."रखैल को भी सतीत्व की चिंता है?" और उसका ठहाका गूंज गया था.
जब वह आये थे,तब उसने सारी बातें निहायत अंतरंग क्षणो में रुक रुक कर बताई थी.उसका ख्याल था ,सुनते ही वे भड़केगे.सक्सेना को मार डालने की धमकी देंगे,उसे पुचकार कर चूम लेंगे.पर ऐसा कुछ नहीं हुआ.वे मौन सुनते रहे और वह उनके सीने से लग कर रोती रही.कुछ क्षण बाद एक एक शब्द मानो तौल-तौल कर उन्होंने कहा," यह तो बहुत बुरा हुआ." आगे की प्रतिक्रिया जानने के लिये वह उनकी ओर देखती रही थी.फ़िर वह उसे देखते हुये बोले थे" पिछली बार उसने जो कान्ट्रेक्ट साइन किये थे,पिछले हफ़्ते तोड़ दिये.हमारा नुकसान ढाई लाख का हुआ.मैं तब कारण नहीं समझ पाया था."
" अब समझ में आ गया न?" उसने तीखा हो जाना चाहा.वे मुस्कुरा दिये थे और उसे चिपका लिया था.वह चुपचाप उनके नाइट सूट के बटनों से खेलती रही थी.कुछ देर दोनों के बीच मैन पसर गया था.
" एक बात कहूं ,अलका?"
" हां ," उसने सर उनकी ओर घुमाया
" क्या होता अगर उसे चूम ही लेने देती ?"
वह छिटक कर उठ बैठी थी.वे जैसे स्थिति संभालने की कोशिश करते हुये बोले थे,’ मेरा मतलब है ,तुम इतनी माड पढी लिखी लड़की हो,अब भी उन फ़िजोल्ल के संस्कारों से बंधी हो ? शारीरिक पवित्रता जैसी नैतिकता क्या फ़ालतू नहीं लगती.?"
वह उन्हें घूर रही थी.सहसा उसने कह दिया,"अगर संस्कारों से इतनी ही बंधी होती तो मां बाप के बेच देने पर यहां चली नहीं आती."
’तो फ़िर क्या झगड़ा है?"वे हंस पड़े थे.
वह शांत्नहीं हो पाई थी.
"तुम सोचते होगे,सुख सुविधाओं के लिये तुम्हारे पास आयीं हूं,क्यों? नहीं," उसने जोर दे कर यकीन दिलाना चाहा था," यह सब तो तब भी कुछ अंशों में मिल ही जाता ,यदि मैं किसी और के साथ ब्याही जाती."’ब्याही’ शब्द पर जोर दे कर उसे संतोष मिला था.
रात कड़ुआहट में बदल रही थी.
"अच्छा ,अब दो दिनों के लिये आया हूं इसी तरह लड़ोगी?" उनका वाक्य था या चुम्बक?वह सारा आक्रोश भूल कर उनसे चिपक गयी थी.वह जो पूछना चाहती थी कि क्या वे अपनी पत्नी के साथ हुई किसी तत्सम घटना पर भी ऐसी ही प्रतिक्रिया व्यक्त करते,नहीं पूछ सकी.उसे लगा था ,वह पहली बार समझदार हो गयी है.सब कुछ कह देने के बजाय कभी कभी चुप रह जाना आपसी तनाव को ढीला कर जाता है.टकराने की तुलना में टाल जाना उसे बेहतर निर्णय लगा था और उसने निर्णय ले लिया था.उस रात की मिय़्हास सुबह तक नहीं भूल पायी.उनके बीच की मानसिक दूरी शारीरिक सामीप्य्के कारण पिघल गयी थी.और वही सामिप्य सच लगने लगा था,जिसे उसने कुछ दिनों पूर्व उम्र के फ़ासले के साथ जोड़ कर असहज और असंगत मान लिया था.
आज वे पहली बार उस घटना के बाद आ रहे हैं.उनको सुनाने के लिये उसके पास कुछ भी नहीं है सिवा अपने भीतर होने वाले शारीरिक परिवर्तन के.उन क्षणों को उनके साथ बांटना चाहती है पर कहीं से उसे एक अधूरापन घेर रहा है.वे इस घटना को सहज लेगें वह जानती है पर कहीं कुछ है जो उसे सहज नहीं होने दे रहा.उसे अपने ’मैं’ के साथ जीने की पूरी आज़ादी थे पर उस जिंदगी में वह खुद कहां रह पाई है.
उसकी आंखे दुखने लगी थीं उसने धीरे से करवट बदली.दरवाजा हल्की आवाज के साथ खुला और रामी भीतर
थी.
"मेमसाहब,चार बज गये हैं .पानी तैयार है." उसके वाक्य ने उसे उठा दिया.
तैयार होते वह प्रसन्न होने का प्रयास करने लगी.सारी जिन्दगी उनकी अनुपस्थिति में एकरस हो कर ऊब का करण बन गयी थी और उसी ऊब की परिणिति थी यह उदासीनता.उनका यूं आ जाना एक सुखद व्यतिक्रम जरूर था पर दिनूं तक जीते चले आ रहे उस खोल से बाहर आने में भी तो समय लगता है न!
वह तैयार हो गयी थी,अन्तिम टच देते देते उसके हाथ रुक गये थे.दरवाजे पर वे दोनों बाहें फ़ैलाये मुस्कुराते हुये खड़े थे.वह मुड़ कर उनकी ओर लपकी.काफ़ी देर तक वे उसे चूमते रहे.वह भी बेहोश सी आलिंगनबद्ध राही.होश तब आया जब उनके हाथ रुके और उनकी हांफ़ती आवाज और बढे पेट से नफ़रत सी हो आयी.
चाय पीते सहसा वे बोले,"मराठा मन्दिर चलें?" वह खुश थी इस प्रस्ताव से.अरसे बाद बाहर जाने का अवसर मिला था.उनकी अनुपस्थिति में अकेले बाहर जाते उसे अपना आपा अरक्षित लगता.हांलाकि अब यह अनुभुति उनके साथ जीने के बावजूद जुड़ चुकी है.
शो शुरु हो चुका था.अंधेरे में अपनी सीट टटोलते दोनों बैठ गये.हड़बड़ी में उसका हाथ पास की सीट पर बैठे व्यक्ति से छू गया थाऔर उसने हाथ खींच लिया था.सारे समय वे अपने हाथ से उसकी कमर घेरे ही रहे.वह चुपचाप पर्दे की ओर आंखे गड़ाये बैठी रही .मध्यान्तर र्में वे उठे.वह साल ओढे बैठी रही.सहसा किसी के स्पर्श से चौंक गयी.
’अतुल!’वह चौंक उठी.एक हर्षमिश्रित आश्चर्य से उसकी आंखें फ़ैल गयीं."तुम"
उसके स्वर के आश्चर्य पर वह हंसता हुआ बोला."हां अलका,इधर टी. आई .एफ़. आर.में पिछले महीने ही एप्वाइंट्मेंट हुआ है.फ़िल्हाल लाज में हूं."
"तुम कैसी हो.बहुत दुबला गयी हो." उसने सारी बातें व्यग्रता से कह सुन लीं.वह अपने शब्द तलाश रही थी.उसके स्वर में वही स्नेह,वही आत्मीयता बरकरार है ,जिसने उसे पागल कर रखा था.उन दिनों कितनी बार उसका जी चाहा था कि इस आत्मीयता के सैलाब से अभिभूत हो कर वही घिसा पिटा पुराना वाक्य दोहरा दे जो सदियों से चला आ रहा है,पर कभी बूढा नहीं हुआ.’नायंभूत्वा.....’ उसे गीता याद आने लगी. पता नहीं क्यों अतुल के पास होते ही उसे अच्छी अच्छी बातें याद आने लगती हैं?वरना उनके पास जाते ही डबल बेड के सिवा कुछ नहीं सोच पाती.
वे कब आये पता ही नहीं चला.वह उनसे बेखबर उससे बातें पूछती रही थी.उसका अतीत लौट आया था.फ़िल्म शुरु हो गयी थी और अतुल उससे विदा ले कर अपनी सीट पर लौट गया था.जल्दी में उसका पता भी नहीं पूछ पायी थी.खैर फ़िल्म खत्म होते ही ,मिल कर पूछ लेगी.उसने अपने को आश्वस्त करते हुये सोचा.चुप थे वे.
" पहचान का था क्या?"उसकी ओर मुड़ कर उन्होंने सवाल किया.वह पर्दे की ओर देख रही थी .उसे समझने में देर लगी कि सवाल उससे किया गया है.वरना वह उसे भी फ़िल्म का एक डायलाग समझ बैठी थी.
"हां,हमारे ही शहर का है" अंधेरे में उसकी आंखें चमक गयीं.
वे चुप रहे.थोड़ी देर बाद उन्होंने धीरे से कहा," सिर में दर्द होने लगा है,चलें"
उनके इस अचानक सिर दर्द का कारण वह नहीं समझ पायी.पिक्चर खत्म होने के घंटे भर पहले वे उठ आये.सीढीयां उतरते वक्त उन्होंने उसके कंधे का सहारा लिया.वह चुचाप चलती रही.वे कार चलाते वक्त मौन थे.उनके मुंह में रखी सिगरेट को उसने आदतन जला दिया.
"यहां रहता है क्या?"वे कड़ी दोबारा जोड़ना चाहते थे शायद.पूछ क्यों नहीं लेते एक बार में सब कुछ? पर उसने थूक निगलते हुये कहा ,"हां"
चुप्पी फ़िर पसर गयी.रात वे चुचाप लेट गये.वह इस चुप्पी से आश्वस्त थी.उनके सवालों के पैनेपन को झेलने में अब स्वयं को अक्षम पाने लगी है वह.उसने उनका सूट्केस तैयार किया.कल ही सबेरे उन्हें हफ़्ते भर के लिये फ़िर जाना था.
वे छत की ओर एकटक देख रहे थे.और दिन होता तो वे इतनी देर बर्दाश्त नहीं कर पाते.
" बहुत अच्छा लगता है न वह?"
उनके स्वर में एक खास किस्म की उत्तेजना थी पर उसका यकीं था कि वे उत्तेजित होने वाली उम्र से कई मील के पत्थर आगे आ चुके हैं.उसका मन हुआ कि चीख कर पूछे कि ,’हां तो क्या कोई नियम है क्या कि मुझे आपके बिजनेस पार्टनर ही अच्छे लगें?" पर चीख नहीं सकी.वे जवाब पाने के लिये निरुद्विग्न से लगे.वह जानती है,यह कोशिश उनके तमाम उम्र के अनुभव की उपज है.पर उनकी परेशानी वह साफ़ अनुभव कर रही थी.वे मानो उस उम्र में लौट जाना चाहते हों,जहां अपने और प्रियजन के बीच में के किसी तीसरे के एह्सास मात्र से मन ढेरों काल्पनिक दुखों,घटनाक्रमों से बोझिल होने लगता है.और अपने विकल्प हो जाने के एहसास मात्र से तीखा हो जाता है.शायद वह उसी उम्र को उधार ले कर जीना चाहती है.उसे भीतर कहीं हल्की खुशी हुई. परिणाम चाहे जो हो ,पर उनके भीतर उफ़नते हुये उस एहसास से वह भीतर ही भीतर अभिभूत हो उठी.उनके चेहरे की झुर्रियां ,सफ़ेद चमकते बाल,बढती तोंद ,सब उसे नार्मल लगे.
वह मुस्कुरा दी.उसने उनके पास जा कर उनका चेहरा अपने हाथों में ले लिया.
"आपसे ज्यादा नहीं".यह वह बोल रही थी.वह हंस दिये-धीमे से किसी आश्वस्त बालक की तरह.उसके सामने वे थे,एक नये चुनौतीपूर्ण ढंग में.इसे झेलना उसे सुखद लगने लगा था.
छायाचित्र---सुंदर अय्यर
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