डॉ. सुमति अय्यर का जन्म 18 जुलाई 1954 में मद्रास में हुआ
था किंतु मूलतः उनका सीधा संबंध तंजौर जिले के तेप्परुमानल्लूर ग्राम से था। उनकी
शुरुआती शिक्षा मद्रास में ही हुई थी लेकिन बाद के वर्षों की सारी शिक्षा उन्होंने
कानपुर में ही ग्रहण की। 1975 में उन्होंने कानपुर से हिंदी साहित्य में एमए किया
और अपनी पीएचडी (हिंदी साहित्य में ललित निबंध)
वहीं से पूरी की।
उनके लेखन का प्रारंभ छात्र जीवन से ही हो गया था और उनकी
पहली प्रकाशित कहानी ‘कैक्टस के फूल’ थी जो साप्ताहिक हिंदुस्तान में प्रकाशित हुई थी। सत्तर के
दशक से 1993 तक डॉ. सुमति अय्यर तत्कालीन हिंदी साहित्य एवं तमिल साहित्य के हिंदी
अनुवाद के क्षेत्र में एक सशक्त हस्ताक्षर के रूप में स्थापित हो चुकी थीं। अब तक उनके
तीन कहानी संग्रह, दो कविता संग्रह, दो संकलन, एक नाटक प्रकाशित हो चुके हैं, इसके
अतिरिक्त उन्होंने तमिल से लगभग 15 उपन्यास, दो नाटक तथा कई जीवनियां हिंदी में
अनूदित करी हैं। उनके नाटक ‘अपने अपने कठघरे’ एवं कहानी ‘भरत वनवास’ पर बनी टेलिफिल्में लखनऊ दूरदर्शन द्वारा प्रदर्शित की जा
चुकी हैं। ‘सुमति अय्यर की कहानियों का अनुशीलन’ विषय पर गुरू घासीदास विश्वविद्यालय, बिलासपुर में शोध
कार्य भी हो चुका है। इसके अतिरिक्त इस अवधि में प्रकाशित हिन्दी के अन्य
प्रतिष्ठित लेखकों द्वारा संकलित कहानी एवं संस्मरणों तथा तत्कालीन हिंदी पत्रिकाओं
में भी सुमति अय्यर की उपस्थिति दर्ज है।
तमिल, संस्कृत एवं हिंदी, तीनों ही भाषाओं पर अपनी मजबूत
पकड़ के कारण अपने रचनाकाल में तमिल से हिंदी अनुवाद के लिए सुमति अय्यर बहुधा
पहली पसंद हुआ करती थीं और सच भी यही है कि तमिल उपन्यासकार-कहानीकार कोई भी रहा
हो, किसी भी काल का रहा हो, उसकी रचना के अनुवाद में सुमति जी ने कृति की मौलिकता
को बखूबी संभाले रखा है। तमिल रचनाओं में वर्णित सांस्कृतिक एवं सामाजिक परिवेश का
ताना-बाना वहां की माटी की खुशबू में डुबो सुमति जी हिंदी में इतनी सहजता से
उकेरती थीं कि लगता ही नहीं थी हम किसी अनूदित रचना से गुजर रहे हैं। ना तो कहीं
कथा के प्रवाह में बाधा आती थी ना ही भावों के संप्रेषण में। तमिल साहित्य की अनेक
बहुमूल्य कृतियों को हिंदी भाषी पाठक तक पहुंचाने में डॉ. अय्यर ने एक महत्वपूर्ण
सेतु का काम किया है।
किंतु यह हमारा दुर्भाग्य रहा कि 5 नवंबर 1993 को वह हमारा
साथ असमय छोड़ गईं और मेरा मानना है कि यह हिंदी भाषी पाठकों के लिए दुतरफा नुकसान
था। एक तो हम उनकी हिंदी कलम जो उत्तरोत्तर विकसित हो रही थी उससे महरूम हो गए,
दूसरा तमिल के बहुत से बेहतरीन साहित्य से भी शायद वंचित रह गए।
उनके द्वारा अनूदित अंतिम कृति तमिल उपन्यास ‘दासिगल् मोसवलयै’ का हिंदी
रूपांतर उनके मरणोपरांत प्रकाशित हुआ। यह उपन्यास मूलतः तमिल में 1936 में
प्रकाशित हुआ था और यह 1993 में हिंदी में पहली बार अनूदित हुआ था। इसके अतिरिक्त
उनके द्वारा लिखी कहानियों का संग्रह ‘विरल राग’ और कविता संग्रह ‘भोर के हाशिए पर’ भी उनकी मृत्यु के बाद प्रकाशित हुये।
उनका प्रमुख अनूदित कृतियां निम्नलिखित रहीं।
मोहदंश- भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित
एक कावेरी सी- साहित्य अकादमी
माटी के लाल- भारतीय ज्ञानपीठ
खारे मोती- भारतीय ज्ञानपीठ
आकाशघर- किताबघर द्वारा प्रकाशित
पुदमैपित्तन की कहानियां- नेशनल बुक ट्रस्ट
इसके अलावा उनकी स्वरचित कृतियों में निम्नलिखित प्रमुख
रहीं।
मैं तुम और जंगल- कविता संग्रह
भोर के हाशिए पर- कविता संग्रह
घटनाचक्र- कहानी संग्रह
शेष संवाद- कहानी संग्रह
असमाप्त कथा- कहानी संग्रह
इतिहास में सिलवट- संकलन
जिनके मकान ढहते हैं- संकलन
No comments:
Post a Comment