उदास हो चला था वह
कमरा। अँधेरा जैसे दबे पांव चला आया था, उजाले को हौले से सरकाते हुए। वह चुपचाप बैठी रही, अलसाई सी। मन नहीं हुआ कि उठे और बत्ती जला
दे. सामने की मेज पर शेखर का पत्र फड़फड़ा रहा था। बार
बार फिसलते शब्द उस तक आते। वह जैसे उन्हें ठेल कर लौटा
देती। अँधेरे में हलकी सी फड़फड़ाहट सुनाई देती, उन अक्षरों की
पहचान धुंधली हो गयी। उनके अर्थ उस तक पहुचते पंहुचते रास्ता भूलने लगे। वह चाहती
थी अक्षर अँधेरे में कहीं खो जाय, ठीक उसी तरह ; खुद वह, उसका वजूद भी न रहे, न
हो वे अक्षर, न ही उनके संप्रेषित अर्थ।
उसे अच्छा लगता है, यूं ही खुद भी अँधेरे का एक हिस्सा बन जाना और उसके साथ ही सहसा तमाम चीजे भी अँधेरे का हिस्सा बनती जाती हैं।
एक सुरक्षित हिस्सा बन जाती है वह, एक थिगली भर।
न उसके लिए कोई प्रश्न होते हैं, न ही किसी उत्तर
की जवाबदेही का दायित्व उसे ढोना पड़ता है।
उसने खिड़की से बाहर
देखा, तेज
हवा के झोंको ने बादलों की वह हल्की सी परत बुहार कर साफ कर दी थी, शायद चांदनी धुंए की तरह धीरे धीरे पसर रही थी। अक्टूबर के दिन थे। शहर
का धुंआ, यहां छतों पर नहीं मंडराता। इसीलिये
चांदनी धुली और साफ़ लग रही थी। उसने खिड़की की सलांखो पर सर टिका कर बाहर देखने की कोशिश
की। चुप पत्तों वाला सिर्फ एक पेड़। हवा सरसरा उठी थी। और हल्का सा झोंका अँधेरे
में चला गया। पेड़ फुसफुसाने लगे। वह तमाम उदास निस्संगता जैसे ख़त्म हो गयी थी
क्षणांश में। उसे अच्छा लगा कि उसकी निस्संगता ख़त्म हो गयी थी।
दिन के उजाले में वह
कुछ और ही हो जाती थी। हर रिश्ते की एक मांग होती है और मांग के अनुरूप शिकायतें
भी। कई बार उसे लगता है कि वह जो कहना चाहती है ,या जो कुछ भी करना चाहती है ,उसे उजाले
में न कह सकती है ,न कर सकती है . अँधेरे में वह खो जाना
चाहती है और ढूंढते रहना उसे अच्छा लगता है। रिश्तों की पीड़ा भी जैसे गुम हो जाती
है।
छोटी सी खिड़की से
चांदनी के मायावी संसार को देखती रही। यही तो करती थी वह। शाम हुयी नहीं कि बाग में जा कर बैठ
जाती थी, या फिर छत पर चली जाती थी ,पढ़ने
के बहाने। धीरे धीरे रंग बदलता आकाश। सिंदूरी ,लाल ,पीला ,बैंगनी --- तमाम रंग
छिटक आते पश्चिमी आकाश में। एक स्याह रेखा उभरती धीमे से और धीरे धीरे कोहरे की
तरह समूचे आकाश में जाल फेंक देती। स्याह आकाश में ढेरो तारे छिटक आते। वह उन्हें
एकटक देखती। ढेरों कल्पनाएँ पसरती। कभी तारों का झूला बनता ,कभी
चांदनी टहलती लगती ,मुस्कुरा कर पत्ते पत्ते छूती हुई। मंत्रमुग्ध
उस चांदनी के साथ हौले से डोलती। भीतर जैसे बादल का कोई टुकड़ा घुस आता। बूँद बूँद
टपकता हर क्षण और वह भीगती जाती ,हौले से प्रतिक्षण।
जब दोपहर की धुप
अलसाई सी पसरती थी तो भी वह चुपचाप उठ जाती थी ,बाग़ में ऊंघते पेड़ ,पानी में सर डुबो कर
फुर्र से उड़ती चिड़ियाँ ,कंही पेड़ो की शाखों से नीचे उतरती
मचलती गिलहरियां। जाने कितना वक्त गुजर जाता। एक खूबसूरत संसार रच आता उसके चारों
इर्द गिर्द। कल्पनाओं का संसार घुलता जाता। उसे यह अच्छा लगता था ,जैसे एक पेंटिंग कर ले ,या फिर कोई खूबसूरत विरल राग
सुन ले। तमाम परिचित रागों के बीच एक अपूर्व विरल राग।
कल्पना के उस संसार
में रिश्तों की पहचान भी जैसे बदलने लगती।कल्पना की अम्मा कलफदार साड़ी में
ब्राउनिंग की कविता पढ़तीं,बाऊ
बात-बात पर कालिदास को कोट करते और रविदा पूरे कैनवस पर डूबते सूरज के तमाम रंग
उसके सामने रख देता और कहता,"पगली यही है ना तेरा सन
सेट.ढेर ढेर रंगों वाला.." और वह चहक कर उसके गले में हाथ डालती और कहती,
"और भी खूब है.संगीत की तरह झर-झर झरता झरना,हरे भरे पत्तों वाला जंगल,कुहासे से ढके
पहाड़...."रवि दा फिल्मी अंदाज में उसके बालों को छितरा कर कहता,
"इतना लालच,यशी?"
उसे अंधेरे में हिलते दरख्तों का साया कभी खौफनाक नहीं लगा. शाखों पर बैठे
उल्लू की आंखें कभी भयानक नहीं लगीं. सन्नाटे का भी एक संगीत था, जो धुएं की तरह धीरे धीरे उठता,उसे घेर लेता और वह
बेसुध –सी हो जाती- बिलकुल.एक अर्पूव राग फूट निकलता था,शब्दहीन राग.शेष जैसे सब कुछ फिसल जाता,बस वह राग
उसके आसपास होता.
पर सहसा जैसे सब कुछ बेसुरा हो जाता.अम्मा का कर्कश स्वर रोक देता,
"कोई शऊर नहीं है लड़की को! शाम न दीया न बाती,बस छत पर चुड़ैलों की तरह बैठ कर जाने क्या ताकती रहती है लड़की?"
वह चौंक जाती जैसे
जंगल के घने अंधेरे में दुबकते जानवर यकायक रोशनी के चुंधियाते घेरे में आ जाएं.वह
सहम जाती.और फिर मनुहार भरे शब्दों में कहती, "अम्मा देख तो काली साड़ी पर ढेरों सीपीयां.....ला दोगी
न ऐसी साड़ी?" उनके गले में बांहें डाल देती.
मां का चेहरा वैसा
ही सख्त तना रहता," चल कलमुंही. बौरा जाएगी किसी रोज.जाने कौन हवा-डवा लग जाए.औरत जात
ठहरी."
वह हंस पड़ती अम्मा
की चिंता पर.
संगीत की वह लहरी एक
बार जो थमती,फिर
कहां जुड़ पाती.उसने पहली बार महसूस किया था कि अकेले रहने की खामोशी के बावजूद
कुछ आवाजें होती हैं,जो सपने की तरह चुपचाप आती हैं,उस अकेलेपन की नीरवता में.चुपचाप छू जाती
हैं.एक कंपन सा होता है,जैसे कोई संकेत सा दे जाता है.
मां की झिड़की पर
भीतर आते ही सब गड्डमड्ड होने लगता.सीधे पल्ले की धोती में अम्मा,दफ्तर की फाइलें नितटाते घुन्ना बाऊ,हर बात पर उस पर रोब गांठने वाला रवि दा.ऐसे में कई बार वब तय कर डालती कि
वह अकेले नहीं बैठेगी.नहीं सुनेगी वह स्वर लहरी.इस तरह अकेले में बुने गए सपनों और
यर्थाथ के बीच का फासला उसके लिए असहनीय होने लगता.
कई बार अम्मा की
झिड़कियों से तंग आ कर हमउम्र सहेलियों के बीच वह बैठ जाती.पर जल्दी हा उकता कर
उठना पड़ता.कपड़े,जेवर
रेसिपी ,यह संसार उसके लिए अजूबा था और वह खुद अजूबा थी उन
लोगो के लिए.अकेली वह.शायद अकेली नहीं.एक भूली सी मुस्कुराहट झिझकती हुई उसके
होंठो पर तैर गई.सुमेधा तब थी उसके साथ,हां सुमेधा.
भूली यादों का परिंदा जैसे अचानक जिंदा हो उठा था और पंख फड़फड़ाने लगा
था और पंख फड़फड़ाने लगा.उन्हें पकड़ने के लिए वह चलने लगी थी.धीमे से हाथ बढ़ा
दिया. वह एक निजी संसार था, उन दोंनों का.सुमेधा के आने के
बाद वे दोंनों साथ-साथ जीने लगी थी,एक निजी संसार को,जिसमें भागीदारी का दावा या वादा दोनों ने नहीं किया था.पर दोनों ने
चुपचाप भीतर के उस हिस्से को एक तरंग में जीना शुरू कर दिया था.अकसर वे दोनों
पढ़ाई के बहाने छत पर बैठा करती थीं.नीले साफ आकाश को,थिगलियों
वाले आकाश को देखतीं,बादलों के बनते-बिगड़ते आकारों में
ढेरों शक्लों ढ़ूढ़ती.शाम की रंगीन आभा और रात का दबे पांव चले आना.अमावस की रात
तारों का छितरना देखतीं. पूर्णिमा के गोल चांद की आभा देखतीं.फूले कदंब की महक
सांसों में भरतीं.बिजली के तारों पर दौड़ती बूंदों को देखतीं,गरमी की उमस-भरी शाम में शहर पर छाई पीली धुंध----कितना-कितना कुछ होता था
एक साथ महसूस करने के लिए.
शाम कितनी बार वे दोनों मंदिर के बहाने घाट पर जा कर बैठ जाती थीं.जेब
खर्च के रूपयों को जोड़ कर नाव तय की जाती थी और नाव गंगा की धार में बह निकलती
थी.घाटों की झिलमिलाती रोशनी,मंदिरों की घंटियों की आवाज में
बहुत कुछ ढ़ूढ़ती मंत्र-मुग्ध. गरमी की रात में जागकर तारों को पहचानना हो या तेज
बारिश की शाम भीगती हुई सुनसान सड़क पर चुपचाप चलना हो या तेज बारिश की शाम भीगती
हुई सुनसान सड़क पर चुपचाप चलना हो,वे दोनों ही होती थीं. वह
संसार था खूबसूरत,जिसे दोनों ने रचा था,या कुछ चीजों की खूबसूरती को आसपास रच लिया था.
"लेट अस कंटेंड
नो मोर लव
स्टाइव नॉट वीप
ऑल बी एज बिफोर
लव ओनली
स्लीप."
सुमेधा ब्राउनिंग की
पंक्तियां गुनगुनाती.गुनगुनाती क्या,बस छेड़ देती थी अंधेरे में शब्दों को. नदी की भंवरों को छू कर
अंधेरे में चलती हवा जैसे घुंघराली हो जाती थी और सारा वजूद जैसे गुम हो जाता
था.वह हल्की सी आवाज होती थी या शायद आवाज भी नहीं,एक प्रवाह
होता था, जो धीरे धीरे शब्द बन कर टूटने लगता.शब्द हवा के
साथ महकी सांस की मांनिंद उस तक आते.उस सांस के मुक्त करने के लिए वह भी छेड़ती
थी.
"बी ए गॉड एंड
होल्ड मी
विद दाइ चार्म
बी ए मैन एंड फोल्ड
मी
विद दाइ
आर्म...."
सुमेधा हंसती
थी."मैं ,यानि
कि मैं बन जाऊं पुरुष?"
चिल्लर की सी
खिलखिलाहट लहरों पर बिखर जाती.चांदनी कुछ ज्यादा पीली है.यह उसका सवाल होता
अकसर.पर उसे याद है,उस
दिन वे नहीं हंसे थे.न ब्राउनिंग की पंक्तियां ही गुनगुनाई थीं.क्यों कि उन्हें एक
यथार्थ जो मिल गया था.वे कॉलेज में नई आई थीं.नेहा मैडम,यहां
वे दो महीने पहले ही आईं थीं.उन दोनों का अंतिम वर्ष था एम,ए
का.कॉलेज की कुछ-कुछ उदास सी लेक्चरर.खुलता सांवला रंग,लंबे
घुंघराले बाल,चेहरा जैसे बोलता था.दरअसल वे अलग लगीं थीं.
अमूमन कॉलेज की अन्य अध्यापिकाओं के चेहरे एक से लगते थे. चेहरा सख्त. पर नेहा
मैडम का चेहरा पारदर्शी था एकदम.भीतर का तमाम कुछ चेहरे पर झाईं की तरह फैला.और
उसी ने शायद उन दोनों को ही नहीं और लड़कियों को भी आकर्षित किया था.
सुमेधा कहा करती थी
कि जब वे हंसती हैं तो उनके शब्दों से ज्यादा उनकी उदास आंखें बोलती हैं.उसने भी
पढ़ने की कोशिश की थी,धूप
के पीले पत्तों की तरह उदास मुसकराहट थी उनके चेहरे पर चिपकी हुई.जैसे किसी ने कभी
चिपका दिया हो और फिर वापस ले जाना भूल गया हो.उन्हें लगा था कि वे जो हैं,वह नहीं.पुराने नोट्स देने के बहाने एक दिन दोनों ही पहुंची थीं.बारिश की
एक शाम अचानक ही.एम,ए. करने के बाद के निरूद्देश्य से दिन थे
वे.
धुंधली सी शाम थी.वह
अपने क्वार्टर की बालकनी में बैठी बरसात की बूंदों को देख रही थीं.लगभग भीगी हुई
थीं,पर
जाने किसे खोज रही थीं उस बारिश में.
"आप तो भीग गयी
हैं ,मैडम!"
सुमेधा ने ही पहले कहा था.
वे चौंकी थीं और उन
दोनों को देखा था.चिपकी मुसकराहट क्षणांश के लिए तितली बन गयी थी.चेहरा बारिश में
निखर आया था.अपनी ही खिली मुसकराहट में जैसे वे नहा गईं थीं.शायद वे समझ गयीं थीं
कि नोट्स तो बहाना था. शाम उनके साथ चाय पी कर लौटने लगीं तो उन्होंने आते रहने का
आग्रह किया था.
फिर तो कभी-कभी शाम
को सैर के बाद उनके पास बैठने लगी थीं दोनों.उम्र में वे उन दोनों से पांच एक वर्ष
बड़ी रही होंगी.
"अकेली हैं आप?" सुमेधा ने ही पूछा था.इस तरह
की जल्दबाजी उसी की आदतों में शुमार थी.उसने और सुमेधा ने दुर्ग को जैसे भेदने की
कोशिश की थी..सवाल था कि गरम तपती सी छुअन थी, जिसने धीरे
कोई असर किया था.
पहले तो वे चुप रही
थीं, उस
प्रश्न पर.सिर्फ सिर हिला दिया था.फिर हौले से हंसी थीं.
"हां, अकेली ही रहने आई थी यहां.सब कुछ
छोड़ कर."
सुमेधा ने यशी को
देखा था.आंखों में कुछ चमका था. उस शाम वे फिर बोली थीं, "तुम लोग कभी शाम को आ जाया
करो.शाम को या तो मैं अकेले होना चाहती हूं या किसी अच्छे साथ में और उस साथ की
खुमारी में जीना चाहती हूं. तुम दोनों का साथ मुझे अच्छा ही लगेगा."
वे दोनों उनके सुख
के संग खेलना नहीं चाहती थीं, पर
उनके साथ के सुख को दबोच भी लेना चाहती थीं. नेहा मैडम ने उनकी दुविधा से उन्हें
बचा लिया था.दूसरी दुविधा से भी. मैडम शब्द में एक खालीपन था.उन्होंने ही कहा था कि
वे दोनों उन्हें दी कहा करें.
मैडम से दी बनने के
बाद खोल दी थी उन्होंने एक एक परत.हर परत के शाथ उनके चेहरे पर जैसे एक छांह सी
पसर जाती थी,उनके
खूबसूरत सांवले चेहरे पर.
उस शाम उनके चेहरे
की वह छांह कांप रही थी.
"भूलना चाहती
हूं, सब
कुछ . पर सोचती हूं भूलूंगी तो वह सब कुछ खो जाएगा सदा के लिए. है न. मैं उन्हें
खोना नहीं चाहती.तभी न सब कुछ स्वीकार किया है, यह
अकेलापन....कुछ धुंधला पड़ने लगता है तो फिर याद करती हूं. फर्क सिर्फ इतना है कि
अब दर्द नहीं होता."
उन्होंने ही बताया
था कि वे यहां आयी थी तो यही सोच कर.वे मुक्त होने की कोशिश में थीं. यह धर्मनगरी
पापों से ही नहीं,बंधनों
से भी मुक्त कर देती है.उन्हें अतीत के दंश से मुक्ति चाहिए थी. तमाम बंधनों,रिश्तों से मुक्त हो वे आध्यात्मिक होने लगीं थीं. पर उन्हें अचानक लगा था
कि इस तरह जीना पाप है.
एक भरा पूरा सपना जिया
था उन्होंने. वह भी टुकड़ों में नहीं, पूरा -का-पूरा जिया था. दो साल तक. वह चित्रकार थे और नेहा दी
उनसे मिलीं थीं एक शो के दौरान.
नेहा दी ने जब बताया
था तो इंद्रधनुष के सातों रंग उमके चेहरे पर बिखर गए थे. मानो वे तमाम क्षण उनके
चेहरे पर उभर जाते थे.
"जो कुछ देखा
था, या जो कुछ जिया था, क्या वह एक सपना भर था."
"आइ वांट टू
डाई व्हाइल यू लव मी"--- नेहा दी ने बताया था कि वे अकसर कहा करते थे. किया
भी तो था ढेर ढेर प्यार. वह प्यार जो सिर्फ प्यार होता है. आंखों से उतरता, हथेलियों में फैलता, मन को भिगोता एक दूसरे को दिया जाने वाला कोमल स्पर्श. मन का वह स्पर्श
जिसके तहत जीवन के कुछ खूबसूरत क्षण एक-दूसरे की सौगात बन जाते हैं, पूरी उम्र के लिए. जरूरी नहीं कि वे क्षण शरीर से जुड़े हों.
"देह तो सब कुछ
भूल जाती है , यशी.
देह पर के निशान मिट जाते हैं. मोह के क्षण गुजर जाते हैं देह पर से. चाहने पर भी
उन्हें उसी तरह याद नहीं किया जा सकता. पर मन से जुड़े कोमल क्षण, उन्हें भूलने के लिए एक उम्र नाकाफी होती है."
उन्होंने बताया था
कि उन क्षणों को भुलाना,उन्हें
मिटा कर जीना उनके लिए संभव नहीं था. वह जिसके लिए एक पूरी जिंदगी नाकाफी थी,उसे ही मोह माया मानना----" मुझे लगा उन क्षणों के साथ विश्वासघात कर
रही हूं.नहीं करना चाहती थी मैं." उस वाक्य के साथ कुछ फैल गया था उनकी आंखों
में.धुंधला नहीं बल्कि कुछ साफ,ठोस.
उन मोहक क्षणों के
कुछ अंश बांटे थे उन्होंने. उन्होंने बताया था कि किस तरह अकसर चट्टानों के पास
रात भर बैठते थे ----शोर सुनते हुए. शाम के डूबते सूरज का अर्थ उसके ही सामीप्य ने
उन्हें बताया था या फिर उन रंगों ने,जो उसमे कैनवस पर बिखेर दिए थे.
वह अकसर कहा करती थी
,"पता है,वह
सुख था जिसे मेरे भीतर की लड़की ने चाव से संजोया था. चूंकि वह उसी उम्र का का
अनुभव था,इसलिए बहुत चाव से संजोया था. वह सुख था, जो भय और पीड़ा की अनुभूतियों के बीच निकलता था.फिर भी उसे जीती रहती थी
मैं."
वह सुख था जो अचानक
ही उससे छीन लिया गया था. वह किसी फोटोग्राफर्स सोसाइटी के साथ लेह गया था.उसे तो
इतना भर मालुम था. फिर वह लौट कर नहीं आया. दल के लोगों ने बताया था कि उसकी
एडवेंचर वाली प्रवृति ही उसकी मौत का कारण बनी. किसी खास स्पॅाट पर से फोटो खींचने
की धुन में पैर फिसल गया और घाटियों में कहां लुढ़कता चला गया, पता ही नहां लग पाया. नीचे बहता
पहाड़ी नाला और वह स्पॅाट, जहां से उसे चित्र लेना था-- शायद
वह फासला ही उसकी मौत का कारण बना. मौत. नेहा दी उसे स्वीकार नहीं कर पाईं थीं. वह
मौत कैसे हो सकती थी. उन क्षणों को तो वह जीना कहा करता था. उन क्षणों में मरने की
बात कैसे सोच सकता था वह. नेहा दी वह सब बातें बताते हुए कांप रही थीं. एक लौ थी
जो चेहरे पर दिपदिपाती हुई सरक गई थी. फिर अचानक एक धुंध छा गया था पूरे वजूद में.
वह धुंध, जिससे वे हमेशा लिपटी रहती थीं.
जाने के पहले की रात
उन्हें बखूबी याद थी. उसके लौटने पर जिंदगी का वह निर्णय जो उन्हें साझे में लेना
था. वह फिर लिया ही नहीं गया. फिर तो न शाम के रंग रह गए थे, न लहरों का संगीत ही कुछ कहने लायक
रह गया था. बस, बांझ दुख था शेष. किसी और तरह अलग होते तो
शायद एक दूसरे के अहं से टकरा कर ही या एक दूसरे की पीड़ा से टकरा कर ही सब खत्म
होता. पर यहां तो जैसे एक सिरा ही डूब गया था. डूबा क्या उनके भीतर ही गहरे उतर
गया था.
"कुछ दिन तो
लगा था, मेरे
जीने का अर्थ ही खो गया है. आत्महत्या करने की कोशिश की थी मैंने. पर फिर जैसे
किसी ने भीतर से कहा था--- जीवित ही न रही तो उन क्षणों को कैसे जी सकती हूं. आज
भी .मौत के लिए शरीर की क्लीनिकल डेथ जरूरी नहीं,शरीर यूं भी
कहां रह गया है."
"दी, आपने शादी
क्यों नहीं की? सपने जब नहीं मरते तो उन सपनों के साथ जीने
के लिए कोई और सही व्यक्ति तलाश सकती थीं?" सुमेधा ने
एक दिन सवाल किया था. वह सवाल सुमेधा ही कर सकती थी. उसका एहसास तो यशी को बहुत
बाद में हुआ था,
दी हसीं थीं.शायद ऐसे वाक्य उनके लिए अजूबे
नहीं थे. अप्रत्याशित भी नहीं रहे होंगें.
" विवाह तो हो सकता था,.अगर विवाह ही करना चाहती तो.
पर फिर क्या होता? शेयर होती एक जिंदगी, देह सब कुछ. पर, वे सपने कहीं हो पाते? इतना माद्दा तो था नहीं कि अपने बुने सपनों के खांचों में किसी और को फिट
करती. जिसे ले कर बुने थे, वही उन्हें अधूरा छोड़ कर चला गया
......?
"हो सकता था, नेहा दी की जिंदगी में जो आता, वह चित्रकार की ही तरह होता." सुमेधा ने वह बात कही थी, जब वे दोनों अकेले थीं. झुंझलाहट थी उसकी आवाज में, एक
हलकी सी खीज. "प्यार एक नदी की तरह प्रवाह होता है, यशी!
वह एक ही जगह रूक जाए तो पानी की तरह सड़ने लगता है."
"नहीं," उसने एक निश्चित स्वर में कहा था.
"नहीं हो सकता ऐसा."
"क्यों" सुमेधा ने पूछा था.
यशी तब उसे समझा
नहीं पाई थी कि सपने तो दी के भीतर की लड़की ने बुने थे. उसे आगे तक ले जाने की
जिम्मेदारी भीतर की औरत की कहां से होती. विवाह लड़की को क्षणांश में औरत बना देता
है. सिर्फ देह से शुरू होने वाला एक रिश्ता. बिना जाने, समझे, सुने.
बिना किसी सपने के लड़की के भीतर की औरत का विवाह होता है. विवाह औरत को बाहर खींच
निकालता है. पति, बच्चे, घर के बीच
घूमने वाला एक निश्चित दायरा. औरत वहीं होती है. लड़की तो मंडप से ही कहीं गुम हो जाती
है. ढेर सारे सपनों की जगह ढेर सारी हिदायतें, उपदेश. सात
फेरे लेने वाला सपनों का साथी नहीं होता. वह बंधे बंधाए नियमों का दायित्व सौंपने वाला
होता है. चित्रकार प्रेमी दी के सपनों को बांटता--घर और नियम उसके लिए दोयम होते.
देह उसके लिए गौण होती. पर समझा कहां पाई थी उसे. खुद वह भी तो उतना स्पष्ट नहीं
समझ पाई थी.
उसकी बात को सुमेधा नहीं समझ पाई थी.शायद समझ भी पाती तो बहस करती.
उसका कहना था कि लड़कियां जो सपने पालती हैं, चांदनी का,
तारों का, फूलों का, घाटियों
का---- यानि किसी उस पार का सपना और उसकी प्रतीक्षा करते किसी राजकुमार का--- वह
होता है उसी तरह प्रतीक्षारत. चाहे किसी रास्ते से जाओ. विवाह हो या नेहा दीदी
वाला प्रेम.
हांलाकि यह बात उसने नेहा दी से नहीं कही थी. उसका कहना था कि यह कह
कर वह उन्हें दुःखी नहीं कर सकती.
सुमेधा ने किया भी तो यही था. वैसा ही कुछ. उस शाम शब्दों के लिए यशी कुलबुलाई
थी, जब सुमेधा ने बताया था कि उसका विवाह तय हो रहा है,
पुरी में किसी बड़ी फर्म था वह. शादी के बाद चली जाएगी.
"तुम उसे जानती हो?" उसने पूछा था.
"न" सुमेधा ने सर हिलाया था. "देखो, जब तक
नहीं जानती ढीक तो है. फिर तुम्हें पता नहीं शायद कि शादी के बाद कि शादी के बाज
शुरू में एक मैजिकल ट्रिक होता है, सम्मोहन. कई बातों को
अपने ढंग से मनवा लेने का."
सुमेधा के भीतर की औरत बड़ी हो गई थी या यशी ने ही ऐसा महसूस किया था. उस शाम
सुमेधा ने दीपदान किया था, गंगा की लहरों में. तब दोनों नहीं
जानती थीं कि एक संसार था जो बह गया था उन लहरों में. पर उस शाम कोई पंक्ति नहीं
थी उन दोनों के पास.
सुमेधा ने कहा था, "कुछ बहा दिया,यशी, कुछ तुझे सौंप रही हूं. कुछ मेरे पास है. जो
तेरे हिस्से का है, उसे संभाल कर रखना. अकेली जो है."
और सुमेधा चली गयी थी. उसके पत्र नहीं आए. पर वह सोचती रही थी कि वह लिख रही होगी,
ढेरों ढेरों बातें हवा में, चांदनी में,
पत्तों में, समुद्र की उद्दाम लहरों में---
उसके नाम और वह सब साथ लाएगी. वह खोजा करती थी अकेले में उसकी .बातों को.
पर सुमेधा लौटी थी तो जेवरों से लद कर, चेहरे पर
दांपत्य की तृप्ति लिये. गंगा घाट की जगह उसे शॅापिंग पर जाना था, पिक्चर देखनी थी. अब जैसे कुछ नहीं रह गया था सुमेधा के पास यशी के लिए.
क्षण भी नहीं, क्षणों की सौगात किसी और के लिए हो गयी थी.
सुमेधा औरत हो गई थी, सचमुच की औरत. लड़की सपनों की मौत
बरदाश्त नहीं कर पाती, पर औरत सपनों की मौत में निस्संग रहती
है. शायद उन्हें दफना भी देती है. सुमेधा और यशी के बीच का पुल टूट गया था.
यशी को तब दुःख हुआ
था. शायद वह भूल गई थी कि व्यक्ति नहीं होते, कि जैसे रख दो, वर्षों बाद भी वैसे ही
रखे रहें. अलग होने के बाद जिंदगी भी अलग हो जाती है और धीरे धीरे नयी जिंदगी के
आदी होने लगते हैं.पुरानी जिंदगी सड़ने लगती है, वह जिंदगी
जो एक साथ जी गयी थी. पर यशी को लगा था वह अभी भी वहीं प्रतीक्षा में. यह तो
सुमेधा थी जिसने पुरानी जिंदगी को निर्ममता से खत्म कर दिया था.
जाने के पहले उसने
कोशिश की थी, एक
शाम सुमेधा के साथ गंगा घाट जाने की. पर सुमेधा को मंदिर जाना था आरती के लिए.
ससुरालियों की मनौती पूरी करने. जेवरों से लदी-फदी सुमेधा के साथ वह भी मंदिर हो
आई थी. फिर कुछ नहीं बचा था. उसे लगा था कि उसके हिस्से का तो उसके पास था,
वह रह गया था, पर सुमेधा के पास जो था,
वह सब कुछ बह गया था. वही गलत थी जो खोज रही थी हवा में, पत्तियों में अनगिनत शब्दों को.
नेहा दी भी चली गयीं
थी अचानक इसी बीच. किसी पहाड़ी स्थान पर उन्हें नौकरी मिल गई थी. वे इस शोर से दूर
चली जाना चाहती थीं. उन्हीं पहाड़ों के बीच, जहां उनका सपना खो गया था. यही कहा था उन्होंने तब. पहाड़ी
धुंध की तरह गुम हो गया था सब कुछ. उनका अचानक यूं चले जाना. वर्षा के बाद बुरूंश
की लटकती शाखों पर धूप की बूंदें जैसे चमक जाती हैं, ठीक
वैसे ही उनकी बातें थीं, वे शब्द थे जो यशी को याद आ जाया
करते थे. वे ढेर ढेर शब्दों की नमी छोड़ गयीं थीं पीछे.
सुमेधा लौटने के
पहले विदा लेने आई थी तो उससे रहा नहीं गया था. दूर का सफर था और फिर उसके नए
दायित्व. इसलिए लौट जाने की जल्दी थी. उस शाम वह उसके यहां आई थी, औपचारिकता के तहत. मां ने खाने पर
बुलाया था. उसने सोचा था सुमेधा इसी बहाने पूरे दिन के लिए आएगी. पर वह शाम को आई.
झुंझलाती हुई यशी पर कि उसने पैकिंग, शापिंग में मदद नहीं
की. शाम क्या रात घिरने लगी थी-- तिसपर मां के पास बीच-बीच में चौके में रेसिपी के
बारे में बतियाने चली जाती. मां ने उसे घूर कर देखा था. सुमेधा की सुघड़ता उन्हें
भली लगी थी. उससे रहा नहीं गया था, उसने पूछ लिया था---
"सुमेधा, तुम्हें नहीं लगता कि कुछ छूट गया है,
या कि तुमने कुछ छोड़ दिया है ."
वह क्षणांश के लिए रुकी थी. कुछ तैर गया था या कि बस छू
कर चमक गया था उन आंखों में. शायद यह उसका भ्रम था. फिर आंखों में हंसी चमक आई.
"बस अब तो फुरसत ही नहीं रहती कुछ सोचने की. जिंदगी इत्ता भागती है कि
बस...." वह हंसी थी बेवजह की खनखनाती हंसी. हंसी जो एक भरपूर औरत की थी. उस
हंसी में अब वे घुंघराली लहरें नहीं थीं. एक सपाट वीरानी थी. खौफनाक.
"सच कहो एक दूसरे के होने के एहसास को क्या हम इस तरह जीते थे. इस तरह
शॅापिंग करते, चाट की पत्तलें चाटते या फिर मंदिर की आरती
देखते." वह फूट पड़ी थी.
"छूट जाता है सब कुछ यशी. तू भी छोड़ देगी." स्वर में एक भारीपन आ गया
था. झील का सा ठहरा हुआ भारीपन. ठोस और सख्त. उसकी देह की तरह उसके स्वर में भी एक
भारीपन आ गया था.
"ऐसा ही होता है ,यशी. होगा तेरे साथ भी. तुम इसे
रोके से नहीं रोक सकतीं. दिस इज टुथ. इस होने के सामने हम कुछ नहीं कर सकते. वह हर
एक के साथ होता है." "तू उसे कैसे रोक पाएगी?
तुमने चुना कहां है? जो हुआ है उसकी आदी हो गई हो."
वह चिढ़ कर बोली थी.
वह मुसकराई थी. पहले
कभी अगर उसने कहा होता तो शायद वह तमक उठती.
पर तब शांत तृप्त
मुस्कुराहट से भरकर बोली थी, "पता है चाची अभी चौके में क्या कह रही थीं—पुरूष की
रूचि, आदतें, अपेक्षाएं औरतों की आदत
बन जातीं हैं."
"माय फुट," देर तक कसमसाती खामोशी पसरी
रही दोनों के बीच
"पर नेहा
दी...." वह बुदबुदाई थी.
सुमेधा ने उसे गौर
से देखा था, "सब नेहा दी की तरह नहीं होते .यशी. पता है, यथार्थ
उस सूरज की तरह है, जिसके उगते ही सारे सपने बिला जाते हैं.
नेहा दी ने यथार्थ झेला कहां था?"
"तो विवाह
यथार्थ है."
"हां, बेशक यथार्थ है. और यशी मेरे पास
उससे पहले कोई सपना था भी नहीं, इसलिए मैंने इसी सथार्थ के
इर्द- गिर्द सपने बुन लिये हैं."
यशी ने महसूस किया
कि वहां यथार्थ आगे निकल गया था, सपनों
को पीछे ढकेल कर और यथार्थ ही सपना हो गया था. एक दूसरी जिंदगी जीने लगी थी वह. और
उसकी जिंदगी का सपना अलग था, बहुत अलग. सुमेधा औरत हो गई थी.
उस रिश्ते के जुड़ते ही,जिसकी शुरूआत ही औरत से होती है.
सपने देखती नड़की को बिना किसी पुल के सहारे सीधे औरत की दुनिया में ले जाते हैं.
लड़की देह का सब क्षणांश में झील में तब्दील हो जाता है. औरत की झील-- जिसमें
छोटी-छोटी लहरें तो उठती हैं, पर ज्वार नहीं आता. सुमेधा में
कोई ज्वार नहां बचा था. वह झील हो गयी थी. औरत हो गई थी. सुमेधा ने जो संसार छोड़
दिया था, उसमें वह अकेली हो गई थी.
उसने कोशिश की थी उन तमाम कोनों को छूने की, जो
तस्सली देते थे, पर हाथ जैसे खाली लौट आए थे. उसे लगा था,
वह उस लड़की की तरह हो गई थी जो पुराने खंडहरों में अपना नाम खोजने
लगती है. खंडहर हो गए उस रिशते में कुछ भी तो नहीं बचा था. शेष था सिर्फ खालीपन,
जो भर नहीं पाया. बावजूद इसके कि कहीं उसने महसूस किया था कि सुमेधा
की आंखों में कुछ बुझा सा उतर आया था. पर उसे लगा था कि वह भी सुमेधा के भीतर का
औरतपन है. मायूस हो झरने की सी जिन्दगी को याद करने का खूबसूरत सा अभिनय. उसकी आवाज में बुने हुए झूठ को वह भाहर कर सकती थी.
फायदा भी कुछ नहीं था , उसे लगा. एक लकीर थी जो दोनों के बीच
कहीं गुम हो गई थी. कहां कैसे मिट गई पता नहीं लगा. वह होती तो उसके सहारे एक
दूसरे तक पहुंचा जा सकता था.
वह अकेली छूट गई थी उस संसार में. नेहा दी की अनुपसि्थति उसे बहुत खलती
थी. वे होतीं तो उनसे सब कुछ शेयर करती. उसे बहुत आश्चर्य हुआ था कि सुमेधा को ,
जिसको उसने अपने तमाम दिन सौंपें थे, उसके तहत
ब्याज भी नहीं बचा था उसके लिए.
मां की टोका-टाकी, सहेलियों की कानाफूसी के बावजूद
वह अपने संसार में अकेली थी.----सन्नाटे के विरल राग को सुनती. दोपहर हो या शाम,
एक और आवाज थी जिसे वह अकेले में सुना करती थी. वे दिन जैसे नींद के
झोंकों में लुढ़कने लगते.
मां ने ही तो उसे सुना कर एक दिन कहा था,"बस
कुछ दिन और बैठ लो अकेले. फिर अकेले बैठने को कहां मिलेगा." तो उसे लगा था कि
उसके शांत संसार में किसी का अतिक्रमण होने जा रहा है. वह अस्त-व्यस्त हो गई थी.
उसका संसार अब छोटा था, जिसमें वह थी और उसका एकांत. मां के
अलावा उस एकांत में खलल डालने वाला कोई नहीं था. उसने जैसे एकांत में जीते जीते
सुख को उंगली रख कर पहचानना सीख लिया था. वह लड़की थी--- शायद इसलिए उसने अपने को
और नहीं खोया था. वह होती, उसका एकांत होता, ब्राउनिंग की कविता होती.
"बाऊ बात पक्की
कर आए हैं. उन लोगों ने तुम्हें बिन्नी की शादी में देखा था. लड़के ने तुझे पसंद
कर लिया है." मां मुग्ध हो आई थी अंतिम बात कहते-कहते.
पर वह उदास हो गयी
थी.कुछ छिनने से पहले ही दहशत भरी उदासी
"उसे नहीं
जानती मैं." मां से कहा था.
"येल्लो, हमने तो तुम्हारे बाऊ जी को शादी के
एक हफ्ते बाद देखा था. तुम तो पहले ही देख लो." मां ने उसे जबरन एक फोटोग्राफ
थमा दिया था.
मां ने ही बताया था
कि वह सेल्सरिप्रेजेन्टेटिव है. कुछ खबर सुमेधा ने बताई थी.
"तुझे आदत पड़
जाएगी ,यशी."
उसने समझाया था. उसके चेहरे पर कोई भाव न देख कर शायद उसे खुश करने के लिहाज से
बोली थी, "पर हो सकता है वह वैसा ही हो जैसा नेहा दी का
चित्रकार, या फिर तेरे सपनो का राजकुमार......जो उस पार
हो." उसने गुदगुदाया था.
पर उसे कोई गुदगुदी
नहीं हुई थी. वह चुपचाप उठ आई थी सुमेधा के पास से.
कैसा होगा. गंभीर,शरारती या फिर सपाट जिंदगी जीने वाला,
क्षणों को नोटों में तब्दील करने वाला. इंक्रीमेंट और परिवार की
चिंता करने वाला, सुबह अखबार, दिन
दफ्तर, शाम शॅापिंग या सोशल विजिट. ऱात एकरस तरीके से
दांपत्य निभाने वाला पति. या फिर उसके साथ वह सब कुछ जीने वाला, जिसे वह जीती है. सुबह के धुंधलके में ओस से नम घास पर पांव रख कर चलने
वाला, शाम के रंगों को उसके साथ महसूस करने वाला, लहरों के शोर, बारिश की फुहारों, पहाड़ों की चुप्पी, घाटियों के आमंत्रण को महसूस
करने वाला.
सबसे आश्वस्ति की बात यह थी कि आजकल अम्मा की टोकाटाकी बिल्कुल बंद
थी.मुसकरा कर बोली,"रह लो जितने दिन रहना है अकेले. फिर
कहां रहने देगा वह तुझे अकेले."
वह छत पर अकेले
होती.कल्पनाओं के ढेर-ढेर रंग अपने पास रख लिए थे. मनचाहे रंग. नेहा दी के
चित्रकार प्रेमी की तरह ढेरों ट्यूब्स. सन्नाटा जैसे एक खूबसूरत कैनवस बन गया था.
रोज एक न एक पेन्टिंग तैयार होती.
वह अनदेखा व्यक्ति
उसकी नींद होने लगा था. सन्नाटे के विरल राग को उसके साथ सुनता हुआ. वह सांझ को
पीती बैठी रहती. बालों में उसके स्पर्श को महसूस करती, आंखों से जैसे उसे वह छूने लगी थी,
महसूस करने लगी थी.एक आकार ने जन्म लिया था भीतर. वह यानि शेखर.
चित्र का वह मुस्कुराता हुआ चेहरा.
वह सुबह जल्दी उठा
करेगा, ठीक
उसी की तरह. सुबह के हल्के उजास को धीमे से महसूस करता हुआ. हल्के उजास में नंगे
पांव चलेगे दोनों घास पर. सुबह चाय की चुस्कियों के साथ होंगी वे बातें. कितनी ही
पंक्तियां होंगी एक दूसरे को सुनाने के लिए. खाना बनाएगी तब भी तो रसोई के स्लैब
पर बैठ कर ढेर-ढेर बातें करेगा. गले में बाहें डालेगा, वह
चिहुकेगी तो कहेगा, "पसीना पोंछ रहा था , य़शी."
वे बाहर घूमने
जाएंगे तो जुड़े हाथों में एक -दूसरे का एहसास दोंनो के बीच पसीजेगा.
इसी तरह की शाम
होगी. वह उसकी जांघों पर कोहनियां टिकाए उसकी आंखों में पूरा आकाश देखेगी. सिंदूरी
रंग के तमाम शेड्स, फिर
इर्द-गिर्द की स्याह रेखाएं उसे वह दिखाएगी- वह उसे पास खींच लेगा और देर तक उसे
देखता रहेगा. वह कुछ कहेगी तो कहेगा, हिश्श ,रंग झर जाएंगे. और सचमुच रंग झरने लगेंगे और स्याह अंधेरा दोनों को घेरने
लगेगा तब उठेंगे वे दोंनो, धीमे से दबे पांव आती चांदनीं
में.
वह गुनगुनाएगी इसी
तरह--- "आइ वांट टु डाई व्हाइल यू लव मी....... व्हाइल यू यट हौल्ड मी फेयर."
वह उसके माथे पर होंठ रख देगा. वह उसकी आंखों के पिघलते रंगों को देखेगी.धीरे - धीरे झरेंगे दिन रात के एहसास.
लहरों का शोर पीएगी
शेखर के साथ रात-भर. रात का धीरे- धीरे गहराना, चांदनी का छितराना-- समुद्र में प्रतिक्षण उठता ज्वार....
"यहीं रह जाएं
रात- भर." वह कहेगी
"पगली है तू भी, यहीं इसी चट्टान पर?" वह उससे पूछेगा
"हां, यहीं." दोनों वहीं रहेंगे. रात
उनींदी आंंखों में उतर आएगी, समुद्र में उतर जाएगी, समुद्र की गहराई में,
"इतनी प्यास
अच्छी नहीं होती, यशी!"
वह बुदबुदाएगा
"न हो, क्या होगा? यही
न कि जिंदगी खत्म हो जाएगी जल्दी. पर मेरा उसूल है कि जिंदगी भले ही खत्म हो जाए,
जिंदगी को महसूस करना चाहिए उसके भीतर घुल कर,
अलग हो कर नहीं, जिंदगी की चाहत कभी खत्म न हो. न तुम्हारी
नौकरी हो. न मेरा घर, बस हम दोनो और यह तरंग....." वह
उसे कस लेगा अपने साथ.
चुप्पा उदास लड़की एक जिदियाती लड़की में बदल जाएगी . अपने ढंग से जीवन
को जीने के लिए मचलती लड़की , यशी. जीवन को जीवन की तरह ले
कर चलने वाली औरत यशी नहीं. बल्कि प्रतिक्षण लहरों की तरह भीतर की तमाम इच्छाओं को
लपेटती, हरहराती उद्दाम लहरों वाली यशी.
अक्सर शाम के
धुंधलके में पड़ोस की युवती पति के साथ स्कूटर पर घूमने निकलती. उसकी कल्पना के
रंग भरने लगते. वह भी घूमने जाएगी. खाना दोंनो बाहर खाएंगे. उसकी जिद पर वह गाड़ी
मोड़ देगा कहीं और----
"सुनो.."
"हां...."
सिगरेट फूंकता, खोया
सा उत्तर देगा.
"मै क्या
आॅक्वर्ड लग रही हूं?"
"नहीं
तो."
सिगरेट की राख
झाड़ता वह उसे भरपूर आंखों से देखेगा
"फिर... वह
कोने में बैठा आदमी क्यों घूर रहा है."
"हां! हां, गलत तो है"
"क्या?"
"तेरी खूबसूरती, ये बड़ी तीखी आंखें, गठा हुआ शरीर"
"सच्ची
ई..ई" वह खिल कर पूछेगी, रात
घर लौट कर शीशे में अपने को भरपूर देखेगी.
"विश्वास नहीं
है मुझ पर....." वह पीछे से आ कर उसके गले में बांहें डालेगा. यह जानते हुए
भी कि वह खास आकर्षक नहीं है, वह
मुस्कुराएगी किसी गर्विता नायिका की तरह. पर शेखर शब्दों के स्पर्शों से अभिभूत कर
देगा. खूबसूरत से लगने वाले शब्द, जिन्हें सुनने के बाद वह
खुद को टटोलने लगेगी.
वह जीने लगी थी एक
सपने को.
वह वाक्य होगा कि
उसकी देह समुद्र बन जाएगी.
वह समुद्र बन कर
जीना चाहती है, झरने
की तरह उछलती, भागती जीना चाहती है. न,
उसे झील नहीं बनना. औरत बनते ही वो भोलापन जो बिला जाता है, वे
सपने जो कहीं गुम हो जाते हैं, छटते कोहरे की तरह. वह देहगंध
जिसमें वह लड़की की तरह जीती है, कब गायब हो जाती है. पर वह
. वह बचाए रखेगी भीतर की वह देहगंध. उसी के सहारे उसे ढ़ूढ़ता आएगा शेखर.
सुमेधा की तरह वह
पहचान देह से शुरू नहीं करेगी.
नेहा दी सच कहा
करतीं थीं. कहती थीं--- "औरत बनने के बाद तो सपनों की मौत पर आंसू भी नहीं
आते. लड़की जहां पीड़ा की परत में लिपटे सुख को खोज लाती है, वहीं औरत के लिए सुख भी त्याज्य होता
है. डायरी में रखे सूखे फूल की तरह. उसके लिए पीड़ा का अर्थ सिर्फ प्रसव पीड़ा से
जुड़ता है, और कुछ नहीं."
"दी, मैं पीड़ा और उससे जुड़ी खुमारी
दोनों को जीना चाहती हूं." उसने कहा था तब.
वह खि़ड़की के पास
से हट गयी. टी. वी. के उपर रखा चित्र. उसका और शेखर का, विवाह के लाल जोड़े में. उसके पास
मुस्कुराता शेखर. विवाह का वह तमाम ताम झाम, मंत्रोच्चार,
औरतों की भीड़ से घिरी वह---- और था वह, शेखर,
जीता जागता शेखर. जिसे उसने देखा ही नहीं था और वह उसका पति हो गया
था, कुछ ही अनुष्ठानों और मंत्रोच्चारों के बाद.
वही था जिसके साथ
उसे सपने जोड़ने थे. मां और तमाम बुजुर्ग औरतों की हिदायतें, लाल जोड़े में औरत होने का एहसास
दिलाते रहे. पर वह कहां तब्दील हो पोई थी. शेखर के साथ बम्बई आते हुए उसने आश्वस्त
किया था खुद को.
पर यहां आते ही
लड़की की उदासा सुरू हो गई थी. छोटा सा फ्लैट था- सिर्फ एक कमरे और रसोई का.
जिसमें सिर्फ एक खिड़की थी, जिसमें
से सामने के घर दिखते थे. आसमान को देखने के लिए सिर
उपर करना पड़ता था. एक टुकड़ा भर था उसके पास.पहली रात थी जब सिर्फ तीन- चार तारों
वाला आसमान उसके हिस्से में था.
शेखर का सामीप्य और
उसका भरपूर प्यार---- वह तो बाद में जान पाई की वह पुरूष का. पति का प्यार था, उसके राजकुमार का नहीं.
वह सात बजे उठता था
और चाय उसे ही बनानी थी.
वह उठी थी आदतन
सुबह. पुरूष की अपेक्षाएं, रूचियां
औरत की आदत बन जाती हैं. सुमेधा ने कहा था.
न वह पहले दिन
खिड़की के पास खड़ी थी अकेली. घास की ओस उसकी आंखों में उतर आई थी. बाहर के उजास
में सब कुछ साफ होने लगा था और उसके भीतर सब कुछ धुंधला.
वह पहला दिन था और
पहली शाम. बादलों से भरी बम्बई की शाम. सुमेधा ने कहा था कि शुरू में पुरूष से
सम्मोहन के सहारे अपने ढंग से मनवाया जा सकता है. उसे तब उसकी बात अटपटी लगी थी.
पर कमरे में कैद टुकड़ा भर आसमान को ले कर वह कसमसाने लगी थी. उसने झिझकते हुए कहा
था----
"चलें बाहर
कहीं?"
"इस मौसम में," वह चौंका था."व्हाट
नाॅन्सेंस, बीमार पड़ोगी."
वह मेडिकल फर्म का
सेल्स रिप्रेजेंटेटिव था.
"तो क्या हुआ.
सर्दी बारिश तो लगी रहेगी. मौसम के हिसाब से फूंक-फूंक के जीने लगे तो जी चुके हम.
जीना है तो बस जी लो. मत सोचो रात है, दिन है, पेट भरा है या खाली. बस जीते
रहें......." वह जाने कैसे बोल गई थी सहसा.
वह पास आया था और
उसके कंधे पर हाथ रख कर बोला था, 'मेरी
जान, यह मौसम है यहीं खिड़की के पास बैठने का, चाय के साथ गरम-गरम पकौड़ियां और साथ में तुम. बाहर बसों में भीगने और
साड़ी खराब करने का क्या तुक." वह जोर से हंसा था और उसे कस कर चूम लिया था.
वह चुपचाप किचन में थी---- पकौड़ियां तलती और वह बाहर था---- कुछ पेपर्स के साथ.
बीच- बीच में उसे वहां आने के लिए आवाज देता. पर किचन स्लैब पर कोई नहीं था.
वह पकौड़ों की तारीफ
करता रहा था कि उसकी मां भी इसी तरह के पकौड़े बना दिन ती थी. उसके हाथों को चूमा
था.
रात हौले से पसर गई
थी. बारिश की रात. वह मनमानी करता रहा था उसकी देह के साथ. उसे लगा था कि उस रात
वह लगातार मरती रही थी. देह की गठान उसने नहीं देखी थी. सिर्फ ज्वार था जो उसे
रह-रह कर भिगो जाता था. पर वह भीग कहां पाई थी. सिर्फ गुजर जाता वह ज्वार उपर से.
वह सिर्फ कुछ उत्तेजक अंग हो कर रह गई थी. यानी कि एक औरत, एक पत्नी.
एक सपना था जो
धीरे-धीरे मरने लगा था. वह उस सपने की मौत देख रही थी.दिन जैसे बुझने लगे थे. न धूप, न अंधेरा. सब कुछ बुझा-बुझा सा था.
हवा में राख जैसा कुछ तैरता. न. हवा भी तो गुम होने लगी थी. उसके इर्द-गिर्द तमाम
चीजें मरने लगीं थीं. बीमार होने लगा था सब कुछ. मरी नहीं तो सिर्फ वह.
सन्नाटे में सपनों
की हवा एक सिलवट छोड़ जाती थी रोज. और उन सिलवटों से भर जाता था पूरा दिन, पूरी रात.
वह चाहती थी शेखर से
कहे कि एक दूसरे से कही गई सोची गई बातों से नया अर्थ मिलता है, संवेदना को, सम्बंधों
को. वह सिर्फ शारीरिक नहीं होता, उससे ऊपर होता है. हम शरीर
नहीं होते सिर्फ भावना होते हैं. जैसे कोई सिंफनी हवा में तैरती रहे. वह प्यार तब
सिंफनी हो जाता है. एक दूसरे के होने का एहसास, एक दूसरे के
लिए अपने होने का एहसास.
गोद में सिर रख कर
ढेर सी बातें करना चाहती थी. धीमी आवाज में कविता गुनगुनाना चाहती थी. वह चाहती थी
कि फुसफुसाती, मचलती
सी आवाज में उससे बातें करे, प्यार के उन क्षणों में,
जो धीमें-धीमें कहीं किसी सांझ की तरह, धीमे-धीमे
सरके किसी चांदनी की तरह. वह सिर्फ प्रतीक्षा करती रही समुद्र बनते शेखर की. पर
शेखर के लिए प्यार एकांत की नोच खसोट था. रात में देह की खुमारी था. प्यार दांपत्य
था. एकदम दांपत्य .
शेखर के लिए दुनिया की कोई भी वस्तु रूपयों में ही तुलती थी. खरीदी जा
सकती थी. सुख- सुविधाएं , शांति, सब
कुछ, वह क्षणों को रूपयों में तब्दील कर लेने पर विश्वास
करता था और उसके लिए उसका घूमना, मेहनत करना जरूरी था, ताकि बुढ़ापे में एक आरामदेह जिंदगी मिल सके. भविष्य, बुढ़ापा-- वह इनकी चिंता करता था.
उसने उसे बताया था
कि तमाम चीजें ऐसी हैं जो रूपयों से नहीं खरीदी जा सकतीं, जैसे हवा, चांदनी,
पहाड़ी धुंध या जंगल का संगीत, या शाम के रंग.
वह हंसा
था----" दिमाग तो ठिकाने है. जो चीज काम की नहीं होती, वह रूपयों से कहां खरीदी जाती है.
मैडम, जब जुहू जाओ न हवा खाने तो वहां भेलपूरी खाने के पैसे
देने पड़ते हैं. घुड़सवारी करनी हो या घोड़ागाड़ी पर जाना हो--- समझी--- मनोरंजन
भी मुफ्त नहीं होता..... "
यशी उसे बता नहीं
पाई कि यह सब वह जो महसूस करती है, मनोरंजन नहीं है. सिर्फ इतना भर कहा था उसने---
"लेकिन धुली
चांदनी, शामों
के रंग, झरने के संगीत और जंगल के एकांत को महसूसने वाली
दृष्टि खरीद पाओगे."
पर शेखर फाइलों में
डूब गया था.
"तुम्हारी
बातें मेरी समझ में नहीं आती....".धीरे से बुदबुदाया था वह
वह शेखर था, उसका पति. जिसने उसे बिन्नी की शादी
में पसंद किया था.जो अम्मा की नजर में अच्छा खासा लड़का था.जिसके शादी के बाजार
में ऊंचे भाव थे. जो एक सफल आदर्श पति हो सकता था. एक सफल दांपत्य निभा सकता
था.शेखर में खूबसूरत एहसासों को समझने की न क्षमता थी, न
रूचि, न वक्त. उसके लिए संसार का अर्थ वही था जो वस्तुगत था.
इससे अधिक कविता, संगीत, गैरजरूरी
चीजें थीं. जिनकी कोई उपयोगिता नहीं थी.
खाली वक्त में कढ़ाई, बुनाई, क्रोशिया
करना उसकी समझ में आता था. खाली वक्त महसूस करने के लिए भी होता है, यह उसकी समझ से परे था.
उसके तर्क वैज्ञानिक
होते, मेडिकल
होते--- एहसासों की दुनिया से उनका कोई रिश्ता नहीं होता.
विवाह के एक माह बाद
ही शेखर निकल गया था लम्बे दौरे पर. फिर तो वह अक्सर निकलता रहता. वह धीरे धीरे उन
दिनों को अलग करने लगी थी जब शेखर साथ नहीं होता था. वह दौरे पर निकल जाता तो उसके
भीतर सब कुछ पिघलने लगता. तभी तो हुआ था. चित्र का वह शेखर सहसा निकल आया था. और
वह जीने लगी थी उसके साथ. शेखर जब जाता तो अपने साथ तमाम चीजें ले जाता. एक पूरी
दुनिया ही. उसके जाने के साथ ही वह हिस्सा ,जो वह उसके साथ जीती थी, खत्म हो जाता .
देह से भरपूर औरत बन जाने के बाद भी भीतर की लड़की जो अछूती थी, अंगड़ाई ले कर उठ बैठती उसके दूसरे हिस्से से. जीना शुरू कर दिया था चित्र
वाले शेखर के साथ. वही हिस्सा वह जीना चाहती थी. शेखर की अनुपस्थिति में वह अकेली
निकलती---- नरीमन प्वाइंट, हैंगिंग गार्डेन, जाने कहां-कहां बारिश में, सिंदुरी शामों में,
रात के झिलमिलाते अंधेरों में---- एक दूसरी दुनिया सिमट आई थी उसके
चारों ओर. शेखर लौट आता तो सब बुझने लगता. जीने और मरने का यह सिलसिला चलता रहा.
शेखर के लौटते ही भीतर की लड़की को सुला देती थी. शेखर को औरत चाहिए थी. लिहाजा
यशी ने समझौता कर लिया था दो हिस्सों में बंट कर जीने से.
शेखर ने उसे अकेलेपन
से मुक्ति पाने के लिए कमप्यूटर कोर्स ज्वाइन करने की सलाह दी थी, जिसे मुस्कुरा कर उसने टाल दिया था.
वक्त का उपयोग होना चाहिए, यशी, यू आर
स्मार्ट इनफ. उसने कहा था.
पर वह चुप रही. उन
बातों को चुप्पी से झेल लेने की ताकत भी उसी दूसरे शेखर ने दी थी, यह वह जल्दी ही समझ गई थी.
पर अब. शेखर के उस
पत्र ने जैसे उसे बीच सपने से झिंझोड़ कर जगा दिया था. आज की डाक से वे दो पत्र आए
थे.
टेढ़े मेढ़े अक्षरों
में अम्मा का पत्र--- "कैसी हो.पत्र नहीं लिखतीं. समय नहीं मिलता क्या. जमाई
बाबू तो छोड़ते ही नहीं होगें. मेरी मान जल्दी से कुछ कर ले. वरना बुढ़ापे में
बच्चे जनेगी क्या?"
मां भरे पूरे घर में
ब्याही थी. अब अपने अवचेतन मन की कल्पना को सहला रही थी.
दूसरा पत्र शेखर का
था. "एरिया मैनेजर हो गया हूं. अब भागमभाग नहीं रहेगी. दफ्तर वहीं होगा शहर
में. महीने के दो तीन बाहर रहना होगा. शेष तुम्हारे साथ. खुश हो न. तुम्हारा
शेखर."
वह उत्साहित नहीं हो
पाई थी. कुछ टूट गया था जैसे भीतर. उसके लौट आने की आतुरता की तुलना में पत्र में
झांकती उसकी अपेक्षाएं ज्यादा बेसब्री से झांक रहीं थीं. पत्र लिखने वाला शेखर
उसका पति है. पर वह शेखर, जिसकी
गोद में लेट कर वह कविताएं गुनगुनाती है, जिसके साथ
सूर्यास्त के तमाम रंग भीतर उतारती है, वह तो गुम हो जाएगा,
उस लड़की को भी अपने साथ ले कर.यथार्थ सपने को ठेल कर आगे बढ़
जाएगा.
किसी भी निर्णय को ले लेने की जल्दी, जिंदगी को क्षण
प्रति क्षण जी लेने की तेजी--- उसकी बेचैनी बढ़ने लगी. जब भी सोच की दिशा में कोई
अंधी गली आ जाती है, उसकी सुगबुगाहट बढ़ जाती है.
उसने खिड़की से बाहर झांका. परिंदे लौट चुके थे. एक हल्की सफेद परत थी,
जो टुकड़ा भर आसमान में थी. उसे याद आया आज तो पूर्णिमा है, गोल चांद, पूरी माया वाला.
"ए वर्ल्ड लुक्ड एट हर स्टेट इन द आइज,
आई एम अलोन शी व्हिस्पर्ड
आई एम अलाइव-शी एंटर्ड द रूम"
उसने खिड़की बंद की
और पर्दे खींच दिए. अलमारी में टंगी साड़ियों पर उंगलियां फिराने लगी. गहरी नीली
साड़ी पर ढेर सफेद बुंदकियां. उसने वही साड़ी पहन ली. मोतियों के टाॅप्स, माला. वह बाहर निकल आई.
नरीमन प्वाइंट की चट्टान पर अकेली कहां थी वह, शेखर
भी तो था उसके साथ. साड़ी का आंचल लहराते हुए उसने पूछा---- "बताओ
तो , आसमान ऊपर है या नीचे."
"यही तो मैं भी सोच रहा था, नीचे कैसे उतर आया."
वे दोनों देर रात तक बैठे रहे.
" घर नहीं लौटना ........" एक फुसफुसाती
आवाज गूंज गई.
" नहीं सारी रात यहीं बैठना है,
जब तक रात अपनी साड़ी न उठा ले जाए."
वह भीगती रही. रात गहराती रही.ज्वार बढ़ता रहा.वह पूरी तरह भीग गई थी.
हवा सरसरी रही
थी----
"ओह, हू विल केयर टू लिव
टिल लव हैज नथिंग मोर टु आॅफर, नथिंग मोर टु गिव
आइ वांट टु डाइ....."
"लहरों के पास
नहीं चलना." शेखर फुसफुसाया
"चलें? सच्ची. "वह जैसे नींद में उठ गई थी
"चलो"
चट्टानों पर धीमे से
पांव जमा वह उतरने लगी थी.
"आगे
चलें"
"हूं, चलो...."उसकी आवाज भी लहरों में
खो गई
वह आगे बढ़ती रही
धीरे- धीरे. शेखर के हाथ में उसका हाथ था.
मैं ही समुद्र हूं, मैं ही ज्वार, मैं
हवा हूं, मैं धुंध.........सहसा शेखर का हाथ छूट
गया........मैं ही सूर्य हूं, मैं ही चंद्र, मैं ही रात की कालिमा हूं और मैं ही प्रातः का आलोक.............
और उस हल्के आलोक
में शांत समुद्र के तट पर चट्टानों के पास रेत पर एक सिम्फनी शांत हो गई.
इस कहानी के विषय में बहुत कुछ कहने का मन कर रहा है, पर कुछ नहीं कहेंगे। कुछ चीजों का जादू कहने, बोलने से टूट जाता है. वे धुंध की रेशमी तहों में लिपटी ही मन के ज्यादा करीब लगती हैं.
यह कहानी, डा. सुमति अय्यर के जाने के बाद प्रकाशित उनके कहानी संग्रह ''विरल राग'' की अन्तिम कहानी है. उनकी अन्तिम प्रकाशित रचना। इसके बाद यदि किसी भी पत्र-पत्रिका में उनकी कोई रचना प्रकाशित भी हुई है, तो वह उसका पुनः प्रकाशन ही होगा और सच, यह अन्तिम रचना ही होनी चाहिए, क्यों कि उसके बाद तो.…… सिम्फनी खो गई.
No comments:
Post a Comment