आंतक,विध्वंस और मिसाइलों
की इस भयावह दुनिया में
आदेशों,परिपत्रोंऔर फ़ाइलों
की इस इमारत मे
बहुत जतन से बचा पाई हूं
थोड़ी सी प्रक्रिति अपने हिस्से की
थोड़ा सा प्यार् तुम्हारे हिस्से का
और थोड़ी सी छुट्टियां हमारे हिस्से की
फ़िर सिर्फ़

यही तो किया
कि मुट्ठी भर पूस की धूप को
चुरा कर फ़ाइलों मे छिपा लिया
फ़ागुन की चांदनी को दराज़ों में
और भादों की नमी को अलमारी में
छिपा कर रख लिया.
कि जेठ की ऊंघती-तपती दोपहर मे
थोड़ी सी फ़ुरसत में
मेज़ के कागजों को हटा कर
इन्हें फ़ैला लूंगी.
खिड़की के पास झूल आते
कदंब के डंगाल पर टांग दिया
तारीखों को
मीटिंग/रिपोर्ट/संसद् प्रशन
और परिपत्रों को .
लेकिन इतने जतन से सहेज कर रखी गयी अमानतों का हश्र क्या हुआ.....
फ़ाइलों की सरकारी भाषा में
गुम हो गया है

टुकड़ा धूप का
चांदनी पिघल गयी है
दराज़ में भरे फ़ालतू परिपत्रों में
सूख रही है
बारिश की नमी
अलमारी मे बंद
रगिस्ट्रों,फ़ाइल कवरों
और टाइप पेपरों मे.
लेकिन रंगीन सपनों का यूं स्याह हो जाना उन्हें स्वीकार नहीं था .थक कर बैठ नही जाती थीं वरन शुरु हो जाती थी तैयारी फ़िर एक नयी यात्रा की .....
अपन क्यों न
चुरा लें कुछ दिन छुट्टियों के
और चले जायें पहाड़ों के उस पार
चुरा लायें वहां से
रात रानी की थोड़ी सी महक
जाड़े की नरम धूप
छितिज से सिं दूरी रंग
मिट्टी की सोंधी गंध
अमलतास की हंसी
गुल्मोहर की दह्कन
पलाश की आंच
हरसिंगार की ठंडक
चुरा लायें वहां से
सिंदूरी शामें
कुछ जूही की महकती रातें
कुछ फ़ुरसती दोपहरियां
कि
फ़ाइलों का मटमैला रंग
तारीखों की तल्खी
कुछ कम हो जाये
चांदनी ,धूप ,नमी नहीं बची तो
क्या हुआ
छुट्टियां शेष हैं
शेष है यात्रा
पहाड़ के उस पार की .
और यात्रा अशेष हो गयी........
2 comments:
मैं मूक हो गयी हूं इन कविताओं और प्रतीकों को पढकर;....।
कितनी आशा देती कविता है न अनुजा और अपनी जद्दोजहद के कितने करीब......चलो अब तुम भी सहेजो पलाश मेज की ड्राअर में.....यूं तो पलाश का जंगल कितने करीब दहकता तुम्हारे....बस बेतवा के पार ही तो.
नमिता
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