एक पत्रिका और हाथ लगी -- अविरल मंथन । पता नहीं अब प्रकाशित होती भी है या नहीं। वैसे भी हिंदी की बड़ी बड़ी पत्रिकाएं जब समाधिस्थ हो गयीं हैं तो यह भी गुम हो गयी हो तो भला आश्चर्य कैसा। हां, तो इस पत्रिका के मार्च 98 के अंक में सुमति अय्यर लिखित एक कहानी प्रकाशित हुई थी, कहानी थी, अथवटपुराणम् ।
कहानी एक बालक की जबानी है । घऱ और आस- पास के परिवेश से उसकी कोमल और अलग सी संवेदनाओं का संघर्ष, सारी विद्रूपताओं के बीच कुछ कोमल, सुंदर सा खोज उसे मुट्ठी में बंद कर उसी के सहारे जीवन पार करने का तरीका खोज लेना और सबसे अधिक अपने पिता को समझना और उनके हताश दिनों में उनके संजीवनी खोज लाना, सब मन को भीतर तक गीला कर जाता है।
एक समय के दक्षिण भारत के गांव साकार हो उठते हैं, सुमति के चित्रण से। कहानी लम्बी है पर उबाऊ कतई नहीं। हर पात्र दूसरे से अलग, कहीं कहीं एक- दूसरे के प्रति निष्ठुर और अन्याय करता हुआ भी पर सब जैसे अपने अपने कटघरे में अवश । किसी भी पात्र पर न गुस्सा आता है, न घृणा, बस उनकी विवशता पर हल्का से तरस आता है ।
खुद ही देखिए, नीचे , कहानी के कुछ अंश ---
"उन्हें एक दूसरे भी शिकायत रही। चित्रों में मखमली एहसास के साथ कम रंगों के इस्तेमाल से मैं तमाम उड़ान, फिसलन, पिघलन, पत्तों की चरमराहट तक का आभास देने की कोशिश करता था। पिता की कविता को रंगों में जीता हुआ मैं विद्रूपताओं को भी आंकने लगा था। दरअसल जीवन की, घर की विसंगतियों का शायद प्रभाव पड़ना ही था। अब मैं प्रतीकों में रुचि लेने लगा था। कभी आंख की जगह चिड़िया बना देता, कभी बकरी...। कभी आदमी के कान हाथी के कानों की तरह पंखेदार बना देता..."
" मुझे याद है- एक स्थानीय नेता की षष्टी पूर्ति के अवसर पर एक प्रोट्रेट बनाने का काम मिला था । दस दिन लग कर मैंने प्रोट्रेट तैयार किया। उनके मित्र ने आ कर देखा तो तमतमा गए थे। केवल धड़ बनाया था मैंने, सिर नहीं। मैंने उन्हें समझाने की कोशिश भी की कि नेताओं में तो ऊपर का हिस्सा होता ही नहीं । जो नहीं है उसे कैसे दिखा दूं। प्रोट्रेट बहरहाल घर पर ही धूल खाता रहा। गालियां मिलीं सो अलग....."
" पिता
तुम महसूस करते हो
चांदनी का जादू
आलता लगे पांव की
उन्मुक्त थिरकन
जलकुंभी भरे तालाबों का सन्नाटा-
पर, तुम नहीं जानते क्या कुछ झड़ रहा है
घर की भीतर की दीवारों से,
क्यों बेरंग होता जा रहा है
पूरा घर.....।"
" पिता की गाड़ी जहां रुकी थी उस घर को मैं आज तक नहीं भूल पाया । हूबहू याद है, घर के आगे बनी वह बड़ी सी अल्पना, ओसारे की दीवार पर बने भित्ती चित्र - चमेली की खूब फूली बेल-- उस घर को पूरे मोहल्ले से अलग करते थे । बैसगाड़ी की आवाज सुनते ही वह बाहर निकल आयीं थीं, दूधिया हंसी बिखेरतीं । हल्का सांवला रंग, बड़ी आंखें, घुंघराले बालों की लम्बी वेणी और उसमें गुंधे मोतिया के फूल । मैं समझ गया था, यही वह हैं जिनके साथ पिता अक्सर बाहर रहते थे । दादी और मां की चुड़ैल , पिता की सखि। मेरे बाल मन में पड़ी उनकी पहली छांह सखि ही थी।
पिता ने मेरी परिचय कराया तो उन्होंने मुझे पास खींच कर चूम लिया था।..........
शाम की संझावती के बाद पिता तानपुरा ले कर बैठ गए थे। याहि माधव, याहि केशव... जयदेव उन्हें बहुत पसंद थे और अचानक ही वे पैरों में घुंघरू बांध उठ खड़ी हो गयीं थीं । मानिनी राधा का मान, उसका उलाहना, पिता की आवाज से हो कर उनकी आंखों और हाव भाव में उतर आया था। आम शामों से अलग वह शाम थी। घर की कब्रनुमा शाम नहीं । कृष्ण का अप्रतिम रूप 'अधरं मधुरं- नयनं मघुरं मधुराधिपते अखिलं मधुरं' में रूपाकार हुआ था और 'कनक सभागत कांचन विग्रह. में नटराज का लास्य मूर्तिमंत हो गया।................ 'धीर समीरे यमुना तीरे में यमुना का किनारा और वंशी बजाते वनमाली का दृश्य आंखों के सामने साकार हो गया था। पिता का कंठ, उनका अंग संचालन और मेरी कल्पना का विस्तार.......जितनी देर वहां रहा जैसे बेमौसम खिल आए जंगली फूलों के संसर्ग में रहा । सांस खींच सब कुछ भीतर भर लेने की इच्छा हुई । पिता शावद जीवन के लिए ऊर्जा वहीं से भर लेते होंगें।
कहानी एक बालक की जबानी है । घऱ और आस- पास के परिवेश से उसकी कोमल और अलग सी संवेदनाओं का संघर्ष, सारी विद्रूपताओं के बीच कुछ कोमल, सुंदर सा खोज उसे मुट्ठी में बंद कर उसी के सहारे जीवन पार करने का तरीका खोज लेना और सबसे अधिक अपने पिता को समझना और उनके हताश दिनों में उनके संजीवनी खोज लाना, सब मन को भीतर तक गीला कर जाता है।
एक समय के दक्षिण भारत के गांव साकार हो उठते हैं, सुमति के चित्रण से। कहानी लम्बी है पर उबाऊ कतई नहीं। हर पात्र दूसरे से अलग, कहीं कहीं एक- दूसरे के प्रति निष्ठुर और अन्याय करता हुआ भी पर सब जैसे अपने अपने कटघरे में अवश । किसी भी पात्र पर न गुस्सा आता है, न घृणा, बस उनकी विवशता पर हल्का से तरस आता है ।
खुद ही देखिए, नीचे , कहानी के कुछ अंश ---
"उन्हें एक दूसरे भी शिकायत रही। चित्रों में मखमली एहसास के साथ कम रंगों के इस्तेमाल से मैं तमाम उड़ान, फिसलन, पिघलन, पत्तों की चरमराहट तक का आभास देने की कोशिश करता था। पिता की कविता को रंगों में जीता हुआ मैं विद्रूपताओं को भी आंकने लगा था। दरअसल जीवन की, घर की विसंगतियों का शायद प्रभाव पड़ना ही था। अब मैं प्रतीकों में रुचि लेने लगा था। कभी आंख की जगह चिड़िया बना देता, कभी बकरी...। कभी आदमी के कान हाथी के कानों की तरह पंखेदार बना देता..."
" मुझे याद है- एक स्थानीय नेता की षष्टी पूर्ति के अवसर पर एक प्रोट्रेट बनाने का काम मिला था । दस दिन लग कर मैंने प्रोट्रेट तैयार किया। उनके मित्र ने आ कर देखा तो तमतमा गए थे। केवल धड़ बनाया था मैंने, सिर नहीं। मैंने उन्हें समझाने की कोशिश भी की कि नेताओं में तो ऊपर का हिस्सा होता ही नहीं । जो नहीं है उसे कैसे दिखा दूं। प्रोट्रेट बहरहाल घर पर ही धूल खाता रहा। गालियां मिलीं सो अलग....."
" पिता
तुम महसूस करते हो
चांदनी का जादू
आलता लगे पांव की
उन्मुक्त थिरकन
जलकुंभी भरे तालाबों का सन्नाटा-
पर, तुम नहीं जानते क्या कुछ झड़ रहा है
घर की भीतर की दीवारों से,
क्यों बेरंग होता जा रहा है
पूरा घर.....।"
" पिता की गाड़ी जहां रुकी थी उस घर को मैं आज तक नहीं भूल पाया । हूबहू याद है, घर के आगे बनी वह बड़ी सी अल्पना, ओसारे की दीवार पर बने भित्ती चित्र - चमेली की खूब फूली बेल-- उस घर को पूरे मोहल्ले से अलग करते थे । बैसगाड़ी की आवाज सुनते ही वह बाहर निकल आयीं थीं, दूधिया हंसी बिखेरतीं । हल्का सांवला रंग, बड़ी आंखें, घुंघराले बालों की लम्बी वेणी और उसमें गुंधे मोतिया के फूल । मैं समझ गया था, यही वह हैं जिनके साथ पिता अक्सर बाहर रहते थे । दादी और मां की चुड़ैल , पिता की सखि। मेरे बाल मन में पड़ी उनकी पहली छांह सखि ही थी।
पिता ने मेरी परिचय कराया तो उन्होंने मुझे पास खींच कर चूम लिया था।..........
शाम की संझावती के बाद पिता तानपुरा ले कर बैठ गए थे। याहि माधव, याहि केशव... जयदेव उन्हें बहुत पसंद थे और अचानक ही वे पैरों में घुंघरू बांध उठ खड़ी हो गयीं थीं । मानिनी राधा का मान, उसका उलाहना, पिता की आवाज से हो कर उनकी आंखों और हाव भाव में उतर आया था। आम शामों से अलग वह शाम थी। घर की कब्रनुमा शाम नहीं । कृष्ण का अप्रतिम रूप 'अधरं मधुरं- नयनं मघुरं मधुराधिपते अखिलं मधुरं' में रूपाकार हुआ था और 'कनक सभागत कांचन विग्रह. में नटराज का लास्य मूर्तिमंत हो गया।................ 'धीर समीरे यमुना तीरे में यमुना का किनारा और वंशी बजाते वनमाली का दृश्य आंखों के सामने साकार हो गया था। पिता का कंठ, उनका अंग संचालन और मेरी कल्पना का विस्तार.......जितनी देर वहां रहा जैसे बेमौसम खिल आए जंगली फूलों के संसर्ग में रहा । सांस खींच सब कुछ भीतर भर लेने की इच्छा हुई । पिता शावद जीवन के लिए ऊर्जा वहीं से भर लेते होंगें।