Sunday, January 13, 2019

कहानी- निर्माल्य, उपहार पत्रिका में





'उपहार' में 'निर्माल्य' सुमति अय्यर के जाने के बाद प्रकाशित हुई थी। 'निर्माल्य'  और 'देहांतर' जैसी कुछ लम्बी कहानियां जो सुमति जी ने आखिरी दिनों में लिखी थी एक अलग ही स्तर की कहानियां हैं। विषय गूढ़ है किंतु ऐसा जटिल नहीं कि समझ ही न आए। कहानी गम्भीर है किंतु नीरस नहीं। भाषा विन्यास, संस्कृत के श्लोकों का उद्धरण, कुछ पौराणिक संदर्भों का जिक्र, सब मिल कर कहानी को मात्र कहानी के स्तर कहीं बहुत ऊपर उठा देते हैं, लेकिन इनसे न कथानक ढीला होता है, न प्रवाह में कहीं बाधा पड़ती है और न ही कही- अनकही मन की भावनाओं , मानव मन की गुत्थियों की बेआवाज बहती लहरेंआपके मन को सींचने से रुकती हैं। हर बार इन कुछ कहानियों को पढ़ने के बाद हमें लगता है, काश.... यह रचनाक्रम कुछ और लम्बा चल पाता तो शायद हिंदी कहानी की यात्रा में एक नया ही पड़ाव रच जाता। खैर जिस पर बस नहीं उसके लिए क्या कहें, चलिए जो है उसे ही संजो लेते हैं. कुछ अंश निर्माल्य के---



"वह चौदस की रात थी और मां छत पर ही थीं काम से निपट कर। आदित्य चाचा बाबा की प्रतीक्ष3 में रुके थे। बाबा को उस दिन देर से लौटना था। मां ने वरूण सूक्त की जिद की थी --
अर्यम्य वरुण मित्र्यं या सखायं वा सदमिदभ्रातरं वा ।
वेशं वा नित्यं वरूणारणं वा यत्सीमागश्चकृमा शिश्रथस्तत ।।
हे वरूण , अज्ञान और प्रमाद से जिस अपराध को हम लोग करें, उन सबका नाश करिए।


मां की आंखें भर आईं थीं. शून्यभाव से आदित्य चाचा ने भी उनकी ओर देखा था। सब कुछ था उसमें, पर कुछ नहीं था।"


बस एक वाक्य---"सब कुछ था उसमें, पर कुछ नहीं था।' और कितना कुछ कह गया। ऐसे न जाने कितने वाक्य बिखरें हैं इस कहानी में, जो अपनी सहजता में भी भीतर का सारा कुछ उड़ेल जाते हैं। मन के भीतर के वे भाव जिन्हें व्यक्त करने को शब्द जैसे बने ही नहीं हैं, बड़ी ही सहजता से पाठक के भीतर तक रोप आती हैं सुमति।


"उस दिन शाम मां सालों बाद खुली थी उसके सामने। अपने तरह तरह के रूपों, मीती हंसी, अबूझ हंसी, संदर्भहीन बातों से दिगभ्रमित करती मां एक- एक शब्द के साथ अपना जीवन खोल रही थीं। अपने पूरे अड़तीस वर्षीय दांपत्य जीवन को अपने ही बेटे के सामने परत -दर -परत खोलती वह औरत उसकी मां थी। पर उसके स्वर में न जाने कितने युगों की कथा थी, अनसमझे रह जाने की व्यथा, गलत समझे जाने की व्यथा। तब हवा चुप थी-- सीढ़ी के पास आ कर बैठ गईं थीं वे। कावेरी का प्रवाह जैसे धीमा हो गया था । पक्षियों की चहचहाट शांत हो गई थी, एक नीरव सन्नाटा था चारों ओर। गिलहरी आम के बाग के सन्नाटे को रह रह कर तोड़ रही थी। चौदस की रात थी, मंत्रमुग्ध करने वाली। कावेरी का पाट, उसका विस्तार , देख कर उस क्षण जीवन का अर्थ धीरे धीरे उभरने लगा था। तभी मां का रेशम सी आवाज गूंजी..........."


इस अंक में पत्रिका के सात पन्नों में है कहानी और वह भी गतांक से आगे..........कहा था न हमने बहुत लम्बी है कहानी। और हो भी कैसे न...मन की हर परत और वह भी अलग अलग पात्रों के मन , सबके अपने अलग आग्रह, दुराग्रह, गांठें, खुलापन, इन सबको न्यायसंगत ढंग से, दुलराते हुए सहेजना कोई दो शब्दों में कहने वाली बात तो है नहीं।  





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