पता नहीं यह कैसा संयोग था कि अपने जाने से कुछ ही पहले लिखी गयी उनकी कविताओं मे जाने का जिक्र अन्जाने ही आ गया था .अब इसी कविता की शुरुआत देखिये .
चलो
सब कुछ छोड़ दें यहां
वह सब जो अपना नहीं है
और चल दें कहीं और ...
छोड़ दें उन शब्दों को
जो छल देते हैं
और गुपचुप निकल आयें
तनावों और हताशाओं की
अंधी गुफ़ाओं से
छोड़ जायें नफ़रत\हिंसा से लिपटे
संवत्सर,शताब्दियों को .
छोड़ दें यह सब
जहां हो कर भी
न होने के बीच जीता है आदमी
चल दें कहीं और....
चलें ,
जहां बचा हो
थोड़ा सा इन्सान
बचा हो थोड़ा सा प्रेम
जहां बचा हो थोड़ा सा आकाश
थोड़ी सी ताज़ी हवा
बचा हो बसंत का राग
बारिश के बाद की हरियाली
जहां पेड़ गुनगुनाते हों
कोई भूला सा प्रेम गीत
जहां प्रेम शब्द बन कर
झरता हो हर्सिंगार की तरह
जहां प्रेम हौले से छू दे धरती को
गुनगुनाती धूप की तरह
जहां प्रेम हरहराता हो
समुद्र की तरह
जहां प्रेम गुजर जाये
पूरबी हवा की तरह
तुम्हारे हमारे और
नये आकार लेते स्वप्न के बीच
भले ही गुजर जायें
शताब्दियां
किसी हलचल के बिना
अथह मौन के बीच
बची रहे हमारे तुम्हारे
हाथ की आंच
हमारी आंखों का सपना
और थोड़ा सा प्रेम
थोड़ा सा इंसान
लौटेगें तब
एक नयी स्रिष्टी लेकर
किसी अनाम संवत्सर में......
प्रेम और इन्सानियत की तलाश मे इतने लम्बे सफ़र मे निकल गयी हो ,पर हम इन्तज़ार करें क्या उस अनाम संवतसर का .नयी स्रिष्टी के संग लौटोगी .........
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4 comments:
Namita
Sumati kavi jo bhi likhta hai sawendanao ke adhaar par likhta hai
shaayad usaki dekhane ki shakti bhi jyada hoti hai tabhi wah wo dekh leta hai jo aam aadmi nahi dekh pata..
छोड़ दें उन शब्दों को
जो छल देते हैं
और गुपचुप निकल आयें
तनावों और हताशाओं की
अंधी गुफ़ाओं से
छोड़ जायें नफ़रत\हिंसा से लिपटे
संवत्सर,शताब्दियों को .
Is kawita ko taaref ki jaroorat nahi...yah apane aap main ....Dard..pyaar...prakriti ka anootha bakhaan hai...
....Log kah sakte hain yah sakaaratmak soch ki kawita nahi hai...Lekin Kaviyatri jo apni manjil talash rahi hai wah hi akhiri manjil hai wahi Andheron se ujaalo ki aor badhte kadam hain
AUR YAHI ASALI SATYA HAI
Shootradhaar !
सूत्रधर जी
किसी भी रचना का होना सार्थक हो जाता है जब उसे सही तरीके से सम्झने और अनुभव करने वाले पाठक मिल जाते है .
सपना तो हम सब की आंखो मे है कि हो ऐसा संसार जहां नफ़रत ,हिंसा ,तनाव न हो .
आते रहियेगा
नमिता
इन कविताओं को पढकर मैं आपके घर में उनके बारे में हुई बातचीत से गुजर रही हूं। वह तस्वीर मुझे बिल्कुल साफ दिखाई दे रही है....।
उस भावपूर्ण चेहरे के भावपूर्ण शब्द और भावपूर्ण स्मृतियां। शिकायत है आपसे कि आपने अब तक केवल कहानियों का ही जिक्र क्यों किया और खुद से कि मैंने पहले इस ब्लॉग को क्यों नहीं देखा....।
बहुत ही सुन्दर कविताएं हैं...।
अनुजा..तुम्हे यहां पा कर हमें ही नहीं इन कविताओं को भी बहुत अच्छा लगा होगा.इन्हें एक ऐसा पाठक मिला जो रचनात्मकता के ही स्तर पर नहीं वरन आत्मीयता के स्तर पर भी इनसे जुड़ा है.
सुमति जी का कविता संकलन’भोर के हाशिये पर’ जो उनके चले जाने के बाद प्रकाशित हुआ था,उनके कविपक्ष का बहुत ही सशक्त हस्ताक्षर है.
हमसे जितना बन पड़ेगा ,हम तुम्हें पढाते रहेगे और हम तुम बतियाते रहेगे.
छज्जे पर जाड़े की गुन्गुनी धूप पसरने लगी है...और हमे अपनी तुम्हारी बत्रस याद आ रही है.
नमिता
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