Monday, February 25, 2008

शायद हर रचनाकार प्रक्रिति के बहुत नज्दीक होता है .सुमति जी को भी पर्क्रिति के हर रूप को सहेज कर अपने पास रख लेने की इच्छा थी .उनका बस चलता तो खूब पुराने बड़े बड़े पेड़ों वाले ,पलाश ,गुल्मोहर के दह्कते फ़ूलों वालों किसी जंगल मे ऊंचे से पेड़ पर मचान बांध रहती पर ्जिंदगी केवल ख्वाहिशो और सपनो का नाम नही होती .ठोस धरातल और रोज्मर्रा की हकीकतों का बहुत बड़ा दावा होता है उस पर .जंगल मे जा तो नहीं बस पायीं सुमति जी पर जहां तक हो सकता था प्रक्रिति बटोरती रहती थी .उनके घर के बड़े से टेरस पर कम से कम दो ढाई सौ गमले थे .बाज़ार मे मिलने वाले सबसे बड़े साइज़ से ले कर हथेलियों मे समा जाये इतने छोटे तक .और हर आकार के . ऊंचे ,चपटॆ,गोल मटकी जैसे ,अंडाकार ,लम्बी सुराही से ...गरज यह कि कहीं गयी हो,किसि ाम से गयी हो अगर कोई भी कलात्मक गमला दिख गया तो उसी दिन टेरस पर होत था .इन गमलो मे लगे पौधों मे भी हर तरह के पौधे थे रात की रानी और रजनी गंधा से ले कर कैक्टस तक .फ़ूलने वाले कैक्टस .हां अपने जंगल का मिनियेचर तो सजा ही खा था अपने चारों ओर .देखिये और कहां कहां छुपा रखी थी अपने हिस्से की प्रक्रिति उन्होने.........
आंतक,विध्वंस और मिसाइलों

की इस भयावह दुनिया में

आदेशों,परिपत्रोंऔर फ़ाइ
लों
की इस इमारत मे

बहुत जतन से बचा पाई हूं

थोड़ी सी प्रक्रिति अपने हिस्से की

थोड़ा सा प्यार् तुम्हारे हिस्से का
और थोड़ी सी छुट्टियां हमारे हिस्से की


फ़िर सिर्फ़
यही तो किया
कि मुट्ठी भर पूस की धूप को

चुरा कर फ़ाइलों मे छिपा लिया
फ़ागुन की चांदनी को दराज़ों में
और भादों की नमी को अलमारी में
छिपा कर रख लिया.
कि जेठ की ऊंघती-तपती दोपहर मे
थोड़ी सी फ़ुरसत में
मेज़ के कागजों को हटा कर
इन्हें फ़ैला लूंगी.
खिड़की के पास झूल आते
कदंब के डंगाल पर टांग दिया
तारीखों को
मीटिंग/रिपोर्ट/संसद् प्रशन

और परिपत्रों को .

लेकिन इतने जतन से सहेज कर रखी गयी अमानतों का हश्र क्या हुआ.....

फ़ाइलों की सरकारी भाषा में
गुम हो गया है

टुकड़ा धूप का

चांदनी पिघल गयी है
दराज़ में भरे फ़ालतू परिपत्रों में

सूख रही है

बारिश की नमी

अलमारी मे बंद
रगिस्ट्रों,फ़ाइल कवरों

और टाइप पेपरों मे.

लेकिन रंगीन सपनों का यूं स्याह हो जाना उन्हें स्वीकार नहीं था .थक कर बैठ नही जाती थीं वरन शुरु हो जाती थी तैयारी फ़िर एक नयी यात्रा की .....

अपन क्यों
चुरा लें कुछ दिन छुट्टियों के
और चले जायें पहाड़ों के उस पार

चुरा लायें वहां से

रात रानी की थोड़ी सी महक

जाड़े की नरम धूप
छितिज से सिं दूरी रंग
मिट्टी की सोंधी गंध
अमलतास की हंसी

गुल्मोहर की दह्कन
पलाश की आंच
हरसिंगार की ठंडक

चुरा लायें वहां से
सिंदूरी शामें
कुछ जूही की महकती रातें
कुछ फ़ुरसती दोपहरियां
कि
फ़ाइलों का मटमैला रंग
तारीखों की तल्खी
कुछ कम हो जाये
चांदनी ,धूप ,नमी नहीं बची तो
क्या हुआ
छुट्टियां शेष हैं
शेष है यात्रा
पहाड़ के उस पार की .


और
यात्रा अशेष हो गयी........

2 comments:

अनुजा said...

मैं मूक हो गयी हूं इन कविताओं और प्रतीकों को पढकर;....।

namita said...

कितनी आशा देती कविता है न अनुजा और अपनी जद्दोजहद के कितने करीब......चलो अब तुम भी सहेजो पलाश मेज की ड्राअर में.....यूं तो पलाश का जंगल कितने करीब दहकता तुम्हारे....बस बेतवा के पार ही तो.

नमिता